लोकतंत्र का सबसे भयावह और शर्मनाक दौर है यह

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गिरीश पंकज

अपने देश का लोकतंत्र अब धीरे-धीरे छाया-लोकतंत्र में तब्दील होता जा रहा है. मतलब यह कि लोकतंत्र-सा दिख तो रहा है, मगर छाया होने के कारण पकड़ में नहीं आ रहा. लोकतंत्र तो है, आज़ादी भी है, मगर कैसी? भ्रष्टाचार करने के लिये हम स्वतंत्र है, सडकों पर ‘स्लट मार्च’ के लिये स्वतंत्र है, समलैंगिक सम्बन्ध बना कर इसे अपनी स्वतंत्र साबित करने के लिये मुक्त है, ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की अगुवाई करने के लिये आज़ाद है, पुलिस डंडे बरसने और गोली चलाने के लिये आज़ाद है. इस तरह की आजादी तो कदम-कदम पर नज़र आती है, मगर इस देश के लोग भ्रष्टाचार और सरकारों की नीतियों के विरुद्ध सडकों पर उतरते हैं, तो वे पूरी तरह से आजाद नहीं है. सौ-सौ पहरे हैं उन पर. ये कैसी आजादी है कि हम अपने ही देश में बंदी जैसे लगते है? अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हमारा संवैधानिक हक़ है,मगर यह स्वतंत्रता छिनती जा रही है. लोकतंत्र का काला-स्याह चेहरा पूरी दुनिया देख रही है. यही कारण है कि अमरीका जैसे लोकतान्त्रिक देश को भी कहना पड़ता है कि भारत में हो रहे आंदोलनों का सरकार दमन न करे.

रामदेव बाबा के आन्दोलन को जिस तरीके से कुचला गया था, उसे याद कर अगर लोगों को जलियावाला बाग़ की याद आई तो यह गलत नहीं था. रात को सोते हुए लोगों को जगाना और उन्हें लाठियों से पीटना, भागना क्या यह लोकतांत्रिक देश की नैतिकता कही जा सकती है? कभी नहीं. अब इसी तरह का व्यवहार अन्ना हजारे के साथ करने की तैयारी है.

भ्रष्टाचार के विरुद्ध अन्ना दिल्ली में अनशन करना चाहते हैं, मगर उन्हें अनुमति देने में आनाकानी की जा रही है. शर्तें लादी जा रही है, धारा १४४ लगा दी गई है. यह कैसा भारत हम पूरी दुनिया के सामने पेश कर रहे हैं? ऐसे व्यवहार से क्या सन्देश जाएगा दुनिया भर में? ऐसा व्यवहार तो उन देशों में ही नज़र आता है, जहाँ गुलामी हो. भारत में १९४७ के पहले अक्सर होता था. आज़ादी के लिये सडकों पर उतारने वालों का दमन किया जाता था. आज भी वैसे ही मंज़र नज़र आने लगे हैं. अन्ना हजतरे के आन्दोलन को कुचलने के लिये सरकार जो खेल खेल रही है, वह उस पर भारी पडेगा. अगर आज मध्यावधि चुनाव हो जाये, तो यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि यूपी सरकार बुरी तरह साफ़ हो जायेगी. कांग्रेस के प्रवक्ता मनीष तिवारी की बुद्धि पर तरस आता है. ७४ साल के अन्ना हजारे को वे तुम कह कर संबोधित करते हैं. जिस कांग्रेस का एइसा बिगडैल,बदतमीज़ प्रवक्ता हो, उस कांग्रेस का वर्त्तमान चरित्र कैसा होगा,यह आसानी से समझ जा सकता है. अन्ना के आन्दोलन से बौखला कर कांग्रेसीक्या सामान्य शिष्टाचार भी भूलगए हैं? यह कैसी पार्टी है, जो अहिंसक आन्दोलन करने बाले एक बुजुर्ग से तू-तड़ाक की भाषा में बात करती है? अपने चेहरे को सुधारने की बजाय आईने को तोड़ने पर तुली कांग्रेस का असली चेहरा सामने आता जा रहा है.

यह साफ़-साफ नज़र आ रहा है कि देश धीरे-धीरे आपातकाल जैसी स्थितियों की ओर बढ़ रहा है. अगर ऐसा हुआ तो यह शर्मनाक होगा. क्या देश अब तीसरी आज़ादी के लिये संघर्ष करेगा? बेहतर तो यह होता कि अन्ना को अन्बशन करने दिया जाता. वे सरकार हटाओ कि माँग लेकर तो अनशन नहीं कर रहे हैं.वे लोकपाल बिल में कुछ प्रावधानों को शामिल करने की माँग पर अड़े हुए है. और उनकी माँग गलत भी नहीं है. उन्हें यह कर कर ख़ारिज करनागलत है कि उनका अनशन संसद की अवमानना है. लगता है कि सत्ता में बैठी कांग्रेस और अन्य लोग यह भूल रहे हैं कि अन्ना और उनके साथ जुड़े लोग भी इसी देश के नागरिक हैं. फिर संसद के बाहर भी एक संसद होती है-‘जनता की संसद’.यह एक तरह से ‘बड़ी संसद’ है, जो कामकाज के लिये एक ‘छोटी संसद’ चुनती है. इस ‘जन-संसद’ को अधिकार है कि जब चुनी हुई संसद गलत दिशा में जाने लगे, तो उसका प्रतिवाद करे. और प्रतिवाद का यही गांधीवादी तरीका है कि उपवास किया जाये, धरना दियाजाये, जुलूस निकले जाये. और जब जनता यह करना चाहे, तो उस को कुचलने की कोशिश की जाये, तो यह लोकतंत्र विरोधी आचरण ही कहलायेगा. अभी ऐसा ही हो रहा है.

केंद्र का तानाशाही चरित्र देखते हुए यही लगता है कि हम लोगों ने अपने लोकतंत्र को विकलांग-सा कर दिया है. जहाँ आज़ादी न मिले, तो आज़ादी का मतलब क्या है? मणिपुर में इरोम शर्मिला चानू दस साल से आमरण अनशन पर बैठी है. उसकी माँग अनसुनी की जा रही है. बार-बार उसे जेल भेज दिया जाता है. लेकिन सेना को मिले विशेषाधिकार को हटाने की उसकी माँग पर विचार ही नहीं किया जा रहा. हरिद्वार में गंगा शुद्धीकरण की मांग को लेकर अनशन करने वाला संन्यासी मर जाता है, मगर सरकार का कोई आदमीं उसको समझाने या ठोस आश्वासन देने नहीं पहुंचता. औद्योगिक घरानों को जमीने बाँटने के लिये किसानों कि ज़मीनें बलपूर्वक छीन ली जाती है. और जब वे सडकों पर उतरते हैं, तो कानून -व्यवस्थाबनाने के नाम पर उन पर लाठी-गोली बरसाई जाती हैं. यह कुचक्र लगातार जारी है. आज़ादी के बाद से ही ये हथकंडे शुरू हो गए थे.ऐसा लगता है कि हमारे बहुत-से नेता यही देख रहे थे कि कब अंगरेज़ देश छोड़ कर जाएँ, तो कुर्सी हथिया लें और उनके हथकंडों का इस्तेमाल करके देश की जनतापर शासन करे. अगर यह बात नहीं है तो क्यों अंगरेजों के संविधान को जस का तस स्वीकार कर लिया गया? पुलिस की व्यवस्था जस की तस क्यों रहने दी गई? अधिकाँश अंगरेजी कानून क्यों नहीं बदले गए? पुलिस का क्रूर चेहरा बदलने की कोशिश क्यों नहीं की गई? आज़ादी की लड़ाई मेंजितने लोग शहीद नहीं हुए, उससे कई गुना लोग आज़ादी के बाद पुलिस की गोलियों से मारे जा चुके हैं? क्या यही है आज़ादी का प्रतिसाद? यह सिलसिला अब तक जारी है. अन्ना के आन्दोलन को कुचलने की जो कोशिश हो रही है, वह यह दर्शाती है,कि हमारी सत्ता इस देश की जानता को केवल मूक दर्शक बने रहने देना चाहती है. संसद अंतिम नहीं है. जनसंसद उससे भी बड़ी है.अगर आज जन-संसद के मन में किसी बात को ले कर संशय है, तो उसकी भावना का सम्मान करनाचाहिये, न कि उसके दमन की तैयारी. रामदेव के आन्दोलन को जिस तरीके से कुचला गया, अगर उसी तरीके से अन्ना और उनके लोगों के साथ आचरण किया जाएगा तो साफ़ हो जाएगा कि इस देश की सत्ता नागरिक अधिकारों का हनन कर रही है, और वह देश को गुलामी की ओर धकेल रही है. यह नज़ारा आज़ादी का जश्न मनाने के दौरान दिखेगा, यह दिख रहा है, यह देख कर शर्माती है कि हम उस देश के वासी हैं, जहाँ हमें विकलां लोकतंत्र मिला है,जो उन लोगों के हाथों में है, जो बातें तो करते हैं गांधी की, मगर जिनका चरित्र डायर या फिर कहें तो, गोंडसे से मिलता जुलता है.

1 COMMENT

  1. munish tiwari जी,

    दिल तो karta है की अप्प को ढेर sari galiya du, par hum aisa nahi करगे , ? ये काम अप्प जैसे ghanghi’स khandan कई चमचो कई लिए रेसेर्वे है ?????????????????????

    तिवारी जी, thoda सोचो , tab बोलो ?

    ? अगर अप्प को tihad मई jana pade तो अप bata सकती है की ludhiana साईं कितने बंदी अप्प कई sath hogai ………..????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????

    सोनिया तो इटली चली जेगे, अप्प kaha jaogai ………………

    HINDUSTAN , जग रहा है, ध्यान rakhna …………………….

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