देश एवं आर्यसमाज के इतिहास में स्वामी श्रद्धानन्द जी का गौरवपूर्ण स्थान

0
181

-मनमोहन कुमार आर्य

23 दिसम्बर, 2017 को ऋषिभक्त स्वामी श्रद्धानन्द जी का 91 वां बलिदान दिवस है।  इसी दिन दिल्ली में एक विधर्मी जुनूनी हत्यारे अब्दुल रसीद ने रुग्णावस्था में स्वामी जी को गोली मारकर शहीद कर दिया था। देश के इतिहास में के हिन्दू बन्धुओं को विदेशी यवन विधर्मियों ने देश पर आक्रमण कर यहां के लोगों को मारा, बहिनों व माताओं की इज्जतं से खिलवाड़ किया, हमें गुलाम बनाया और हमें जजिया कर तक देना पड़ा। अनेकानेक और भी अन्याय व उत्पीड़न झेलना पड़ा। इन विदेशी आततायियों के जुल्मों की असंख्य कहानियां है। यह सिलसिला शताब्दियों तक चला। उसके बाद अंग्रेजों ने भारत को गुलाम बनाया और भारत की जनता पर अमानुषिक अत्याचार किये। साथ ही भोले भाले लोगों का धर्मान्तरण भी किया। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द ने जन्म लेकर जनजागरण करते हुए वैदिक धर्म व संस्कृति का शुद्ध स्वरूप प्रस्तुत किया और उसका प्राणपण से प्रचार किया। ईश्वर ने महर्षि दयानन्द को गजब की बुद्धि व ज्ञान दिया था। समाज सुधार, अज्ञान तथा अन्धविश्वास दूर करने की प्रेरणा उन्हें अपने विद्या गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से मिली थी। स्वामी दयानन्द ने चुनौती देते हुए घोषणा की थी कि वेद ही वस्तुतः संसार की समस्त मानव जाति का एकमात्र धर्मग्रन्थ है। वेदानुकुल मान्यतायें व सिद्धान्त ही ईश्वर प्रदत्त होने से उन्हें स्वीकार थे और वेद विरुद्ध सभी मान्यताओं व सिद्धान्तओं का वह प्रमाणों, युक्तियों व तर्कों से खण्डन करते थे। उनके समय में संसार का कोई वेदेतर विद्वान उनकी किसी मान्यता का युक्ति व प्रमाण के साथ खण्डन नहीं कर सका। स्वामी दयानन्द के वेद प्रचार के कार्य के कारण ही 30 अक्तूबर, 1883 ई. को उनके विरोधी शत्रुओं के धोखे से विषपान द्वारा उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद स्वामी दयानन्द जी के शिष्य स्वामी श्रद्धानन्द ने उनके कार्यों को योग्यतापूर्वक निभाया। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वामी दयानन्द की वेदों की शिक्षाओं और सिद्धान्तों पर आधारित गुरुकुलीय शिक्षा का उद्धार किया। उन्होंने सन् 1902 में गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना की थी जहां वेदों के अनेकानेक विद्वान बनें जिन्होंने शिक्षा, अध्यापन, पत्रकारिता, स्वतन्त्रता आन्दोलन, इतिहास, धर्म प्रचार, शुद्धि, जन्मना जाति के विरोध में प्रचार व दलितोत्थान आदि कार्यों सहित अनेकानेक समाज सुधार के कार्य किये और वैदिक धर्म का प्रचार कर भारत का गौरवमय इतिहास रचा।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह वैदिक धर्म व संस्कृति के अनुरागी महापुरुष थे। आदर्श ईश्वर भक्त, वेदभक्त, देशभक्त, मानवता के पुजारी, शिक्षा शास्त्री, समाज सुधारक और वेद धर्म प्रचार सहित स्वामी श्रद्धानन्द स्वतन्त्रता आन्दोलन के शीर्ष नेता और दलितों के मसीहा थे। विधर्मियों की शुद्धि का उन्होंने अपूर्व ऐतिहासिक कार्य किया है। उनके द्वारा स्थापित गुरुकुल कांगड़ी व अन्य गुरुकुल आज भी वैदिक धर्म व संस्कृति के उत्थान में अपनी विशेष भूमिका निभा रहे हैं। स्वामी जी ने देश की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। रालेट एक्ट के विरोध में सन्  1919 में उन्होंने दिल्ली में अंग्रेज सरकार के विरोध में आन्दोलन के नेतृत्व की बागडोर अपने हाथों में ली थी और उसे सफल किया था। जिस आन्दोलन का उन्होंने नेतृत्व किया था, उसके जलूस के चांदनी चौक आने पर अंग्रेजों के गुरखा सैनिकों ने स्वामी जी पर अपनी बन्दूकों की संगीने तान दी थी। तभी भीड़ को चीर कर स्वामी श्रद्धानन्द जी सैनिकों के सामने आये थे और सीना खोलकर सैनिकों को ललकारते हुए बोले थे, ‘हिम्मत है तो मेरे सीने पर मारो गोली’। स्वामी जी की यह ललकार, उनकी वीरता, निर्भयता, निडरता व साहस को देखकर वहां तैनात अंग्रेज अधिकारी घबरा गया था और उसने सैनिकों को बन्दूकें नीची करने का आदेश दिया था। स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन की यदि अन्य घटनाओं को छोड़ भी दिया जाये तो यही घटना उन्हें महान् बनाने के लिए काफी है। इससे जुड़ी घटना यह भी है कि स्वामी श्रद्धानन्द जी की वीरता की यह खबर पूरी दिल्ली और देश भर में फैल गई थी। इससे प्रभावित होकर दिल्ली की जामा मस्जिद के मिम्बर से उन्हें मुस्लिमों की एक सभा को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। स्वामी जी ने वहां पहुंच कर भी एक नये इतिहास की रचना की जो वैदिक धर्म के इतिहास की घटनाओं में अन्यतम घटना है। उन्होंने जामा मस्जिद के मिम्बर से वेद मन्त्र ‘ओ३म् त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथः। अघा ते सुम्नी महे।।’ बोल कर अपना सम्बोधन आरम्भ किया था और भारी मुस्लिम जनसमूह में उनकी जय जयकार हुई थी। उसके बाद यह सम्मान किसी गैर मुस्लिम व्यक्ति को कभी नहीं मिला कि वह जामा मस्जिद के मिम्बर से सम्बोधन दे सके। प्रत्यक्ष दर्शियों व समकालिन लोगों ने लिखा हैं कि चांदनी चौक की घटना से स्वामी श्रद्धानन्द जी दिल्ली के बेताज बादशाह बन गये थे। बताते हैं कि स्वामी जी ने जामा मस्जिद से अपने सम्बोधन में कहा था कि हिन्दी का हम शब्द ‘ह’ से हिन्दू व ‘म’ से मुसलमान को दर्शाता है और यह शब्द दोनों समुदायों की एकता का प्रतीक है।

 

देश की स्वतन्त्रता के इतिहास में अमृतसर में 13 अप्रैल, सन 1919 की बैसाखी के दिन जलियांवाला बाग की नरसंहार की घटना प्रसिद्ध है जिसमें शान्तिपूर्ण सभा कर रहे हजारों स्त्री व पुरुषों को बिना चेतावनी दिए गोलियों से भून दिया गया था। गोली चलाने का आदेश ब्रिगेडियर जनरल रेजीनाल्ड डायर ने दिया था। इस गोलीकाण्ड में लगभग 1500 लोग मरे थे और 1200 से अधिक घायल हुए थे। इसके विरोध में चेन्नई में कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित किया गया था। इसके लिए कोई उपयुक्त नेता न मिलने पर स्वामी श्रद्धानन्द जी को ही अधिवेशन का स्वागताध्यक्ष बनाया गया था। इसकी एक विशेषता यह थी कि यहां स्वामी श्रद्धानन्द ने अपना स्वागत भाषण हिन्दी में दिया था। इस घटना से स्वामी श्रद्धानन्द कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता की कोटि के नेता बन गये थे। डा. विनोद चन्द्र विद्यालंकार द्वारा सम्पादित ‘स्वामी श्रद्धानन्द – एक विलक्षण व्यक्तित्व’ ग्रन्थ में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया गया है। पाठकों को इस ग्रन्थ का अध्ययन करना चाहिये। इससे स्वामी श्रद्धानन्द जी के महान व्यक्तित्व को भली प्रकार से तक जाना जा सकता है।

 

आगरा व मथुरा के आस पास रहने वाले मलकाने राजपूत जिनके सभी रीति रिवाज व पूजा पद्धतियां आदि हिन्दू व हिन्दुओं के समान थीं, मुसलमान कहलाते थे। वह मुस्लिम मलकाने राजपूत चाहते थे उनको उनके पूर्वजों के हिन्दू धर्म में शामिल कर लिया जाये। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने उनका यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था और भारतीय शुद्धि सभा की स्थापना कर लगभग 2 लाख की संख्या में मलकाने राजपूतों को शुद्ध कर उन्हें हिन्दू धर्म में प्रविष्ट कराया था। उनका यह कार्य इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। यह शुद्धि वस्तुतः वेद प्रचार आन्दोलन है जिसका एक उद्देश्य भय व प्रलोभन आदि अनेक कारणों से अतीत में धर्मान्तरित अपने बिछुड़े भाईयों को ईश्वरीय ज्ञान वेद की शरण में लाया जाना था। आर्य जाति इस कार्य के महत्व को जानकर इसका अनुसरण करेगी तो इतिहास में जीवित रहेगी अन्यथा इसकी पूर्व काल में जो दुरावस्था हुई है, भविष्य में उससे भी बुरी हो सकती है। हम यह भी बता दें कि आर्यसमाज का वेद प्रचार और शुद्धि का आन्दोलन सत्य को ग्रहण करने और असत्य के त्याग करने के सिद्धान्त पर आधारित है। आर्यसमाज सभी मतावलम्बियों की धर्म विषयक जिज्ञासाओं सन्तोषजनक समाधान करता है जबकि अन्य ऐसा नहीं करते। मनुष्य जाति की उन्नति का एकमात्र कारण सत्य का प्रचार ही है। अतः आर्यसमाज को सत्य ज्ञान के भण्डार वेदों का संगठित होकर पुरजोर प्रचार करना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि वेदाज्ञाओं का पालन ही धर्म है। ‘कृण्वन्तो विश्मार्यम’ इन वेद के शब्दों संसार के लोगों को विश्व के लोगों को श्रेष्ठ आचारण वाला बनाने की आज्ञा दी गई है।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने दलितोत्थान का कार्य भी प्रभावशाली रूप से किया। कांग्रेस में रहते हुए उन्होंने अनुभव किया कि उनके इस कार्य में कांग्रेस द्वारा वह प्राथमिकता व सहयोग नहीं मिल रहा है जिसकी उन्हें अपेक्षा व आवश्यकता थी। इस कारण उन्होंने अपना रास्ता बदलते हुए कांग्रेस छोड़ दी। इतिहास में यह भी पढ़ने को मिलता है पंजाब में किसी स्थान पर सवर्ण हिन्दू अपने कुओं से दलितों को पानी नहीं भरने देते थे। ऐसे स्थानों पर स्वामी श्रद्धानन्द और उनके आर्यसमाजी सहयोगी स्वयं पानी भरकर दलित भाईयों के घर पहुंचाते थे। हम अनुभव करते हैं कि आर्यसमाज व इसके नेताओं ने समाज के उपेक्षित व दलित वर्ग को दलित नाम दिया और उनके उत्थान के लिए दलितोत्थान का आन्दोलन चलाया। कांग्रेस ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद दलित बन्धुओं को आरक्षण का लाभ देकर सुविधाभोगी बना दिया जिससे वह समाज में विलीन होने के स्थान पर स्वयं को पृथक अनुभव करने लगे। आर्यसमाज दलितों का वैदिक शिक्षा द्वारा उत्थान कर उन सबको समग्र हिन्दू समाज में गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार समावेश करना चाहता था जबकि राजनीतिक दलों ने उन्हें सुविधा देकर उन्हें अपना वोट बैंक बना लिया जिससे दलितोत्थान का कार्य अवरुद्ध हो गया और वर्तमान में यह समाज का एक पृथक वर्ग सा बन गया है। हमारे सामने ऐसे उदाहरण हैं कि कुछ दलित परिवारों के बन्धु गुरुकुलों में पढ़कर वेदों के विद्वान बने, वेदों पर टीकायें आदि लिखी, मांस-मदिरा का सेवन त्यागा, स्वास्थ्यप्रद घी-दुग्ध आदि का भोजन किया, आर्यसमाज में हिन्दुओं के घरों में पूजा पाठ कराने वाले सम्मानित पुरोहित बनें और समाज में सम्मानित स्थान पाया जबकि आर्यसमाज से पृथक दलित सामाजिक दृष्टि से वह स्थान प्राप्त नहीं कर सके।

 

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सद्धर्म प्रचारक पत्र का सम्पादन व प्रकाशन भी किया था। यह पंजाब में बहुत लोकप्रिय पत्र था। पहले यह उर्दू में प्रकाशित किया जाता था। ऋषि दयानन्द के हिन्दी को महत्व दिये जाने के कारण आपने, पंजाब में उर्दू पाठको की बहुसंख्या होने पर भी, अपने पत्र को उर्दू के स्थान पर हिन्दी में प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया था। इससे उन्हें भारी आर्थिक घाटा भी हुआ था परन्तु धर्म को महत्व देने वाले स्वामी श्रद्धानन्द जी ने आर्थिक घाटे चिन्ता नहीं की। स्वामी जी आर्यसमाज, आर्य प्रतिनिधि सभा, पंजाब और सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान पद पर रहे। ऋषि दयानन्द जी का खोजपूर्ण जीवन चरित लिखाने का श्रेय भी आपको है। ऋषि जीवन के अनुसंधानकर्ता और सम्पादक रक्तसाक्षी पं. लेखराम जी आपके गहरे मित्र व सहयोगी थे। दोनों में गहरे आत्मीय सम्बन्ध थे। आपने पं. लेखराम जी की एक मुस्लिम आततायी द्वारा हत्या के बाद उनका श्रद्धापूर्ण शब्दों में जीवन चरित्र लिखा है। यह वैदिक धर्म पर शहीद हुए स्वामी श्रद्धानन्द का अपने से पहले धर्म की वेदी पर शहीद हुए पं. लेखराम जी को श्रद्धांजलि है। इसे देश की युवा पीढ़ी को अवश्य पढ़ना चाहिये। स्वामी श्रद्धानन्द जी एक बहुत अच्छे लेखक भी थे। आप अंग्रेजी, उर्दू, हिन्दी आदि भाषाओं के विद्वान थे। आपने हिन्दी व उर्दू में पर्याप्त संख्या में ग्रन्थ लिखे हैं। आपका समस्त साहित्य, कुछ उर्दू आदि ग्रन्थों को छोड़कर, 11 खण्डों में वैदिक साहित्य के प्रकाशक मै. विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इसका नया संस्करण इसी प्रकाशक द्वारा दो खण्डों में भव्य रूप में पुनः प्रकाशित किया गया है। स्वामी जी ने अपनी आत्मकथा ‘कल्याण मार्ग का पथिक’ लिखी है जो किसी उपन्यास की तरह ही रोचक है। इसमें आपने अपने जीवन की किसी भी गुप्त बात को छिपाया नहीं है। आत्मकथा साहित्य में यह बेजोड़ ग्रन्थ है। वेद भाष्यकार डा. आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी के सुपुत्र डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार जी ने स्वामी श्रद्धानन्द जी के व्यक्तित्व व कृतित्व पर ‘एक विलक्षण व्यक्तित्व : स्वामी श्रद्धानन्द’ नाम से एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा है। इस ग्रन्थ की महत्ता का अनुमान इसे पढ़कर ही लगाया जा सकता है। हर साहित्य प्रेमी को इस ग्रन्थ को पढ़ता चाहिये।

 

जिन दिनों स्वामी श्रद्धानन्द जी गुरुकुल कांगड़ी का संचालन करते थे तो वहां श्री मोहन दास गांधी भी आये थे। गांधी जी यहां आने से कुछ समय पूर्व ही दक्षिण अफ्रीका से भारत आये थे। स्वामी श्रद्धानन्द जी ने आपको मिस्टर गांधी न कहकर महात्मा गांधी के नाम से सम्बोधित किया था। गांधी जी के नाम के साथ ‘महात्मा’ शब्द का प्रथम प्रयोग स्वामी जी ने ही किया जो गांधी जी की मृत्यु तक उनके नाम के साथ जुड़ा रहा। यह बता दें कि जब गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में आन्दोलन किया था तो स्वामी श्रद्धानन्द जी के शिष्यों ने भारत में मेहनत व मजदूरी करके व भोजन आदि व्यय में कमी करके एक अच्छी बड़ी धनराशि गांधी जी को आन्दोलन में सहायतार्थ अफ्रीका भेजी थी। एक बार इंग्लैण्ड में विपक्ष के नेता रैम्जे मैकडानल, जो बाद में इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बने, गुरुकुल आये और यहां स्वामी जी के निकट रहे। आपने अपने संस्मरणों में स्वामी श्रद्धानन्द जी को जीवित ईसा मसीह की उपाधि से स्मरण किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति सेंट पीटर की मूर्ति बनाना चाहे तो मैं उसे स्वामी श्रद्धानन्द की भव्य मूर्ति को देखने की संस्तुति करूगां। स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन की अनेक प्रेरणाप्रद घटनायें हैं जिसके लिए उनका जीवन चरित व श्रद्धानन्द ग्रन्थावली पढ़ना उपयुक्त है। अधिक विस्तार न कर हम लेख को विराम देते हुए उस आदर्श महापुरुष, ईश्वर, वेद व देश भक्त, गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली के उद्धारक, समाज सुधारक, दलितोद्धारक, शुद्धि का सुदर्शन चक्र चलाने वाले स्वामी श्रद्धानन्द जी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ओ३म् शम्।

 

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here