
विवेक कुमार पाठक
आतंकवादी किसी भी परिवार से हो उनके प्रति पड़ोसियों व बस्ती के बाकी लोगों का सहज गुस्सा स्वभाविक है। ये त्वरित गुस्सा धर्म और जाति देखकर पैदा नहीं होता बल्कि आतंकवादी के कृत्य और उसके प्रति उसके परिवार की लापरवाही को देखकर हो सकता है मगर अनुभव सिन्हा की मुल्क फिल्म कुछ अलग ही तयशुदा धारणा स्थापित करती है। एजेंडाशुदा निर्देशक की यह एजेंडा फिल्म सहिष्णु हिन्दू समाज पर भेदभाव जांतिवाद जैसे तरह तरह के आतंकवाद के आरोप लगाती दिखती है। यह फिल्म एक बस्ती के हिन्दुओं का मनमाना विभाजनकारी रुप दिखाकर देश भर में मुस्लिमों के मन में एक अलग तरह का डर स्थापित करने वाली एजेंडा फिल्म है।
हरियाणा में गौहत्या को लेकर अखलाक की कथित हत्या के बाद देश भर में खतरा बताने के लिए देश में तमाम दिशाओं से प्रयास हुए थे। ये धाराएं साहित्य, रंगमंच से लेकर सिनेमा से बहुत लक्ष्य के साथ बह रही हैं। ऐसा मौखिक वातावरण बनाया गया है कि पिछले कुछ सालों में देश मुसलमानों के लिए घोर असुरक्षित हो गया है। हिन्दुओं को लाठी डंडे वाले गुण्डों के रुप में प्रचारित करने सिने मंच का चालाकी से प्रयोग किया गया है। शायद चल समारोहों में शस्त्र पहली बार दुनिया ने हिन्दुओं के हाथ में ही देखे हैं। इससे पहले तमाम पंथों के सदियों से हो रहे आयोजनों में किंचित वे पुष्प और पुष्प लताएं रहें हों। अनुभव सिन्हा की मुल्क फिल्म एक तय एजेंडा को बड़ी बारीकी से समाज के बीच स्थापित करने की कोशिश है। फिल्म में एडवोकेट मुराद अली मोहम्मद एक मिलनसार व पड़ोसियों का ख्याल रखने वाले नेकदिल इंसान हैं जबकि पड़ोसी पान दुकान वाले चौबे की आंखों में ही चालकी चमकती दिखाई गई है। चौबे भले ही हिन्दू समुदाय में पूजा पाठ करने वाले सात्विक ब्राहमण परिवार से हों मगर फिल्म में वे मुर्ग मुसल्लम पर मर मिटते दिखाए गए हैं। साफ शब्दों में मुल्क फिल्म के चौबे पाखंडी हिन्दू ब्राहमण हैं। पत्नी से छिपाते हैं और मुस्लिम पड़ोसी अली मोहम्मद के घर दावत में मटन कोरमा के लिए लार टपकाते हैं। चौबे परिवार मतलब परस्त भी है। चौबे एडवोकेट मुराद अली मोहम्मद का केवल अच्छे अच्छे में सगा है अली के छोटे भाई बिलाल मोहम्मद के बेटे का आतंकवाद में नाम आते ही वो षड़यंत्रकारी बन जाता है। अनुभव सिन्हा की दिमाग से उपजी इस बस्ती के हिन्दुओं में से एक भी बेकसूर मुराद अली के साथ खड़ा नहीं होता। मुल्क फिल्म हिन्दुओं का यही कट्टर मॉडल बड़ी चालाकी से पेश करती है। बस्ती के छोटे मंदिर के आसपास रहने वाले सारे हिन्दू पड़ोसी कभी मंदिर में पूजा पाठ करते नहीं दिखाए गए हैं मगर अली मोहम्मद के घर की हिन्दू बहू एकदम पूजापाठी हिन्दू दिखी है। सुबह से शाम तक वह मोहम्मद परिवार में भगवान के दर्शन करने नहीं जाती मगर अली मोहम्मद का केस लड़ने जाते वक्त उसे मंदिर में माथा झुकाते दिखाया गया है। मतलब मुराद अली मंदिर मस्जिद में फर्क नहीं रखते व उनके परिवार में हिन्दू बहू को अपने धर्म पालन की पूरी छूट है। निर्देशक ने इस दृश्य से मोहम्मद परिवार को एक शांतिपसंद सहिष्णु मुस्लिम परिवार व इंसानियत व भाईचारे की राह पर चलते दिखाया है जबकि बाकी बस्ती का पूरा हिन्दू समुदाय भले मुराद अली के प्रति घृणा व नफरत करते हुए सिर्फ षड़यंत्र के लिए कैमरे पर दर्ज हुआ है। बस्ती के मंदिर को पूजापाठ की जगह अली मोहम्मद परिवार पर हमले का अड्डा बनाते हुए फिल्माया गया है। माता जागरण के लिए भोंपू षड़यंत्र दिखाए हैं। शायद निर्देशक की सजाई फिल्मी बस्ती में अजान के लिए कोई भोंपू तो होगा नहीं जो सुबह शाम बजता होगा। बस्ती के हिन्दू परिवार का युवा लाठी डंडा छाप गुण्डा हिन्दू बताया गया है जिसको अतिवाद की घुट्टी एक सामाजिक सांस्कृतिक संगठन से मिल रही है। मुल्क फिल्म को ध्यान से देखिए। कौनसा दृश्य किस धारणा को स्थापित करने की लिए फिल्माया गया है साफ समझ आएगा। लगभग हर दृश्य बस्ती के मुसलमानों को शांतिपसंद लाचार बेबस पीड़ित और बहुसंख्यक हिन्दुओं को षड़यंत्रकारी और चरमपंथी बताता नजर आता है। विचार विशेष से पीड़ित निर्देशक ने सारी रचनाधर्मिता अपने मन की धारणाओं और कुंठाओं को पर्दे पर लाने में खपाई है। कुछ सार्थक छोटे दृश्य और संवाद देश भर से संभावित आरोप और सवालों से बचने जरुर अपने डिफेंस के लिए शामिल किए हैं।खैर फिल्म में अली मोहम्मद के परिवार से आतंकवादी सामने आने के बाद शायद बनारस की वो बस्ती दुनिया की सबसे अराजक स्थल बन जाती है। बिना लॉ एंड आर्डर वाली। पुलिस ने भी नेकदिल अली मोहम्मद को जैसे भीड़ के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया है। घर पर हिन्दू पड़ोसी पत्थर फेंकते हैं मगर पुलिस थाने पहुंचकर मदद मांगने पर भी वह कुछ नहीं करती। क्या सच में हिन्दुस्तान की पुलिस आम शांतिपसंद मुसलमानों को लेकर इतनी बेदर्द है। वैसे असलियत तो निर्देशक अनुभव सिन्हा भी खुद जानते होंगे मगर मुल्क फिल्म से सनसनी बेचने का मोह छोड़ नहीं सके। आजादी खतरे में है, मुसलमान खतरे में हैं आरोप भी अब देश के कई ब्रांडेड दिमागों के लिए नशा बन चुके हैं।बहरहाल फिल्म में मुरार अली मोहम्मद का मिलनसार व मददगार परिवार नायक बताया है यह नेक मुस्लिम परिवार आतंकवादी बेटे का शव नहीं स्वीकारता ये देश के लिए नजीर है। वो मस्जिद में पड़ोसी मुसलमान के भड़काने पर भड़कता नहीं है उल्टा उन पर सवाल खड़ा कर देता है। वाकई इन भाईचारे के संदेशों का स्वागत है मगर क्या बस्ती के एक भी हिन्दु में ऐसा प्रेम सद्भाव और भाईचारा मुल्क में निर्देशक ने क्यों और किस कारण से नहीं दिखाया । क्या निर्देशक को बनारस की बस्तियों के सारे हिन्दुओं में मुस्लिम के प्रति असहिष्णुता और नफरत ही देखी है। आखिर ये नजरें कैसी थीं जो सिर्फ मुसलमानों को खतरे में और हिन्दुओं को उनके प्रति नफरत करते देखती रहीं। देश पर मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह रखने का आरोप लगाती यह फिल्म खुद निर्देशक के तमाम पूर्वाग्रहों और कुंठाओं को पर्दे पर दिखाती है।यकीनन जाति धर्म से इतर हर शांतिपसंद हिन्दुस्तानी नायक है मगर पड़ोसी सभी हिन्दुओं को जिस कदर अव्वल दर्जे का मतलबपरस्त और षड़यंत्रकारी बताकर खलनायक दिखाया गया है ये हजम करने वाली बात नहीं है। क्या हिन्दुस्तान की किसी भी बस्ती के सारे हिन्दू इतने असहिष्णु हो सकते हैं वो भी अपने पीड़ियों से आजू बाजू रह रहे पड़ोसी व नेकदिल मददगार मुस्लिम दोस्त के लिए। कतई नहीं। भलाई और भाईचारे में इस देश के करोड़ों हिन्दू न कभी इतने कमतर हैं और न रहेंगे। देश में अपवादों को छोड़कर हिन्दु और मुस्लिम परिवार सदियों से भाईचारे से ही रहते आए हैं और देश के तमाम राज्यां से लेकर छोटी बड़ी बस्तियों और बसाहटों में रह भी रहे हैं।इसके बाबजूद निर्देशक ने मुल्क के जरिए मुस्लिमों के प्रति हिन्दुओं के मन में जो कथित खतरनाक धारणा पर्दे पर गड़ी है वो देश के सांप्रदायिक सद्भाव के एकदम खिलाफ है।फिल्म में कोर्ट रुम में सरकारी वकील को बड़े से बड़े खलनायक को पीछा छोड़ते दिखाया गया है। ऐसा लगता है कि फिल्म का वकील सरकारी न होकर चरमपंथियां का अगुआ और मुस्लिम विरेधी है। मुस्लिमों के प्रति कोर्टरुम में नफरत फैलाने उसे सरकार ने विधिवत नियुक्त कर रखा है। क्या भारत में सरकारी सिस्टम इतने भेदभाव से काम कर रहा है। क्या वाकई देश में भले और शांतिपसंद मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत की जाती है। क्या हर दूसरी बस्ती में पड़ोस का गरीब चौबे पांडे परिवार अपनी रोजी रोटी छोड़कर अदालत में बेगुनाह मुस्लिमों को फंसवाने का षड़यंत्र करता है। क्या मुसलामनों के खिलाफ मुकदमों में सरकारी वकील बेगुनाहों को फंसाने के लिए तमाम तरह के अनैतिक हथकंडे अपनाते हैं। और अगर ये सब कुछ होता है तो आजादी खतरे में है कहने वाले देश प्रदेश के तमाम बुद्धिजीवी चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं। क्या वाकई भारत में अत्याचारों पर ऐसा सामूहिक मौन देश देख रहा है। क्या सरकार पुलिस व पड़ोस के कथित मॉब लिचिंग वाले हिन्दू इतने जुल्म करते रहते हैं मगर कोई कुछ नहीं बोलता। देश में सच एकदम अलग हो मगर मुल्क फिल्म इसी कथित सच का नाम है। फिल्म में दिखाए ऐसे चरमपंथी समाज में भलाई सिर्फ वही हिन्दू लड़की करती है जो इस मुस्लिम परिवार की बहू है। इस हिन्दू के अलावा बाकी सारे हिन्दू किरदार मुल्क में नेक मुसलमान परिवार के खिलाफ षड़यंत्र और घृणा फैलाने वाली धारा का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप से हिस्सा हैं। वाकई फिल्म के आवरण में इतनी बड़ी घृणात्मक और षड़ंयत्रपरक धारणा फैलाना शर्मनाक है। मिलजुलकर रहने वाले देश के बहुसंख्यक हिन्दु समुदाय के प्रति एक निंदनीय सिने विचार है मगर मुल्क फिल्म के जरिए अनुभव सिन्हा ने देश के सामने एक ऐसे ही एजेंडाशुदा फिल्म परोसी है। वे फिल्म के रिलीज से पहले ट्विटर पर टिप्पणीकारों को मॉब लिचिंग गिरोह के पेड ट्रॉलर्स बताते हैं मगर असल में यह फिल्म भी विभाजनकारियों के छिपे हुए घृणित एजेंडे से कम नहीं है। फिल्म में हिन्दुओं को घोर असहिष्णु और षड़यंत्रकारी दिखाना घोर विभाजनका सिने प्रयास है।