लेख

देवनागरी और रोमन लिपि विवाद -2

-डॉ. मधुसूदन-
hindi

-भाग दो-

(आठ) हिंदी की अक्षरांकित देवनागरी ध्वनिलिपि

ध्वनि की लघुतम इकाई के चिह्न, अक्षर ही हैं। इन अक्षरों के समूह को जब अर्थ भी होता है, तो शब्द माने जाते हैं। यह हिन्दी की परम्परागत लिपि होने के कारण, आप इससे परिचित ही है। पर इस लिपिका गुणगान एक संस्कृतज्ञ के अनुवादित शब्दों में देखिए। आपका गौरव जगे बिना नहीं रहेगा।
रोमन लिपि की वकालत करनेवाले विद्वानों के लिए यह उद्धरण प्रस्तुत करता हूं।
एए मॅकडॉनेल क्या कहते हैं?
(पहले मूल अंग्रेज़ी देकर-नीचे हिंदी अनुवाद दिया है)
“It not only represents all the sounds of the Sanskrit language. but is arranged on a thoroughly scientific method…..We Europeans, on the other hand, 2500 years later. and in scientific age, still employ an alphabet which is not only inadeequate to represent all the sounds of our languages, but even preserves the random order in which vovels and consonents are jumbled up as they were in the Greek adaotion of the primitive Semitic arrangement of 3000 years ago.”
A History of Sanskrit Literature, A. A. Macdonell, p. 17.

देवनागरी लिपि,
मॅकडॉनेल कहते हैं।
देव नागरी लिपि, मात्र संस्कृत के सभी उच्चारों को ही नहीं दर्शाती, पर लिपि को विशुद्ध वैज्ञानिक आधार देकर उच्चारों का वर्गीकरण भी करती है।… और दूसरी ओर, हम युरप वासी आज, २५०० वर्षों के बाद भी, (तथाकथित) वैज्ञानिक युग में उन्हीं A B C D खिचडी वर्णाक्षरों का प्रयोग करते हैं, जो हमारी भाषाओं के सारे उच्चारणों को दर्शाने में असमर्थ और अपर्याप्त है, स्वर और व्यंजनो की ऐसी खिचड़ी को, उसी भोंडी अवस्था में बचाके रखा है, जिस जंगली अवस्था में, ३००० वर्षों पहले अरब-यहूदियों से प्राप्त किया था। -संस्कृत साहित्य का इतिहास -एए. मॅकडॉनेल पृष्ठ (१७)

अच्छा हुआ, “मॅकडॉनेल साहेब” आपने सुधार नहीं किया, तनिक हमारी तो सोचते, आप यदि सुधार करते तो फिर हम कुली झमुरे, किस की नकल करते? अंग्रेज़ी के मानसिक गुलाम हम कहां जाते? किसकी ओर ताकते ?

(नौ) “संस्कृत साहित्य का इतिहास” पुस्तक के लेखक, मॅकडॉनेल (१८५४-१९३०)
यह मॅकडॉनेल (१८५४-१९३०) बिहार में जन्मे, जर्मनी और इंग्लैण्ड में संस्कृत पढ़े थे।
१८८४ में, ऑक्सफर्ड युनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफ़ेसर नियुक्त हुए थे। ७००० संस्कृत की हस्तलिखित पाण्डुलिपियां काशी से खरिद कर ऑक्सफ़र्ड ले गए थे। इस काम में उन्हें भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड कर्ज़न(१८५९-१९२५) नें सहायता की थी। कुल १०.००० संस्कृत की पाण्डु लिपियां मॅकडोनेल ने ऑक्सफ़र्ड को दान दी थी। उनकी मृत्यु पहले वे ऋग्वेद का अनुवाद कर रहे थे।

(दस) (छः) १०.००० संस्कृत पाण्डु-लिपियां ऑक्सफ़र्ड को दान।
ये हमारे हितैषी थे या नहीं; मुझे संदेह है। क्यों कि इन्होंने हमारी पाण्डुलिपियां चुराने का भी काम किया था। वे संस्कृत से प्रभावित थे, पर अपने निजी उद्देश्य से। सारी रॉयल एशियाटिक सोसायटी पाण्डुलिपियों को संग्रह करने का नाटक कर, चुनी हुयी लिपियां युरप भेजा करती थीं।

जी हां, कुल १०.००० संस्कृत की पाण्डु लिपियां मॅकडोनेल ने ऑक्सफ़र्ड को दान दी थी। और इन की ओर आदर से देखनेवालों को यह भी सोचना होगा कि क्या यह सरासर चोरी नहीं है। मूर्ख हैं भारतवासी हम, हमें कौन हितकारी और कौन अहितकारी है, इसका भी ज्ञान नहीं है। जो भी हमें लूट लेता है, उसी को हम परम आदर से देखते हैं। उसीकी भाषा पर गर्व करते हैं।
पाण्डुलिपियां किसकी ? तो, हमारी।
दान कौन दे रहा है? तो मॅकडॉनेल।
और किसको? तो बोले ऑक्सफ़र्ड को।

वाह! महाराज मान गए। पाण्डुलिपियां हमारी, किस अधिकार से मॅकडॉनेल उसे किसी तीसरी ईकाई ऑक्सफर्ड को दान देते हैं? और मेरा भोलानाथ भारत उस पर हर्षित और गर्वित है।

(ग्यारह) रोमन लिपि में गीता।
कुछ रोमन में संस्कृत प्रयोग के इच्छुक पाठकों का ध्यान चाहता हूं। यदि गीता का पहला श्लोक आप रोमन में लिखकर देखें, तो, कैसा दिखेगा?
मूल श्लोक:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥

अब रोमन में लिखिए।
Dharmakshetre Kurukshetre samavetaa yuyutsavah.
Mamakah Paandavaashchaiv kimakurvat sanjay.
रोमन लिपि ही सीखा हुआ, बालक उसे कठिनाई से पढ़ेगा; तो उच्चारण कैसा होगा?
ढर्मक्षेट्रे कुरुक्षेट्रे समवेटा युयटस्वः
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वट संजय॥
और ऐसा पढ़ने में जो कठिनाई होगी, हमें उसका सही अनुमान नहीं हो सकता।
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दूसरा उदाहरण लें।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

इसे रोमन में परिवर्तित करनेपर ये निम्न प्रकार पढ़ा जाएगा।

यडा यडा हि ढर्मस्य ग्लानिर्बहवटी बहारट।
अबह्युस्ठानमढर्मस्य टडाट्मानं स्रिजाम्यहम्‌
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क्या यही चाहते हैं आप सारे भारत के लिए?
(बारह)
दूसरों की सुविधा के लिए हम क्या क्या त्याग करने को तैयार है?
सारे संसार के परदेशी लोगों की कठिनाई दूर करने वाले, धौतबुद्धि विद्वान भारत की पहचान भी बदल देंगे। दुःख होता है, मुझे ऐसे लोगों के भारतीय होने पर। इनके दिखाए मार्ग पर चले, तो, दो-चार दशकों में देवनागरी लिखित हिन्दी धीरे धीरे रोमन लिपि में लिखी जाएगी। यदि ऐसे रोमन लिपि में ही हिंदी पढ़नेवाले बढ़ते गए, तो कुछ दशकों में देवनागरी में पढ़नेवाले घटते ही चले जाएंगे। आगे क्या होगा, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। भाग्य है, ऐसा सोचनेवाले विशेष नहीं है।

(तेरह)
देवनागरी में विश्व की प्रायः सारी भाषाएं (कुछ सुधार से) लिखी जा सकती है। अंग्रेज़ी के शुद्ध उच्चारण देवनागरी में ही डिक्शनरियों में, कोष्ठक में लिखे जाते हैं। इसी कारण भारत के सारे प्रादेशिक भाषी अंग्रेज़ी का लगभग सही उच्चारण जान जाते हैं। देवनागरी के या देवनागरी जैसी ही अन्य नियमबद्ध भारतीय लिपियों के कारण ही यह संभव है। यही कारण भी है कि हम भारतीयों के अंग्रेज़ी उच्चारण चीनियों की अपेक्षा अधिक शुद्ध पाए जाते हैं।

चीनी भाषा चित्रमय है, वह शब्द के उच्चारण से नहीं पर चित्र से संप्रेषित होती है। अन्य भाषा के उच्चारण को चिह्नित नहीं कर सकती। चीनी भाषी, अपने शिक्षक के प्रत्यक्ष उच्चारण को, सुनकर ही सीख पाते हैं; ऐसा सुना है। पर देवनागरी तो सर्वथा उच्चारण को ही शब्दांकित कर सकती है। यह गुण जितना बड़ा है, उतना ही हमारी जानकारी से परे हैं। हम पानी की उन मछलियों की भांति अज्ञान है, जो पानी से बाहर निकले बिना, पानी का महत्व नहीं जान पाती।

“देवनागरी की रोमन लिपि को चुनौती” नाम से आलेख बना था। पर सुधारकर सौम्य कर दिया। पाठकों को मुक्तता से टिप्पणी करने के आग्रह के साथ समाप्त करता हूं।