हिंद स्‍वराज

देवनागरी रोमन विवाद भाग ३

-डॉ. मधुसूदन-

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(एक) सारांश
ॐ — देवनागरी लेखन का अभ्यास, उंगलियों की लचक बढ़ाता है,  रोमन लिपि में लेखन उंगलियों की लचक नहीं बढ़ाता।
ॐ –देवनागरी लिपि नें ध्वनि को ही अमर कर दिया है । इस के कारण, परम्परित उच्चारण निरन्तर शुद्ध और  सुरक्षित है। रोमन में लिखे उच्चारण अलग-अलग देशों में एक समय पर भी अलग अलग होते हैं। अंग्रेज़ी तीन बार गत हजार वर्षों में भी, आमूलाग्र बदली है। पुरानी अंग्रेज़ी आज के विद्वान भी समझ नहीं सकते।

ॐ–और संस्कृत उच्चारण मुख विवर में पूरा फैला हुआ है, उसका अभ्यास, जिह्वा की लचक बढ़ा देता है।
पर, अंग्रेज़ी और अन्य यूरोप की भाषाएं, बोलने में जिह्वा और मुख विवर के बहुतेरे भागों का प्रयोग ही नहीं करती।
ॐ–प्रचण्ड सांस्कृतिक और आध्यात्मिक साहित्य के पीछे भी हमारी लिपि और शब्द समृद्धि कारण है।
ॐ –ऐसा ध्वन्यर्थक मंत्रोच्चारण मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों को उत्तेजित कर निपुण चिन्तन में सहायक होता है।
लेखक का मन्तव्य है कि केवल देवनागरी सारे भारत में पढ़ायी जाए।
( नाममात्र विरोध अपेक्षित है।)

(दो) संप्रेषण।
देवनागरी लिपि की सर्वश्रेष्ठता निर्विवाद है। इस लिपि का गुणगान कितना करें? जो भी परदेशी  विद्वान, इसे जानता है, समझता है, असीम गुणगान ही करता है। संसार की अन्य भाषाएं लिखी जा सकती है; पर उन भाषाओं में, संप्रेषण कोई चित्रों द्वारा, या कोई भावचित्रों द्वारा करता है। देवेंद्रनाथ शर्मा लिखते हैं कि  लिपि के विकास सोपान-१. चित्रलिपि, २. भावलिपि, ३.ध्वनिलिपि माने जाते हैं।और देवनागरी सारी ध्वनि लिपियों में भी श्रेष्ठतम है। आप लिखिए किसी भी लिपि में पर पढ़ना तो आप को, उच्चारण कर के ही है। अर्थात ध्वनि द्वारा  ही उच्चारण करना होता है। इसलिए देवनागरी ने इसी सत्य का उपयोग कर चमत्कार ही कर दिया। क्या विशेष किया देवनागरी ने?

(तीन) देवनागरी नें ध्वनि को ही अमर कर दिया।
देवनागरी नें सीधे ध्वनि को ही चिह्नित कर दिया। चित्र लिपि भले चित्रों द्वारा लिखी जाती है, पर पढ़ते समय तो बोलकर ही पढ़ते हैं। बातचीत भी तो उच्चारण से ही करनी पडती है। इसीलिए जब ध्वनिहीन भाषाओं को, अपनी भाषा के उच्चारणों को अमरत्व देना होता है; तो साहजिक देवनागरी का ही उपयोग करना पड़ता है। देवनागरी से ही दिशा बोध लेना पड़ता है।
जापान ने देवनागरी से ही दिशा बोध प्राप्त  किया था। अन्य लिपियाँ भी वर्तनी सुधार में,जाने अनजाने, मानदण्ड देवनागरी का ही स्वीकार करती है। अंग्रेज़ी (रोमन) वर्तनी सुधार के भी प्रयास किए गए थे।
वैसे भारत की सभी लिपियाँ उच्चारण में देवनागरी की ही अलग अलग आवृत्तियाँ हैं। प्रत्यक्ष देवनागरी का प्रयोग ५० से ६० % जनसंख्या की भाषाएं करती हैं। एक अपवाद छोड़कर, शेष भारतीय लिपियाँ भी देवनागरी (ब्राह्मी) की ही छायाएँ हैं। लिपि अलग अलग होती है; पर उच्चारण और उसका क्रम समान होता है।

(चार) देवनागरी सारे भारत में पढ़ायी जाए।
भारत की एकता दृढ़ करने के लिए, देवनागरी सारे भारत में पढ़ाई जाए।
साथ ध्यान रहे, कि, शुद्ध उच्चारण सीखने की अवधि बालकपन में ही होती है। ८-१० वर्ष की आयु खो देने के पश्चात शुद्ध उच्चारण सीखा नहीं जा सकता। जिह्वा लचिलापन खो देती है। फिर जीवन भर उच्चारण बहुत कठिनता और दृढ निश्चय से ही (शायद) सीखा जा सकता है; फिर भी त्रुटियाँ रह ही जाती है।

(पाँच) बचपन में रोमन सीखने से हानि।
रोमन लिपि सीखने पर शुद्ध देवनागरी उच्चारण संभव नहीं हो पाता। पर देवनागरी सीखनेपर प्रायः (बहुतेरा) अंग्रेज़ी उच्चारण कठिन नहीं होता। यह देवनागरी का विश्व की सभी भाषाओं की अपेक्षा अति-महत्त्वपूर्ण लाभ है।  इसलिए आप देखेंगे कि चीनी, जापानी, हवाइयन इत्यादि लोगों को अंग्रेज़ी उच्चारण में भारतीय लोगों की अपेक्षा अधिक कठिनाई होती है।

(छः) देवनागरी कैसे पढ़ाई जाए।
देवनागरी को स्वतंत्र रीति से, (हिन्दी) भाषा से अलग रूप में, सारे भारत में पढ़ाया जाए। छात्रों का, प्रायः सभी भाषाओं का उच्चारण सुधर जाएगा। संस्कृत की भी लिपि देवनागरी होने से, विरोध की राजनीति भी न्यूनमात्र होगी।

(सात)रोमन लिपि सदोष है।
रोमन लिपि से अन्य भाषाओं का, शुद्ध उच्चारण सीखा नहीं जा सकता। विमान परिचारिकाओं जैसा गलत उच्चारण सीखा जा सकता है। देवनागरी का उच्चारण आपको संसार की किसी भी भाषा के उच्चारण में पूरी सहायता करता है। हमारी अंग्रेज़ी की डिक्षनरियाँ भी कोष्ठक में देवनागरी में ही उच्चारण मुद्रित करती हैं। देवनागरी की सहायता बिना आप अंग्रेज़ी भी सीख नहीं सकते।

(आठ) संप्रेषण स्पष्ट और निःसंदिग्ध होना चाहिए।
देवनागरी के विकास के समय बहुत गहरा चिंतन और विचार कर, उसे सम्पूर्णतया निर्दोष बनाया गया है। नुक्ता वाले, और ऑ (Hot) और ऍ (Hat) जैसे, कुछ अंश भी विचार करने के पश्चात ही त्यजे गए थे। वे उलझन भरे या अस्पष्ट थे। और, देवनागरी शोधकर्ताओं को, संप्रेषण में संदिग्धता स्वीकार नहीं थी।
इस लिए नुक्ता,  और ऍ और ऑ जैसे अस्पष्ट अंशो को त्याग दिया गया। और संप्रेषण स्पष्ट और निःसंदिग्ध किया गया। समस्त उच्चारणों का, समग्र चिंतन किया गया था, ऐसा ही इतिहास है।
हमने ध्वनि को पूर्णतः तोड तोड़कर विश्लेषित किया था। सारे उच्चारण आप लघु-सिद्धान्त-कौमुदी में पाएंगे। वेद मंत्रों का पाठ कभी ध्यान देकर सुनने पर भी आप देवनागरी उच्चारण के प्रति आश्वस्त हो जाएंगे।

इस लिए, पहले, हम हीनग्रंथि का त्याग करें। और किसी अहरी गहरी लिपि का अनुकरण छोड़ दें। आप स्वतंत्र विचार करना नहीं चाहते तो, विद्वानों के उद्धरण पढें। विश्वका कोई भी भाषा-विज्ञान का, मौलिक चिंतक  देवनागरी का ढाँचा  देखकर ही स्तंभित हो जाता है। पर भारतीयों को अपना छद्म विनय त्यागना होगा; हीन ग्रंथि त्यागनी होगी। और गौरव धारण करना होगा।

(नौ) प्रचण्ड आध्यात्मिक उन्नति और साहित्य का कारण
मेरा मानना है, कि, हमारे प्रचण्ड आध्यात्मिक साहित्य और आध्यात्मिक उन्नति के पीछे भी हमारी लिपि और संस्कृत भाषा ने सशक्त मौलिक और सहायक भूमिका निभायी है। लिपि अकेली भी थी नहीं। उस लिपि में संस्कृत भाषा की अभिव्यक्ति भी साथ थी; संस्कृत की शब्द समृद्धि भी साथ थी; पाणिनि का व्याकरण भी था। इतनी सारी उपलब्धियाँ, जिन का परस्पर पूरक और पोषक होना भी एक चमत्कार से कम नहीं माना जा सकता। इस विषय पर आपसे भी विचार करने का अनुरोध  अवश्य है। आप मुझसे सहमत होगे ही।

(दस) पॉल मॉस, सेन्ट जेम्स शाला के मुख्याध्यापक।
पॉल मॉस, एक लन्दन की, शाला के मुख्याध्यापक  है, जहाँ  छः वर्ष अनिवार्यतः संस्कृत और देवनागरी पढ़ायी जाती है। वे कहते हैं कि देवनागरी लिपि में लिखने का अभ्यास,बालक की उंगलियों की लचक बढाने में सहायता करता हैं। इस प्रकार का व्यायाम, एक कलाकार की भाँति उस की अंगुलियों पर संस्कार करता है। देवनागरी अक्षरों पर जब घोट घोट कर के लिखने का अभ्यास किया जाता है, तो उंगलियों की अकड़ धीरे धीरे कोमलता में परिवर्तित होती है। और साथ साथ, संस्कृत उच्चारण का अभ्यास, जिह्वा की लचक भी बढ़ा देता है। ऐसा ध्वन्यर्थक उच्चारण मस्तिष्क के दोनो गोलार्धों को उत्तेजित कर व्यक्ति को निपुण चिन्तक बनाने में भी सहायक होता है।

(ग्यारह) युरोपीय भाषाओं की मर्यादा
पॉल मॉस आगे कहते हैं कि आज की यूरोप की भाषाएं बोलने में जिह्वा और मुख विवर के बहुतेरे भागों का प्रयोग ही नहीं करती। यह उन की सीमा-मर्यादा है। ऐसी सीमा को देवनागरी और संस्कृत भाषा पार कर गयी है, यह कोई साधारण-सा गुण नहीं है। उसी प्रकार लिखने में उंगलियों का विविध वलयांकित हलन-चलन, जो देवनागरी लेखन में किया जाता है, वह भी यूरोपीय लिपियों में अपवादात्मक ही जान पड़ता है।
पाठक भी, यदि विचार करें, तो उक्त कथन को सही ही पाएंगे। अब, जो बंधु रोमन लिपि में हिंदी पठन-पाठन का आग्रह रखते हैं, उन्हें भी इस जानकारी से विश्वास हो जाएगा। आप भी यदि, कुछ अक्षरों को लिख कर देखें, तो विश्वास दृढ़ होगा। जैसे क और K, म और M, ल और L, ह और H, जहाँ रोमन अक्षर केवल रेखाओं से ही काम चला लेते हैं, वहाँ देवनागरी में घुमावदार या वलयांकित अंशों का प्रयोग होता है। ॐ की तो बात ही अलग है।

(बारह) मस्तिष्क-गुंबज में गूंज ध्यान-मूलक है।
एक प्रसिद्ध श्लोक लेकर प्रयोग कीजिए।
“शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगं॥
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगीभिर्ध्यानगम्यं।
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथं॥”
इस श्लोक में लगभग प्रत्येक शब्दका अंत अनुस्वार से होता है।

प्रयोग
(१)ले एकांत में २ मिनट शांत बैठिए, फिर
(२) आंखे मूंदे और दो मिनट बैठिए।
(३) इसके पश्चात, श्लोक को,धीरे पर कुछ ऊंचे स्वर सहित छंद में गाना प्रारंभ कीजिए। (मूक गायन नहीं।)
(४) बार बार गाते जाइए।  साथ साथ प्रत्येक शब्द के अंत को लम्बाइए।
(५)अब दोनों कानों के बीच, मस्तिष्क में. आपको, गूंज का अनुभव होगा।
(६)बार बार गाने से, कुछ समय पश्चात गूंज सुनने पर आप का ध्यान लगना प्रारंभ होगा।

जैसे शान्ताकारम् ऽऽऽऽऽ
शान्ताकरम्‌‍ऽऽऽऽ  भुजगशयनम्‌ऽऽऽ  पद्मनाभम्‌ऽऽऽ सुरेशम्‌ऽऽऽऽ|
विश्वाधारं ऽऽऽ गगनसदृशंऽऽऽ  मेघवर्णंऽऽऽ  शुभांगंऽऽऽ||
लक्ष्मीकान्तंऽऽऽ  कमल नयनंऽऽऽ योगीभिर्ध्यानगम्यंऽऽऽ|
वन्दे विष्णुंऽऽऽ भवभयहरंऽऽऽऽ सर्वलोकैकनाथंऽऽऽ||
उनका कहना है, कि, ऐसा दीर्घ म्‌ऽऽऽ का उचारण आपके मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों को उत्तेजित करता है।
इस श्लोक का लगातार प्रयोग, मस्तिष्क के गुंबज में गूंज जगाता है।यह गूंज ही आपका ध्यान लगा देती है।
इस में उतावले होकर प्रयोग ना करें; असफलता हाथ लगेगी। ध्यान केंद्रित करने के लिए आराध्य की छवि काम आती है। विष्णु भगवान की छवि अभिप्रेत है। आप अपने आराध्य देवता की छवि भी रख सकते हैं।
बार बार प्रयोग करें। कुछ समय के बाद ध्यान लगना प्रारंभ होगा। मन में विचारों का आना बंद हो जाएगा। ध्यान की यही प्रारंभिक अवस्था मानी जाती है।

(तेरह)यो ध्रुवाणि परित्यज्य
एक उचित सुभाषित से आलेख का अंत करता हूँ।
“यो ध्रुवाणि परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यंति अध्रुवं नष्टमेव च।।”
-आचार्य चाणक्य
अर्थ- जो अपने पास की, निश्चित वस्तुओं को छोड़कर अनिश्चित वस्तुओं के पीछे भागता है, उस को अनिश्चित मिलना तो दूर रहा, पास की निश्चित वस्तु भी नष्ट हो जाती हैं।

अपनी देवनागरी का त्याग कर बचपन से ही, रोमन सीखने-सिखाने वालों को क्या चेतावनी देता हूँ।  देवनागरी और उच्चारण पहले चार-छः वर्ष पढ़ाई जाए। बादमें आप अन्य लिपियाँ सीख सकते हैं। ऐसा विचार कर निर्णय ले।
बादमें अन्य लिपि सीखी जा सकती है।
बालक का भविष्य आप उज्ज्वल करना चाहते हैं ना? विचार करें।

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पर आप स्वतंत्र और मुक्त टिप्पणी से अनुग्रहित करें।