विश्ववार्ता

निरर्थक निरस्त्रीकरण नसीहत

– डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

संप्रग सरकार की लचर विदेश नीति के परिणाम परिलक्षित हैं। परमाणु मसले पर अमेरिका की नजर में भारत और पाकिस्तान समकक्ष हैं । अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने दोनों देशों को एक जैसी हिदायत दी है। उनके अनुसार भारत और पाकिस्तान के कारण परमाणु संतुलन बिगड़ गया है। इनको परमाणु हथियारों की सत्ता नियंत्रण करना चाहिए। हिलेरी ने यह बात परमाणु सुरक्षा सम्मेलन के ठीक पहले कही। यह भी संयोग था कि लभगभ इसी समय भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सम्मेलन में भाग लेने के लिए रवाना हो रहे थे। इसके पहले अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार को संप्रग सरकार ने अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में पेश कि या था। जबकि यह स्पष्ट नहीं कि करार से भारत को कब और कितना लाभ मिलेगा। फिलहाल, ओबामा प्रशासन की इसमें कोई रुचि नहीं है। फिर भी हम खुश थे कि अमेरिका को पाकिस्तान के साथ भारत जैसा करार को पूर्ण होने में बेहद जटिल प्रक्रिया से गुजरना पड़ा था। भारतीय प्रधानमंत्री और तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने अपना कार्यकाल और प्रतिष्ठा दाव पर लगा दी थी। अंतर्राष्ट्रीय व अमेरिकी कानूनों की बेहद मुश्किल बाधाओं को पार करने में करीब पांच वर्ष लग गए। इतनी मुसीबतों से भरा समझौता पाकिस्तान के साथ कैसे हो सकता है। जबकि पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम का नायक दुनिया की नजर में खलनायक है। अमेरिका के साथ परमाणु करार करने की हैसियत में कौंन है? वह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जो सेना के रहमोकरम तक पद पर रहते हैं। या वह सेना जिसमें आतंकियों से हिमायत रखने वाले प्रभावी भूमिका में है? अमेरिका की चिंता भी यही है। परमाणु हथियारों के आतंकी संगठनों तक पहुंचने की संभावना से वह परेशान है।

जाहिर है कि भारत जैसा परमाणु करार पाकिस्तान के साथ संभव नहीं है। इसमें व्यावहारिक कठिनाई है। इसका मतलब नहीं निकालना चाहिए कि अमेरिका का वर्तमान प्रशासन भारत को ज्यादा महत्व या गंभीरता से देख रहा है। हिलेरी क्लिंटन ने प्रशासन की वास्तविक मंसा को व्यक्त किया है। परमाणु संतुलन बिगड़ने के मसले पर भारत व पाकिस्तान को बराबरी पर मानती है। यह भारतीय विदेश नीति व कूटनीति की विफलता है। भारत जैसे जिम्मेदार प्रजातांत्रिक देश की तुलना अस्थिर देश से की जा रही है। जो परमाणु मसले के किसी भी बिंदू पर विश्वसनीय नही रहा। निरस्त्रीकरण, परमाणु-अप्रसार तथा ऊर्जा का शांतिपूर्ण उपयोग के मामले में पाकिस्तान कभी जिम्मेदार नहीं रहा। यहां की सत्ता केंद्र ऐसी जिम्मेदारी लेने की स्थिति में ही नहीं है। अमेरिका मानता है कि अलकायदा जैसे संगठन परमाणु हथियार बनाने या प्राप्त करने की कोशिश में है। इसके लिए उनके तार पाकिस्तान से जुड़े हैं। उस तरफ पूरा फोकस करने की जगह ओबामा प्रशासन उसकी गंभीरता कम कर रहा है। वह उत्तर कोरिया, सीरिया व ईरान जैसे देशों से सीधे संघर्ष की बात करता है। ये देश सम्मेलन में बुलाए ही नहीं गए। पाकिस्तान के साथ भारत को जोड़कर वास्तविक खतरे पर चर्चा से बचाना चाहता है। चीन शक्तिशाली है। इसलिए उसके मामले में अमेरिका मौन है। उत्तर कोरिया को चीन का खुला संरक्षण है। उत्तर कोरिया की परमाणु मसले पर संपूर्ण प्रगति चीनी संरक्षण में है। वह अमेरिका को चीन की शह पर ही धौंस दिखाता है। पाकिस्तान को अवैध रूप से चीन ही सहायता उपलब्ध कराता रहा है। पाकिस्तान की परमाणु तस्कारी तो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साबित भी हो चुकी है। ऐसे में इस सम्मेलन से क्या हासिल हो सकता था। 1954 के बाद किसी अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा बुलाया गया यह सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन है। सेनफ्रांसिस्को में हुए उस सम्मेलन में सयुंक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी। ओबामा ने भी बहुत ऊंचा और व्यापक लक्ष्य निर्धारित किया है। वह नोबेल शांति पुरस्कार धारक है। फिर नीति और नैतिक मापदंडों का अभाव है। सम्मेलन के कुछ दिन पहले अमेरिका और रूस के बीच ‘स्ट्रैटेजिक आर्म्सरिडक्शन ट्रीटी’ संपन्न हुई। इससे दोनों देश परमाणु हथियारों में तीस प्रतिशत कमी करने पर सहमत हुए। विशेषज्ञों के अनुसार यह संधि नई मिसाइल होड़ शुरू करेगी। अमेरिका ऐसी क्षमता विकसित कर रहा है, जिसमें एक घंटे के भीतर विश्व के किसी भी हिस्से में मिसाइल हमला करना संभव हो जाएगा। रूस निर्धारित सत्ता से पीछे है। इसलिए वह क्षमता बढ़ाने का प्रयास करेगा। इस प्रकार सम्मेलन शांति की उम्मीद नहीं जगाता।

* लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार और डिग्री कॉलेज से अवकाश प्राप्त हैं।