सनातन जीवन शैली को वैश्विक स्वीकृति दिलाती विपत्ति

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 -मनोज ज्वाला 

लगभग सारी दुनिया चीन से निकले ‘कोरोना वायरस’ की चपेट आ चुकी है। लगभग 100 से अधिक देशों में यह संक्रमण फैल चुका है । भारत समेत अनेक देशों ने इसे महामारी घोषित कर दिया है । विश्व स्वास्थ्य संगठन इसे हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर चुका है। खौफ इस कदर तारी है कि अभिवादन के तौर-तरीकों से ले कर मृत देह के
विसर्जन की पद्धति तक में बदलाव के सुझाव दिए जा रहे हैं । जैसे भेंट-मुलाकात के दौरान परस्पर अभिवादन के लिए एक-दूसरे से हाथ न
मिलाएं बल्कि भारतीय संस्कृति के अनुसार अपने-अपने हाथ जोड़कर नमस्ते
बोलते हुए अभिवादन करें और किसी के मरणोपरांत उसके शव को दफनाने के बजाय
भारतीय परम्परा के अनुसार उसका ‘अग्निदाह’ करें । बताया जा रहा है कि ऐसा
नहीं करने से कोरोना और इस तरह के अन्य बीमारीकरक जीवाणुओं-विषाणुओं का संक्रमण
होना सुनिश्चित है । भारतीय संस्कृति-परम्परा का एकमात्र अर्थ है- सनातन
वैदिक धर्म से निःसृत हिन्दू जीवनशैली जो व्यष्टि से ले कर समष्टि तक तथा
सृष्टि से ले कर परमेष्टि तक के समस्त जीवों के प्रति सह अस्तित्व पर
कायम है । बहरहाल विश्व स्वास्थ्य संगठन की सलाह पर अधिकांश  देशों के लोग अब हाथ
मिलाना और गले मिलना छोड़ कर ‘नमस्ते’ करने लगे हैं । कोरोना से
सर्वाधिक पीड़ित चीन की सरकार के सख्त आदेश पर अन्य मजहब के लोग भी सनातन धर्म की रीति के अनुसार शव जलाने को विवश हो
गए हैं । अन्य देशों और मजहबों में भी अंतिम संस्कार की दफन क्रिया प्रतिबंधित
हो सकती है। इन सबके स्थान पर दहन क्रिया स्वीकृत हो सकती है । ऐसा इस कारण क्योंकि
सनातनधर्मी जीवनशैली में शव दहन की जो परम्परा है वह पर्यावरण प्रदूषण और
बीमारीकारक अवांछित जीवाणुओं के संक्रमण की दृष्टि से सर्वाधिक सुरक्षित
है । दफन से पर्यावरण प्रदूषण और जिवाणु संक्रमण दोनों बढ़ता है । यही
कारण है कि चीन में ‘शव दाह’ को अनिवार्य कर
दिया गया है । इस बीच दुनिया भर के औषधि विज्ञानी और चिकित्साविद्  कोरोना पीडितों को उस ‘तुलसी’ के सेवन की सलाह दे रहे हैं जो
सनातनधर्मी प्रत्येक हिन्दू के घर-अंगन में पूजित है । कोरोना की दहशत से जर्मनी के चांसलर एंजला मर्केल को उनके मंत्रियों ने हाथ मिलाने से इंकार कर दिया। कोरोना से अब तक दुनिया भर में हजारों लोगों की मौत हो चुकी है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। यहां भी पश्चिमी तरीके से अभिवादन में हाथ मिलाने और गले मिलने वाले लोग
‘नमस्ते’ का अनुकरण करने लगे हैं । दुनिया भर में बढ़ती आबादी के साथ फैलते कब्रिस्तानों के भीतर पडे शवों की सड़न के कारण भूमिगत जल के प्रदूषण से
भी भविष्य में कभी न कभी कोई अन्य बीमारीकारक संक्रमण की विपत्ति तो आखिर
आएगी ही ।
अनुचित खान-पान और अभक्ष्य भक्षण से उत्पन्न जानलेवा बीमारी के
इस संक्रमण से बचने के उपाय के तौर पर जिस भारतीय संस्कृति अर्थात सनातन
वैदिक हिन्दू जीवन पद्धति के अनुकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है वह
सर्वकल्याणकारी है और खान-पान व अभिवादन-आचरण से लेकर जीवन-यापन के तमाम
क्रिया-कलापों की विज्ञान-सम्मत विशिष्ट शैली पर आधारित है । सनातन
धर्म से निःसृत इस जीवनशैली में मांसाहार सर्वथा वर्जित है और वही आचरण
स्वीकृत है जो मानवोचित होने के साथ-साथ प्रकृति व पर्यावरण के लिए भी
वांछित है। अब वह समय आ गया है अथवा आने वाला है जब सनातन वैदिक भरतीय
संस्कृति की एक-एक क्रियाविधि के वैज्ञानिक आयामों पर व्यापक वैज्ञानिक
विमर्श होगा और उसे मजहबी दुनिया स्वेच्छा से नहीं तो विवशता से ही सही
उसे अपनाने की ओर उन्मुख होगी । कोरोना से बचाव के लिए इस समय दुनिया में जो भी दिशा-निर्देश जारी हो रहे हैं वो सब सनातन वैदिक भारतीय संस्कृति की
जीवनशैली में लाखों वर्ष पहले से प्रचलन में हैं । भोजन और शौच के पश्चात
हाथ-मुंह व मलद्वार को पानी से धोने और यात्रा के पश्चात नहाने व कपड़े धोने और स्वच्छता के अन्य प्रतिमानों की सलाह हिन्दू जीवन पद्धति में पहले से ही प्रचलित है। मगर आधुनिकता के नाम
पर इन प्रचलनों को दकियानूसी बता कर अभक्ष्य भक्षण करने के साथ-साथ
मानवेतर जीवों के भी रक्त मांस व रस रसायन को खाने-पीने और उसके बाद
‘टिसु पेपर’ से जूठे हाथ-मुंह और गंदे मलद्वार को पोंछ लेने वाले
अभारतीय फैशन के पीछे भागने की भेड़चाल ने भारत में भी कोरोना की त्रासदी
खड़ी कर दी है। विकराल होती स्थिति के बीच लोग पुनः सनातन मार्ग पर चलने को विवश हुए हैं।किन्तु केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है ।
स्वस्थ समुन्नत प्रदूषण मुक्त व आपदा-विपदा से निरापद जीवन के लिए समस्त
सनातन वैदिक परम्पराओं का अनुसरण करना होगा। समष्टि से लेकर परमेष्टि
तक सृष्टि के समस्त जीव जगत के प्रति सह अस्तित्व की भावना पैदा करनी होगी। यह भावना न
केवल जीवों के प्रति बल्कि वनस्पति-नदी-पर्वत सबके प्रति लानी होगी । प्रकृति के
अस्तित्व से ही मानव का अस्तित्व निरापद हो सकता है । सनातन वैदिक भारतीय
जीवनशैली में ‘यज्ञ’ व ‘अग्निहोत्र’ का जो प्रावधान है उसका एक-एक विधान
प्रकृति के प्रति सह-अस्तित्व के ज्ञान-विज्ञान की शिक्षाओं से भरा है । ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामया’ सनातन वैदिक भारतीय
संस्कृति की जीवनशैली का महज आदर्श वाक्य ही नहीं है बल्कि ‘हिन्दू-जीवन’
का पथ और पाथेय भी है । 

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