कविता

मुक्ति

-बीनू भटनागर-

Baby holding mother's hand, close-up

वो ज़िन्दा ही कब थी,

जो आज मर गई,

सांसों का सिलसिला था,

बस, जो चल रहा था।

आज वो मरी नहीं है,

मुक्त हो गई।

घाव जितने थे उसके तन पे,

कई गुना होंगे मन पे,

मन के घावों का कोई,

हिसाब कैसे रखे।

वो झेलती रही,

बयालिस साल तक पीड़ा,

मुक्ति देने का,

न उठाया किसी ने बीड़ा।

अच्छा हुआ जो निर्भया,

मुक्त होकर निकल गई।

कब तक मरेंगीं दामिनी या कामिनी यहाँ

जब तक समाज मे पनपेंगे ये भेड़िये,

जब तक न ये जीवन भर सड़ेंगे जेल मे।

बेड़ियों म जकड़कर इनके हाथ और पैर,

पडे. रहें अकेले अंधरी कोठरी मे दिवस रैन,

कोई न मिल सके इनसे,

न  हो बेल या पैरोल।

एक बार मे मौत इन्हें न मिले

एक बार नहीं रोज रोज़ बार बार ये मरें।