हिन्दू विवाह अधिनियम में क्रूरता को तलाक का आधार माना गया है, लेकिन क्रूरता की परिभाषा को लेकर शुरू से ही निचली अदालतों में मतैक्य का अभाव रहा है। इसलिये जब भी क्रूरता का कोई नया मामला सामने आता है तो पक्षकार अन्तिम निर्णय के लिये सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा अवश्य ही खटखटाते हैं। सुप्रीम कोर्ट की मोहर लगने के बाद निचली अदलतों के लिये ऐसे मामले आगे के निर्णयों के लिये अनुकरणीय बन जाते हैं।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने क्रूरता की कानूनी परिभाषा को विस्तृत करते हुए कहा है कि यदि विवाहित पति-पत्नी आपस में बातचीत नहीं करते हैं तो ऐसा करने वाला अपने साथी पर क्रूरता करने का दोषी ठहराया जा सकता है और पीडित पक्षकार को केवल इसी आधार पर तलाक मिल सकती है। इसलिये ऐसे सभी पतियों और पत्नियों को सावधान होने की जरूरत है, जो बात-बात पर मुःह फुलाकर बैठ जाते हैं और महीनों तक अपने साथी से बात नहीं करते हैं। वैसे तो मुःह फुलाना और मनमुटाव होना पति-पत्नी के रिश्ते में आम बात है, लेकिन यदि इसके कारण दूसरे साथी को सदमा लगे या अकेलापन अनुभव हो या अपने मन पर बोझ अनुभव होने लगे तो इसे दर्दनाक स्थिति माना जा सकता है। सम्भवतः इन्हीं मानसिकता पीडाओं को कानूनी समर्थन प्रदान करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि चुप्पी क्रूरता का परिचायक है, जिसे तोडना परिवार की सेहत के लिये जरूरी है। अन्यथा परिवार टूट जायेगा।
हाल में सुनाये गये एक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि आपसी विवाद की स्थिति में पति या पत्नी का खामोश रहना भी मुश्किलें पैदा कर सकता है। इसलिये इस तरह की चुप्पी क्रूरता की श्रेणी में आती है और हिन्दू विवाह अधिनियम के अनुसार यह तलाक का आधार बन सकती है। इसे आधार बनाकर पति या पत्नी तलाक के लिए आवेदन कर सकते हैं। कोर्ट ने यह व्यवस्था एक ऐसे मामले में फैसला सुनाते हुए दी, जिसमें पति ने पत्नी पर दुर्व्यवहार और अकेला छोड देने का आरोप लगाते हुए तलाक की मांग की थी। कोर्ट के अनुसार चुप रहना या आपस में बातचीत नहीं करना एक-दूसरे के प्रति सम्मान और आपसी समझ की कमी दर्शाता है।
हमें इस बात को समझना होगा कि एक ओर तो हमारा समाझ धीरे-धीरे समझदार और शिक्षित होता जा रहा है। जिसके कारण हमारे देश की वह छवि ध्वस्त हो रही है, जिसमें कहा जाता था कि भारत साधु-सन्तों और सपेरों का देश है। दूसरे हमारी न्यायपालिका भी अब अधिक मुखर हो रही है। जिसके चलते कोर्ट में अब केवल तकनीकी आधार पर ही निर्णय नहीं सुनाये जाते हैं, बल्कि मानवजनित भावनाओं और संवेदनाओं पर भी ध्यान दिया जाने लगा है। जिसके चलते ऐसे निर्णय सामने आ रहे हैं, जो मानवता के उत्थान में मील का पत्थर सिद्ध हो रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय को भी ऐसा ही एक निर्णय माना जा सकता है।
इसकी एक वजह और भी है। आखिर जज भी तो समाज के अभिन्न अंग हैं। जज भी तो मानव हैं। यदि जज किसी सुखद या कटु स्थिति या अनुभव से गुजरता है तो स्वाभाविक तौर पर उसका उसर उसके सोचने के तरीके पर भी असर पडता है। जिसका प्रभाव उसके निर्णयों में देखा जा सकता है। पूर्व में भी यह प्रभाव होता था, लेकिन धीरे-धीरे अब यह मुखर हो रहा है। पहले अपने अनुभव को जज घुमाफिरा कर बतलाते थे, जबकि अब सीधे तौर पर अपने निर्णयों में समाहित कर रहे हैं। यह एक अच्छा संकेत माना जा सकता है, लेकिन तब तक ही जब तक कि जज सकारात्मक प्रवृत्ति का व्यक्ति रहा हो और उसकी सौच रचनात्मक हो अन्यथा यह प्रवृत्ति घातक भी सिद्ध हो सकती है।
-डॉ. पुरुषोत्तम मीणा “निरंकुश”
अच्छा आलेख!