ममता बनर्जी द्वारा किराने में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नीतिगत मतभेद के चलते यूपीए-२ को नमस्कार करने के बाद, आर्थिक-सुधारों के निहितार्थ लिए गए अपने कुछ कड़े फैसलों पर जनविश्वास बहाली की प्रत्याशा में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा देश की जनता के प्रति जो बयान दिया गया, उससे सरकार को क्या नफा-नुकसान होगा, ये तो भविष्य में पता चल ही जाएगा, पर एक बात तो तय है कि ये बयान और कुछ करे ना करे, महंगाई की मार से लगातार त्रसित हो रही जनता के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम अवश्य करेगा! इस बयान पर अगर गौर करें, तो हमें पता चलता है कि इसमे आर्थिक-संकट की विवशता के सरकारी दुखड़े के अतिरिक्त, ना ही कोई नयापन है, ना ही कोई आधार है, और ना ही कुछ ऐसा, जिससे जनता में सरकार के प्रति थोड़ा-सा भी विश्वास जग सके! एक नज़र में ये बयान एक भ्रष्ट और पराजित, किन्तु उद्दण्ड सेना के निराश और लाचार मुखिया के बयान जैसा ही प्रतीत होता है!
प्रधानमंत्री ने अपने बयान में प्रमुख रूप से जो बातें कही उनमे से एक बात १९९१ की आर्थिक-बदहाली, जब हमें कोई एक पैसा क़र्ज़ देने को तैयार न था, की पुनरावृत्ति के भयावन संकेत से परिपूर्ण थी! इस बात के संदर्भ में अगर १९९१ पर एक नज़र डालें तो ये वर्ष भारतीय-अर्थव्यवस्था के लिए एक ऐसा वर्ष था, जब भारत सरकार का राजकोषीय-घाटा १२.७ फिसदी पर पहुँच चुका था, और उसके पास इतना भी पैसा नही था कि वी अपने कर्मचारियों की वेतन अदायगी तक कर सके, इस बुरे वक्त में कोई भी विदेशी निवेशक भारत को क़र्ज़ देने के लिए राजी नही था! उसवक्त इन विषम परस्थितियों से निपटने के लिए भारत सरकार ने ६७ टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैण्ड में गिरवी रखा, जिसके एवज में उसे ६०० मिलियन डॉलर प्राप्त हुवे! इसके कुछ ही दिन बाद चंद्रशेखर सरकार चली गई और नरसिम्हा राव सरकार आई, जिसमे मनमोहन सिंह वित्तमंत्री बने, और उन्होंने आर्थिक-सुधारों की शुरुआत की! मनमोहन सिंह का असर रहा और देश उस आर्थिक-बदहाली से उबर गया! प्रधानमंत्री के वर्तमान बयान में भी उसवक्त की याद दिलाते हुवे यही कहने का प्रयास किया गया है कि देश को एकबार फिर उनपर भरोसा करना चहिए, वो देश को आर्थिक-संकटों से अवश्य बाहर ले आएँगे! पर इस बात के अतिरिक्त इसी बयान में कुछ ऐसी बातें भी हैं, जो हमारे महान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री की समझ पर ही संदेह पैदा करती हैं! उदाहरण के तौर पर देखें तो प्रधानमंत्री का ये कहना समझ से परे ही है कि गरीब व्यक्ति को पेट्रोल-डीज़ल के दाम बढ़ने से कोई फर्क नही पड़ता, क्योंकि उसके जीवन में इसका कोई उपयोग नही है! बेशक एक गरीब के जीवन में सीधे तौर पर पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने-घटने से कोई फर्क नही पड़ता, पर हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी शायद ये भूल गए हैं कि पेट्रोल के दामों में इजाफे का सीधा असर खाने-पीने आदि की चीजों के यातायातिक भाड़े पर पड़ता है, और यातायातिक भाड़े का सीधा असर चीजों के दामों पर पड़ता है! इसलिए पेट्रोल के दामों को सिर्फ पेट्रोल के दाम कहना, प्रधानमंत्री की सीमित सोच को ही दर्शाता है!
आर्थिक-संकट और आर्थिक-सुधार, ये दोनों ही तकनिकी विषय हैं, जोकि सामान्य जनमानस की समझशक्ति के दायरे में बहुत कम ही आते हैं, पर इतना हरकोई जानना चाहता है कि आखिर वो कौन-सा आर्थिक-संकट है, जिसके निवारण के लिए हर महीने दो महीने पर पेट्रोल के दामों में वृद्धि ही एक उपाय है? और लगातार इतनी वृद्धि के बाद भी, वो आर्थिक-संकट समाप्त होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है! एक आंकड़े के अनुसार, हमारे कई ऐसे पड़ोसी देशों, जिनकी आर्थिक-दशा हमारी तुलना में बद से भी बदतर है, में पेट्रोल की कीमत हमसे काफी कम है! हमारे एकदम निकट पड़ोसी देश पाकिस्तान में पेट्रोल की कीमत ४१.८१, श्रीलंका में ५०.३०, नेपाल में ६३.२४ और बांगलादेश में ४४.८० रूपये है! गौरतलब है कि इनमें से कई देशों की अर्थव्यवस्थाओं की गिनती दुनिया की खराब अर्थव्यवस्थाओं में होती है! इस आंकड़े को देखते हुवे अब सवाल ये उठता है कि आर्थिक-महाशक्ति बनने का सपना संजोने वाले हमारे इस भारतवर्ष के पास पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाने के अतिरिक्त आर्थिक-सुधार की कोई और नीति क्यों नही है? चूंकि, हमारी अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि-प्रधान (अब भी काफी हद तक) है, और तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद भी हमारे किसान भाई हर वर्ष अनाज का रिकार्ड उत्पादन कर रहे हैं, इसके बाद भी अगर हमारी अर्थव्यवस्था में कोई स्थिरता नही है, तो ये अनिवार्य हो जाता है कि हम अपनी आर्थिक नीतियों पर एक बार पुनः अध्ययन करें, और समझने की कोशिश करें कि एक कृषि-प्रधान अर्थव्यवस्था, अनाज के निरंतर रिकार्ड उत्पादन के बाद भी, आखिर इतनी अस्थिर क्यों है?
वैसे, अगर पेट्रोल-डीजल के दामों में वृद्धि के अतिरिक्त, आर्थिक-सुधार के मद्देनज़र लिए गए सरकार के कुछ अन्य फैसलों की बात करें, तो एलपीजी गैस के साल भर में सिर्फ छः सब्सिडाईज सिलेंडर देने का फैसला हो, या फिर किराने में ५१ प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का, बेशक इन दोनों ही फैसलों पर विपक्ष से लेकर सहयोगियों तक सरकार को केवल विरोध का सामना करना पड़ रहा हो, पर एक बात तो तय हैं कि ये विरोध नीतिगत कम, राजनीतिक ज्यादा है, क्योंकि इस वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में इन फैसलों की अनिवार्यता ज़रा विचार करते ही स्पष्ट हो जाती है! और ये अनिवार्यता लगभग हर राजनीतिक दल को पता होगी, पर इन विषम आर्थिक परिस्थितियों में खुद को सबसे बड़ा जनहितैषी साबित करने की होड़ में हर दल इन फैसलों का आँख बंद करके विरोध करने में लगा है! खासकर किराने में एफडीआई, जिसके विरोध में सरकार की बड़ी घटक टीएमसी ने उसका साथ तक छोड़ दिया, का विरोध समझ से परे है! आज जो भाजपा किराने में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का विरोध करने में लगी है, एक समय उसीके चुनावी घोषणापत्र में किराने में १०० फिसदी एफडीआई लाने की बात कही गई थी, इसलिए बड़ी सहजता से समझा जा सकता है कि इस विरोध के निहितार्थ क्या हैं! मुझे नही लगता कि इस बात से कोई भी राजनीतिक-दल अनभिज्ञ होगा कि किराने में एफडीआई के आने से भारत में बहुतों विदेशी पैसा आएगा, जिससे रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, और आर्थिक-सुस्ती से निपटने में भी सहायता मिलेगी, पर फिर भी राजनीतिक हित की आशा में अगर इसका विरोध हो रहा है, तो ये राजनीति के पारम्परिक सिद्धांत का क्रियान्वयन ही है!
उपर्युक्त सभी विश्लेषणों को देखते हुवे ये साफ़ है कि आर्थिक-सुधार के लिए सरकार के इन वर्तमान फैसलों में अगर कुछ बातें नीतिहीन हैं, तो कुछ दूरदर्शी सोच से परिपूर्ण भी! अब इन फैसलों से देश को क्या हानि-लाभ होंगे, ये तो भविष्य की बात है, पर वर्तमान में इन फैसलों का जो असर है, वो आम आदमी के महंगाई से त्रस्त जीवन को और त्रस्त ही करेगा! बेशक आज लगभग विश्व आर्थिक-संकट से जूझ रहा है, जिसका एक हिस्सा हम भी हैं, इसलिए आर्थिक-सुधार अनिवार्य हो जाते हैं, पर सवाल ये है कि १९९१ से शुरू हुवे इन आर्थिक-सुधारों के लिए आम आदमी के जीवन को दूभर करने का अंत कब होगा, और आखिर कब खत्म होंगे ये आर्थिक-सुधार?