एक साहसी जनप्रतिनिधि की ‘काशी हुंकार’

संजय द्विवेदी

एक प्रधानमंत्री का अपने चुनाव क्षेत्र में तीन दिन रूककर मतदाताओं से मिलना, चर्चा में है। जाहिर तौर पर ऐसा नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं। वे कर रहे हैं, आलोचनाओं के बाद भी कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणामों के बाद, कोई भी प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में अपनी मौजूदगी को न सीमित करता, बल्कि इस बात से बचता कि ठीकरा उसके सिर न फोड़ा जा सके। किंतु नरेंद्र मोदी की शख्सियत अलग है, वे भले ही श्रेय लेना जानते हैं लेकिन पराजय के डर से मैदान छोड़ना भी उन्हें पसंद नहीं है। अपने चुनाव क्षेत्र में उनका तीन दिन रूकना और संपर्क करना, कई अर्थों में दुस्साहस ही कहा जाएगा। वे अपनी जान को जोखिम में डालकर यह क्यों कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है।

मोदी ही हैं सबसे बड़ी ताकतः

यह बात तो साफ है कि उत्तर प्रदेश के मैदान में भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति नरेंद्र मोदी हैं।   उप्र के विधानसभा चुनाव में आयातित नेताओं के भरोसे लड़ रही भाजपा के सामने मैदान जीतने की कठिन चुनौती है, जबकि उसके परंपरागत नेता कोपभवन में ही हैं। कई बार विधायक-सांसद और मंत्री रहे लोग अब भी मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है और टिकट खुद को या परिवार को न मिलने पर कोपभवन में हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की टीम या तो उप्र का मैदान भगवान भरोसे छोड़ दे या खुद मैदान में उतरकर परिणाम दे। नरेंद्र मोदी रिस्क लेना जानते हैं, इसलिए वे खुद मैदान में कूदे हैं। उन्हें पता है उत्तर प्रदेश के वर्तमान नेतृत्व में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो परिणाम ला सके। इसके साथ ही सबकी सीमित अपील भी एक समस्या है। महंत आदित्यनाथ गोरखपुर मंडल में अपनी खास तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं, जिसमें अनेक बार संगठन के ऊपर दिखने व दिखाने की कवाय़द भी शामिल दिखती है। सुलतानपुर के सांसद वरूण गांधी को इतने नाराज हैं कि वे पूरे चुनाव में अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं गए। ऐसे ही अन्य दिग्गज डा. मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार हैं तो पर इनकी मास अपील नहीं है।

करो या मरो जैसे हालातः

ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी और उनकी नयी टीम के सामने उप्र का मैदान करो या मरो जैसा ही है। यह भी मानिए कि वे मनमोहन सिंह या अटलबिहारी वाजपेयी नहीं हैं। मनमोहन सिंह मैदान में क्या उतरते क्योंकि उन्हें जनता का नेता माना नहीं जाता। अटल जी के समय में कल्याण सिंह जैसे कद्दावर नेता प्रदेश में थे, जिन्हें न सिर्फ प्रदेश की हर विधानसभा सीट की गहरी समझ थी बल्कि वे जनाधार के मामले भी किसी राज्य स्तरीय नेता से कम नहीं थे। नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस प्रदेश की बीमारियों को जानते हैं और उसके अनुसार जैसे-तैसे उन्होंने भारी संख्या में अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल कर हर क्षेत्र में भाजपा को लड़ाई में ला दिया है। कुछ छोटी जाति आधारित पार्टियों से तालमेल कर यादव विहीन पिछड़ा वर्ग को संगठित करने के सचेतन प्रयास किए हैं। अनजाने से केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी और बसपा से स्वामी प्रसाद मौर्य की भाजपा में इंट्री कुछ कहती है। इसी तरह चुनाव अभियान में उमा भारती का होर्डिग्स में चेहरा होना, बताता है कि भाजपा को लोध वोटों की साधने की भी चिंता है।

टीम लीडर और मैदानी कार्यकर्ता की छविः

उत्तर प्रदेश का मैदान दरअसल नरेंद्र मोदी की ही अग्निपरीक्षा है। क्योंकि 80 सांसदों वाले इस राज्य से भाजपा की पकड़ अगर ढीली होती है तो आने वाले समय में भाजपा के खिलाफ वातावरण बनना प्रारंभ हो जाएगा। विपक्षी दल भी उत्तर प्रदेश को एक प्रयोगभूमि मान रहे हैं, क्योंकि इसी मैदान से सन 2019 के संसदीय चुनाव की भावभूमि बन जाएगी। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश के मैदान में मोदी इसलिए दूसरों के भरोसे नहीं रहना चाहते। आप इसे उनका दुस्साहस भले कहें किंतु वे सुनिश्चित करना चाहते है उनके अपने चुनाव क्षेत्र में भाजपा असंतोष के बाद भी जीते ताकि वे अन्य सांसदों से उनके क्षेत्रों का हिसाब मांगने का नैतिक बल पा सकें। वाराणसी की सीटें हारकर मोदी और अमित शाह अन्य सांसदों का सामना कैसै करेगें, ऐसे तमाम प्रश्न मोदी टीम के सामने हैं। शायद इसीलिए मोदी ने परिणामों की परवाह न करते हुए अपेक्षित साहस का परिचय दिया है। खुद को एक सांसद, कार्यकर्ता और टीम लीडर की तरह मैदान में झोंक दिया है। परिणाम जो भी पर इससे उनकी लड़ाकू और मैदानी कार्यकर्ता की छवि तो पुख्ता हो ही रही है।

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