कविता

एक तेज, ओढ तन आया था|

swami tilak

डॉ. मधुसूदन

एक तेज, ओढ तन आया था-
पथ आलोकित कर चला गया॥ धृ॥

नहीं चमक दमक; नहीं तडक भडक।
पर ब्रह्म तेज की, सौम्य झलक॥

नहीं दाम याचना, नाम चाहना,।
अहम्, दंभ; आडम्बर हीना॥

सरल निर्मल, तिलक तिल तिल।
जीवन देकर चला गया ॥

एक तेज ओढ…….॥१॥

तरूवर सभीपर, छाया धरते।
नदी दूजों की, प्यास बुझाती॥

नगर ग्राम, गिरि देश देश,।
धूप वर्षा, बर्फ फिकर ना लेश॥
गैरिक प्रतिभा, सदैव घुमती।

गरिमा मंडित, नग्न चरण परिव्राज,।
ज्ञान की गागर, लुटाकर चला गया॥

एक तेज ओढ तन ………….॥२॥

कैसी वंशी, बजाई तुमने–
मोह लिया, मोहन-सा जैसे,

अभी तलक, बजती है ताने,
उन स्मृतियों की,  भूलें कैसे?

आलोक राह के, अधिकारी तुम,
पहिचान न पाए,  कैसे?

भारत माँ के भाग्य भालपर,
“तिलक” लगाकर चला गया॥

एक तेज ओढ तन……..॥३॥

यह अंधेर नगरी दुनिया है।
तम का सारा राज, तम ही है,

षड् रिपुओं से, जकडे कहते।
ऊंचे स्वर से, ज्ञानी हम ही है।

कृपा चाहिए, परम पिता की,
तब कोई, ज्ञानी को पहिचाने॥

कितने सरल, अहं रहित तुम-
कि ठगे गये, चालाक-

सरल हृदय, पहिचान ज्ञानी को,
हो गए मूक अवाक,

जितेन्द्रीय “बजरंग शिष्य” था मुक्त पवन,
सौरभ फैलाकर. चला गया॥

एक तेज ओढ तन……..॥।४॥