प्रभुनाथ शुक्ल

साहित्य में विशेषण का विशेष महत्व है, लेकिन जब यह आम जीवन में उतर आता है तो इसकी अहमियत और अधिक हो जाती है। शब्दों में विशेष शब्द यानी विशेषण जुड़ने से उसके मायने और अर्थ बदल जाते हैं। आइए हम आपको इसका उदाहरण समझाते हैं जैसे मुफतखोरी, नशाखोरी, और हरामखोरी, घुसखोरी आदि। आप सयाने हैं अक्लमंदे इशारा काफी। आजकल उपर्युक्त तीनों का दौर है। लेकिन मुफतखोरी का अधिक बोलबाला है। क्योंकि अपन का मुलुक में बारिश चार महींने की होती है लेकिन चुनाव बारहमासा। एक बीता नही ंतो दूसरा तैयार। बारिश में फुहारों का मौसम रहता है तो चुनावों में तोहफों की बारिश होती है। लोकतंत्र में मुफत का माल लुटने को ढेर सारे आफर आते हैं। लेकिन आप सरकार बनाइए। आप मतदाता हैं, लोकतंत्र के जम्न्मदाता है। सत्ता सौंपना आपका फर्ज ही नहीं लोकतंत्र में संवैधारिनक दायित्व और कर्तव्य भी है। अब अपने दिल्ली वाले की देखो। वैसे भी कहावत है कि दिल्ली वालों का दिल बड़ा होता है। यहां तो पूरी सर्दी एक मफलर में डका देते हैं, लेकिन चुनाव आते ही आपका कितना खयाल रखते हैं। सरकार के राज में प्रजा पूरी सुखचैन से रहे इसका बेहद खयाल रखते हैं। तभी तो झाडू लेकर मोहल्ले भर में घूमते रहते हैं। आपकी सेहत और सुविधाओं का बड़ा खयाल रखते हैं। इतना खयाल है कि मुहल्ला क्लीनिक खुलवा दिए हैं। जिससे कोई हल्ला-गुल्ला न हो। बस! मुफत की खाओ नेताजी के गुणगाओ।
दिल्ली वाले साहब चुनावी मौसम का अधिक इंतजार नहीं कर सकते, लिहाजा मानसूत्र में ही आपके लिए तोहफों की बारिश करवा दिया। पहले पानी मुफत दिया और अब बिजली। अबकी बार खूब मुफत की बिजली जलाइए और बस नेताजी की सरकार बनाइए। इसी तरह कुछ साल टिका दिया तो सब कुछ मुफत कर देंगे। अगली बार पेटोल की बारी होगी। देखिए ससुरा चुनावी मौसम ऐसा होता ही है। सब कुछ लुटने और लुटवाने का। अपन के मुलुक के लिए यह मौसम बेहद शूट करता है। लोकतंत्र के देवताओं को भी इसका बेसब्री से इंतजार रहता है। तमाम अटकी घोषणाएं पूरी हो जाती हैं। सालों से मुर्दाबाद, जिंदाबाद करते दम निकल जाता है, लेकिन चुनाव आते ही सारे गिलवे दूर हो जाते हैं। सबको गले लगा लिया जाता है। सबकी मुराद पूरी हो जाती हैं। साहबों का वेतन बढ़ जाता है। वेतन आयोग की सिफारिशों की फाइल आगे बढ़ जाती है। महंगाई भक्ता पदोन्नति हासिल कर लेता है। आरक्षण वालों को आरक्षण, किसानों की कर्जमाफी और बेगारों के लिए नौकरियों की बाढ़ आ जाती है। पांच रुपये में भरपेट भोजन मिलता है। चावल, फैन, अनाज और सब्सिड़ी, टीवी, साड़ी, जूते, लैपटाप, अनाज और एसी सब मुफत के मिलते हैं। दारु की पेग तो अतिरिक्त लाभांश में शामिल होती है, हालांकि घोषणा में उसका उल्लेख नहीं होता है।
बस यह सब आफर सिर्फ चुनावों तक रहता है। इसके बाद चमकी बुखार से या सैलाब में डूब मरों कौन पूछता है। क्योंकि सरकार जब सिंहासन पर होती है तो पूछने का मौसम नहीं होता है। पूछोगे तो पता नहीं कितने एबीसीडी लग जाते हैं। आखिर बारिश भी तो चैमासे की होती है। देखते नहीं सावन में बाबा के राज में भक्तों की बम-बम है। खाकीवाले साहब! चरणसेवा में तत्ल्लीन हैं। कभी साहबों के फरमान से भक्तों की हड्डी पसली छितरा जाती थी, लेकिन अब वहीं चरण चाप रहे हैं। तस्वीर बाबा तक पहुंचा रहे हैं। भक्तों पर फूलों की वर्षा हो रही है। जबकि अपने के बाबा तो अड़बंगी हैं। उन्हें, लाभ, हानि, यश, अपयश से क्या मतलब। वह भक्तों की आस्था के साथ भांग, धतूरे और गंगा जल से काम चला लेते हैं। लेकिन भक्तों के भाग्य देख उन्हें भी कूढ़ हो रही होगी। वह नंदी महाराज से कह रहे होंगे देखो ! साहब यहां चरण चाप रहे हैं और रामपुर में गले पर छूरी लटकाएं हैं। अब नेताजी की न सरकार है और न आजम हैं। बेचारे, कहां-कहां माफी मांगे। संसद से सड़क तक कितनी माफी मांगे। जय हो बाबा की। अजब तेरी महिमा। बस! सावन में लोकतंत्र के देवताओं पर ऐसी कृपा बनाए रखिए और चुनावी मौसम में मुफतखोरी की बारिश करते रहिए।
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स्वतंत्र लेखक और पत्रकार