उत्तर प्रदेश का चुनाव और पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सामाजिक समीकरण  

-डॉ. ललित कुमार

अक्सर ऐसा माना जाता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति देश का भाग्य तय करती है । अब ऐसे में अगर उत्तर प्रदेश को ही देश मान लिया जाए, तो इस पर गहनता से अध्ययन और विचार विमर्श किया जाना चाहिए । क्योंकि देश की परिस्थिति अलग-अलग हिस्सों में एकदम अलग है । देश के पांच राज्यों में इस समय चुनावी माहौल है, लेकिन पूरे देश के जनता की नजर उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव पर टिकी है । उन्हें न तो पंजाब चुनाव से मतलब, न गोवा, मणिपुर और न उत्तराखंड से । क्योंकि चुनाव के समय में उत्तर प्रदेश को एक फिर से मुज़फ्फरनगर दंगे (2013) की याद दिलाई जा रही हैं । यूपी चुनाव को धर्म, संप्रदाय और जातिवाद के केंद्र में रखकर बार-बार एक एजेंडे के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। देश के प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक से लेकर सोशल मीडिया में हर तरफ उत्तर प्रदेश के चुनाव को सबसे ज्यादा मीडिया कवरेज मिल रहा है । बाकी राज्यों का चुनावी मीडिया कवरेज मुख्यधारा की मीडिया से लगभग नदारद हैं । उदाहरण के तौर पर अगर दिन में मीडिया चैनल पर पांच राज्यों की 20 चुनावी खबरें दिखाई जाती है, तो उनमें से 80 फीसदी  से अधिक खबरें केवल उत्तर प्रदेश चुनाव से जुड़ी हुई होती है । यानी मतलब साफ है कि केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश चुनाव को अपनी पहली प्राथमिकता में रखे हुए हैं, क्योंकि यहाँ राज्य की 403 सीटें और लोकसभा की 80 सीटें हैं । इसलिए भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहती है ।

यूपी चुनाव के पहले चरण का मतदान पश्चिम उत्तर प्रदेश के 11 जिलों की 58 सीटों पर हुआ, जहां दो करोड़ 28 लाख मतदाता हैं । जिनमें से 60.17 फीसदी मतदाताओं से अपना वोट डाला । पहले चरण में गाजियाबाद और नोएडा में औसतन सबसे कम 54.77 और 56.73 फ़ीसदी मतदान हुआ जबकि आगरा में 60.33% अलीगढ़ 60.49%, बागपत 61.35%, बुलंदशहर 60.52%, हापुड़ 60.50%, मथुरा 63.28%, मेरठ 60.30% मुजफ्फरनगर 65.34% जबकि शामली में सबसे ज्यादा 69.42 फ़ीसदी मतदान हुआ । पश्चिमी उत्तर प्रदेश की लगभग हर सीटों पर भाजपा और समाजवादी पार्टी-राष्ट्रीय लोकदल गठबंधन के बीच कड़ी टक्कर देखने को मिली । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने सबसे ज्यादा चुनौती अगर किसी पार्टी को दी तो वह है भारतीय जनता पार्टी । क्योंकि यहां के किसान योगी सरकार से सबसे ज्यादा नाखुश हैं । जाट और मुस्लिम मतदाता सपा-रालोद गठबंधन को सीधे तौर पर फायदा पहुंचाते हुए दिख रहे हैं । अगर सपा और रालोद का यह गठबंधन कामयाब होता है, तो समझ लीजिए कि पश्चिम उत्तर प्रदेश यूपी की राजनीति में हिंदू-मुस्लिम आपसी भाईचारे का एक नया अध्याय जोड़ सकता हैं ।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश का चुनाव बीजेपी के लिए टेढ़ी खीर बनता जा रहा है। यूपी की सियासत को अगर साधना है, तो नेताओं को खेतिहर किसानों की बात सबसे पहले करनी होगी, क्योंकि गंगा-जमुना के दोआब का यह क्षेत्र कृषि बाहुल्य माना जाता है, जहां बड़े पैमाने पर गन्ने फसल की पैदावार होती है। लगभग 60 से 70 फीसदी खेती-किसानी जाट, गुर्जर, ठाकुर और मुस्लिम समुदाय ही करते हैं। ये समुदाय आर्थिक और राजनीतिक रूप से काफी संपन्न माने जाते हैं। जाट बाहुल्य पश्चिम उत्तर प्रदेश का यह इलाका वोट के मामले में बेहद मायने रखता है। बात अगर वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव की करें, तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को सबसे बड़ी जीत यहीं से मिली थी। इसलिए बीजेपी की नजर फिर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की इन 136 सीटों पर है, जहां उसे 2017 में 107 सीटें मिली, यानी 90 फीसदी सीटें जीतने में यही से कामयाब रही। विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर किसान आंदोलन के बाद परिस्थिति एकदम उलट है। किसान आंदोलन को भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष राकेश टिकैत ने जिस तरीके से लीड किया। उसी को देखते हुए पश्चिमी यूपी के सामाजिक समीकरण बड़ी तेजी से बदले हैं।

सामाजिक समीकरण :

मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली नोएडा, गाज़ियाबाद और बागपत में पहले चरम का मतदान हो चुका है। 14 फरवरी को दूसरे चरण का मतदान 55 विधानसभा सीटों पर सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, बरेली, संभल, रामपुर, बदायूं और शाहजहांपुर में होना हैं । जहां सभी राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से जाति, धर्म और सांप्रदायिक माहौल के जरिए जनता का ध्यान भटकाकर उनको साम्प्रदायिक रंग देने की कोशिश में हैं। केंद्र सरकार के आधे से ज्यादा कैबिनेट मंत्री इस समय पश्चिमी उत्तर-प्रदेश पर नजर बनाए हुए हैं, जो बरेली, सहारनपुर और बिजनौर, मुरादाबाद जिलों के किसानों के घर-घर जाकर जनता से वोट मांग रहे हैं, लेकिन यही किसान जब पिछले एक साल से दिल्ली में धरने पर बैठे थे, तब केंद्र सरकार का कोई भी कैबिनेट मंत्री इन किसानों से धरना स्थल पर मिलने तक नहीं गया, लेकिन ऐसे में जब चुनावी माहौल है तब हर नेता किसानों के बीच जाकर अब उनकी बात कर रहे हैं, हैं न कमाल!

पूर्वांचल की तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति दलित, जाट और मुस्लिमों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का दलित, जाट और मुस्लिम मतदाता भले ही अच्छे खासे वोट बैंक की अहम भूमिका में हो, लेकिन उससे इतर पश्चिमी यूपी में सैनी, कश्यप, ठाकुर, त्यागी, गुर्जर, ब्राह्मण और बाल्मीकि समाज सत्ता के शिखर तक किसी भी पार्टी को ले जाने में एक अहम भूमिका निभाते हैं, यानी यही जातियां किंगमेकर की भूमिका में होती हैं। यूपी के पूरे सूबे में जाटों की आबादी लगभग 4 फ़ीसदी है, जबकि पश्चिमी यूपी में यह आबादी 17 फ़ीसदी है। यूपी में दलित 21 फ़ीसदी, जबकि पश्चिमी यूपी में 26 फीसदी हैं, यानी दलितों में भी जाटव 80 फ़ीसदी हैं। वहीं मुस्लिम आबादी 21 फ़ीसदी, जबकि पश्चिमी यूपी में 32 फीसदी है। हाल ही में इन तीनों जातियों को लुभाने के लिए सभी पार्टियां अपने-अपने तरीके से चुनावी माहौल को गर्म करने में लगे हैं।

सैनी समाज : पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सैनी मतदाता सब्जी की फ़सल पैदा करने वाला समुदाय है, जो ओबीसी समुदाय से आता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, बुलंदशहर, बिजनौर और अमरोहा जिलों में यह मतदाता एक निर्णायक भूमिका में होता है, जो सीधे तौर पर 10 सीटों पर अपना असर रखता है साथ ही दो दर्जन से अधिक सीटों पर अपना प्रभाव भी रखता है। यह समुदाय कभी भी एक पार्टी का हार्डकोर वोटर नही रहा, लेकिन वर्ष 2007 में यह बसपा के साथ था, 2012 में सपा और अब बीजेपी के साथ है। सैनी समाज से आने वाले धर्मपाल सिंह सैनी इसी समाज के एक कद्दावर नेता माने जाते हैं, जिन्होंने हाल ही में बीजेपी का दामन छोड़ सपा का दामन थामा है।

गुर्जर: गुर्जर समाज पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद, नोएडा, मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, बिजनौर और बागपत जिलों में करीब दो दर्जन से अधिक सीटों पर अपना प्रभाव रखते है। इस समाज के सबसे बड़े नेता राजेश पायलेट और हुकम सिंह थे, लेकिन अब अवतार सिंह भड़ाना इनके सबसे बड़े नेता है, जो कांग्रेस और बीजेपी में रहे लेकिन अब राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के साथ हैं। इस समाज की बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में अच्छी खासी पकड़ मानी जाती है, लेकिन वर्ष 2014 से यह समाज अब भारतीय जनता पार्टी के साथ है।

कश्यप : वर्ष 2001 की रिपोर्ट के मुताबिक, यूपी में कश्यप जाति 25 लाख से ज्यादा है। यह समाज पिछड़ी जाति में माना जाता है, जो रुहेलखंड के कई जिलों में अपना प्रभाव रखते है। यूपी में कहार, धिवर, निषाद, मल्लाह, केवट और बिंद जातियां जो अपना उपनाम कश्यप लिखती हैं। मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर, मेरठ, बागपत, मुरादाबाद, बरेली, आंवला और बदायूं जिलों में कश्यप मतदाता काफी लोकप्रिय हैं। कश्यप समाज कभी भी लंबे समय तक किसी एक पार्टी के साथ नहीं रहा बल्कि 2014 के बाद से यह समाज बीजेपी के साथ है, लेकिन सपा और बसपा फिर से कश्यप समाज को साधने में लगी है।

ठाकुर : मतदाता पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदाय से आते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तमाम जिले जिनमें ठाकुर बिरादरी आर्थिक और राजनीतिक रूप से अच्छी खासी संपन्न है क्योंकि अधिकतर ठाकुर लोग बड़े-बड़े कास्तकार है, जो सामान्य जाति से आते हैं। पश्चिमी यूपी के गाजियाबाद, शामली, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, हापुड़, मेरठ, अलीगढ़, मुरादाबाद, बरेली और बिजनौर जिलों सहित सियासी रूप से मजबूत माने जाते हैं, जो अपने दम पर कभी खुद विधानसभा और लोकसभा चुनाव तो नही जीत सकते, लेकिन अन्य बिरादरी के सहारे चुनाव जरूर जीत जाते हैं। यह वोटर पहले आरएलडी का वोट बैंक माना जाता था लेकिन अब बीजेपी के साथ है।

शर्मा, त्यागी और बाल्मीकि : यूपी की सियासत में हर मतदाता संख्या के मामले में भले ही कम हो, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही इनका झुकाव जिस भी पार्टी की ओर होता है। सत्ता को मजबूती देने में इनकी भागीदारी अहम होती है। पश्चिमी यूपी में शर्मा ब्राह्मण माने जाते हैं, जो भारद्वाज, उपनाम लिखते हैं। मेरठ, बुलंदशहर, नोएडा, गाजियाबाद, हाथरस और अलीगढ़ जिलों में शर्मा मतदाता काफी अहम है। इसी तरह से त्यागी खुद को सवर्ण समाज में मानते हैं, जिन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश का भूमिहार माना जाता है। गाजियाबाद, बिजनौर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत, नोएडा, बुलंदशहर और अमरोहा आदि जिलों में त्यागी समाज का अच्छा-खासा प्रभाव है। एक समय तक यह कांग्रेस का वोटर माना जाता था, लेकिन वर्तमान में यह बीजेपी के साथ खड़ा है। आरएलडी और बसपा ने भी पश्चिमी यूपी के कई सीटों पर शर्मा समुदाय के उम्मीदवार को उतारा है।

बाल्मीकि समाज यूपी का एक ऐसा समाज है। जिनकी हैसियत दलित वोटरों से कम नहीं है। उत्तर-प्रदेश के मेरठ, मुजफ्फरनगर, शामली, सहारनपुर, बिजनौर, गाजियाबाद, हाथरस, रामपुर, आगरा, बागपत और बुलंदशहर सहित इन जिलों में बाल्मीकि समुदाय काफी अहम हैं। इस समाज की भले ही बहुजन समाज में गिनती होती हो, लेकिन भाजपा और संघ पिछले कई सालों से बाल्मीकि समाज को अपने पाले में करने में लगा है क्योंकि यह समाज आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से बेहद पिछड़ा हुआ माना जाता है। इसलिए यह समुदाय आसानी से किसी भी पार्टी के साथ चला जाता है। भीम आर्मी चीफ एवं आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय प्रमुख चंद्रशेखर आजाद बाल्मीकि समाज के बीच रहकर उनकी आवाज और उनके हक और अधिकार के लिए हर समय खड़े रहते हैं यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भले ही मुस्लिम, दलित, जाट, वोटर, गुर्जर, सैनी, कश्यप और बाल्मीकि समुदाय की संख्या अच्छी खासी है। ठीक उसी तरह से ब्राह्मण, त्यागी और ठाकुर भाजपा का परंपरागत वोटर माना जाता है। भाजपा से लेकर आरएलडी तक पश्चिमी उAत्तर प्रदेश की सभी छोटी-छोटी जातियों को साधने में लगी है, जो भी पार्टीयां अगर इन जातियों को साधने में सफल हुई, तो मान लीजिए  2022 के विधानसभा की जंग पश्चिमी उत्तर-प्रदेश के आसरे ही हासिल की जा सकती है।

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