हम जिस संसार में रहते हैं वह हमें बना बनाया मिला है। हमारे जन्म से पूर्व इस संसार में हमारे माता-पिता व पूर्वज रहते आयें हैं। न तो हमें हमारे माता-पिता से और न हमें अपने अध्यापकों व विद्यालीय पुस्तकों में इस बात का सत्य ज्ञान प्राप्त हुआ कि यह संसार कब, किसने व क्यों बनाया है। क्या यह प्रश्न महत्वहीन है, या फिर इसका ज्ञान संसार में किसी को है ही नहीं? हमें दूसरा प्रश्न ही कुछ सीमा तक उचित प्रतीत होता है। यदि इन प्रश्नों के उत्तर हमारे वैज्ञानिकों, विद्वानों वा अध्यापकों आदि के पास होते तो वह निश्चय ही इसका प्रचार करते। अध्ययन करने पर इसका मुख्य कारण ज्ञात होता है कि विगत 5 हजार वर्षों में हमारे देश के लोगों ने वेद और वैदिक साहित्य का सत्य वेदार्थ प़द्धति से अध्ययन करना छोड़ दिया जिस कारण मनुष्य न केवल इन प्रश्नों के उत्तर से ही वंचित व अनभिज्ञ हो गया अपितु ईश्वर व जीवात्मा आदि के सच्चे ज्ञान से भी दूर होकर अज्ञान, अन्धविश्वासों और कुरीतियों से ग्रसित हो गया। यही स्थिति महर्षि दयानन्द के 12 फरवरी, 1825 को गुजरात के टंकारा नामक स्थान पर जन्म के समय भी थी परन्तु उनमें इन प्रश्नों को जानने की जिज्ञासा थी और इसके लिए अपना जीवन लगाने का जज्बा भी उनमें था। उन्होंने घर के सभी सुखों का त्याग कर इस संसार के सत्य रहस्यों को जानने का निश्चय किया और विद्वानों की संगति व सेवा में जाकर जिससे जितना व जो भी ज्ञान प्राप्त हो सकता था, उसे प्राप्त किया। स्वामी दयानन्द ने किसी एक ही व्यक्ति को अपना गुरू बनाकर सन्तोष नहीं किया अपितु देश में सर्वत्र घूम कर जिससे जहां जो भी ज्ञान मिला उसे अपनी बुद्धि व स्मृति में स्थान दिया जिसका परिणाम हुआ कि अनेक विद्वानों के सम्पर्क में आकर वह शून्य से आरम्भ होकर अनन्त ज्ञान वेद व ईश्वर तक पहुंचे और सभी जिज्ञासाओं, प्रश्नों, शंकाओं व भ्रान्तियों के उत्तर प्राप्त किये और उससे सारे संसार को भी आलोकित व लाभान्वित किया। मथुरा के गुरू प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द का तीन वर्ष शिष्यत्व प्राप्त कर उनसे पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर वह सन्तुष्ट हुए थे।
सृष्टि की रचना व उत्पत्ति के प्रसंग में यह महत्वपूर्ण तथ्य है कि संसार में कोई भी रचना व उत्पत्ति बिना कर्त्ता के नहीं होती। इसके साथ यह भी महत्वपर्ण तथ्य है कि कर्ता को अपने कार्य का पूर्ण ज्ञान होने के साथ उसको सम्पादित करने के लिए पर्याप्त शक्ति वा बल भी होना चाहिये। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यह सृष्टि एक कर्ता जो ज्ञान व बल से युक्त है, उसी से बनी है। वह स्रष्टा कौन है? संसार में ऐसी कोई सत्ता दृष्टिगोचर नहीं होती जिसे इस सृष्टि की रचना का अधिष्ठाता, रचयिता व उत्पत्तिकर्ता कहा व माना जा सके। अतः यह सुनिश्चित होता है कि वह सत्ता है तो अवश्य परन्तु वह अदृश्य सत्ता है। क्या संसार में कोई अदृश्य सत्ता ऐसी हो सकती है जिससे यह सृष्टि बनी है? इस पर विचार करने पर हमारा ध्यान स्वयं अपनी आत्मा की ओर जाता है। हम एक ज्ञानवान चेतन तत्व वा पदार्थ है जो शक्ति वा बल से युक्त हैं। हमने स्वयं को आज तक नहीं देखा। हम जो, इस शरीर में रहते हैं व इस शरीर के द्वारा अनेक कार्यों को सम्पादित करते हैं, वह आकार, रंग व रूप में कैसा है? हम अपने को ही क्यों ले, हम अन्य असंख्य प्राणियों को भी देखते है परन्तु उनके शरीर से ही अनुमान करते हैं कि इनके शरीरों में एक जीवात्मा है जिसके कारण इनका शरीर कार्य कर रहा है। इस जीवात्मा के माता के गर्भ में शरीर से संयुक्त होने और संसार में आने पर जन्म होता है और जिस चेतन जीवात्मा के निकल जाने पर ही यह शरीर मृतक का शव कहलाता है। हम यह भी जानते हैं कि सभी प्राणियों के शरीरों में रहने वाला जीवात्मा आकार में अत्यन्त अल्प परिणाम वाला है। अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण इसका अस्तित्व होकर भी यह दिखाई नहीं देता है। अतः संसार में हमारी इस आत्मा की ही भांति जीवात्मा से सर्वथा भिन्न एक अन्य शक्ति, निराकार स्वरूप और सर्वव्यापक, चेतन पदार्थ, आनन्द व सुखों से युक्त, ज्ञान-बल-शक्ति की पराकाष्ठा से परिपूर्ण, सूक्ष्म जड़ प्रकृति की नियंत्रक सत्ता ईश्वर वा परमात्मा हो सकती है। ऐसी ईश्वर नामी सत्ता से ही सूर्य, चन्द्र, ग्रह-उपग्रह, नक्षत्र, असंख्य सौर मण्डलों से युक्त यह संसार, सृष्टि, ब्रह्माण्ड व जगत अस्तित्व में आ सकता है, इसमें सन्देह का कोई कारण नहीं। यही एक मात्र विकल्प हमारे सामने हैं। अन्य कोई दूसरा विकल्प है ही नहीं। अब इस अनुमान का प्रमाण प्राप्त करना है जोकि वेद व वैदिक साहित्य के गहन व गम्भीर अध्ययन तथा ईश्वरोपासना, विचार, चिन्तन, मनन, ध्यान व समाधि के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
अब हमें यह भी विचार करना है कि वस्तुतः वेद और वैदिक साहित्य है क्या? इसको जानने के लिए हमें इस सृष्टि के आरम्भ में जाना होगा। जब सुदूर अतीत में यह सृष्टि उत्पन्न हुई तो अन्य प्राणियों को उत्पन्न करने के बाद मनुष्यों को भी उत्पन्न किया गया होगा। सृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों की उत्पत्ति माता-पिता से न होकर अमैथुनी विधि से परमात्मा व सृष्टिकर्ता करता है। इसका भी अन्य कोई विकल्प नहीं है, अतः ईश्वर द्वारा अमैथुनी सृष्टि को ही मानना हमारे लिए अनिवार्य व अपरिहार्य है। सृष्टि, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि तथा पृथिवी पर अग्नि, वायु, जल व प्राणी जगत सहित मनुष्य भी उत्पन्न हो जाने पर मनुष्यों को ज्ञान की आवश्यकता होती है जिससे वह अपने दैनन्दिन कार्यों का सुगमतापूर्वक निर्वाह कर सके। यह ज्ञान भी उसे यदि मिल सकता है वा मिला है तो वह सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर से ही मिला है। इसके अनेक प्रमाण हमारे पास हैं। पहला प्रमाण तो परम्परा का है। भारत में विपुल वैदिक साहित्य है जिसमें सर्वत्र वेदों को ईश्वरीय ज्ञान अर्थात् ईश्वर से प्रदत्त ज्ञान बताया गया है। वेद संसार में सबसे प्राचीनतम होने के कारण भी ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होता है। मनुष्य अपने सारे जीवन में ज्ञान की उत्पत्ति नहीं करता, वह तो ज्ञान की खोज करता है जो इस सृष्टि में पहले से ही सर्वत्र विद्यमान है। यह ज्ञान ईश्वर का स्वाभाविक गुण है और उसमें सदा सर्वदा व सनातन काल से है और शाश्वत व नित्य भी है। ईश्वर ने अध्ययन, ध्यान व चिन्तन आदि से ज्ञान को उत्पन्न नहीं किया अपितु यह उसमें स्वतः अनादि काल से चला आ रहा है। परिमाण की दृष्टि से पूर्ण होने के कारण इसमें न्यूनाधिक नहीं होता और यह अनादि काल से ही एकरस व एक समान बना हुआ है और आगे भी इसी प्रकार का बना रहेगा। वेदों का अध्ययन कर भी वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होते हैं क्योंकि वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व संसार विषयक पूर्ण मौलिक ज्ञान बीज रूप में विद्यमान है जिसका समर्थन ज्ञान व विज्ञान से भी होता है। वेदों का ज्ञान पूर्णरूपेण सृष्टि-क्रम के अनुकूल होने से विज्ञान का पोषक है। वेदों की सभी मान्यतायें ज्ञान, बुद्धि, तर्क, ऊहा व वाद-विवाद कर सत्य सिद्ध होती हैं। सृष्टि के आदि से महर्षि दयानन्द पर्यन्त कोटिशः सभी ऋषियों ने वेदों का अध्ययन कर यही निष्कर्ष निकाला है। अतः वेद ज्ञान ईश्वर प्रदत्त आदि ज्ञान सिद्ध होता है जो सभी सत्य विद्याओं सहित सभी प्रकार के आधुनिक ज्ञान व विज्ञान का भी एकमात्र व प्रमुख आधार है। यदि सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर से मनुष्यों को ज्ञान न मिलता तो यह संसार आगे चल ही नहीं सकता था। वही वैदिक ज्ञान काल के प्रवाह व भौगोलिक कारणों से आज अनेक भाषाओं में न्यूनताओं को समेटे हुए हमें सर्वत्र प्राप्त होता है। सृष्टि के आरम्भ में वेदों की उत्पत्ति व ऋषियों को उसकी प्राप्ति के पश्चात समय-समय पर ऋषियों ने लोगों के हितार्थ विपुल वैदिक साहित्य की रचना की। संक्षेप में कहें तो वैदिक आर्ष व्याकरण, निरुक्त, वैदिक ज्योतिषीय ज्ञान, कल्प ग्रन्थ, 6 दर्शन, उपनिषद, प्रक्षेपों से रहित शुद्ध मनुस्मृति और वेदों की शाखायें हमारे ऋषियों ने अल्पबुद्धि वाले हम मनुष्यों के लिए बना दी जिससे मनुष्य जाति का उपकार व हित हो सके।
यह सिद्ध हो गया है कि सृष्टि उत्पत्ति विषयक सभी प्रश्नों का सत्य उत्तर हमें वेद और वैदिक साहित्य से ही प्राप्त होगा। सृष्टि की उत्पत्ति किससे हुई प्रश्न का उत्तर है कि यह सृष्टि ईश्वर कि जिसके ब्रह्म, परमात्मादि नाम हैं, जो सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त है, जिसके गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं, जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्ता, धर्ता, हर्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य न्याय से फलदाता आदि लक्षण युक्त है, उसी से ही यह सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। सृष्टि कब उत्पन्न हुई, का उत्तर है कि एक अरब छियानवें करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ पन्द्रह वर्ष पूर्व। यह काल गणना भी वैदिक परम्परा व ज्योतिष आदि शास्त्रों के आधार पर है। सृष्टि की रचना क्यों हुई का उत्तर है कि जीवात्माओं को उनके जन्म जन्मान्तरों के कर्मों के सुख व दुःख रूपी फलों वा भोगों को प्रदान करने के लिए परम दयालु परमेश्वर ने की। सृष्टि रचना व संचालन का कारण जीवों के कर्म व उनके सुख-दुःख रूपी फल प्रदान करना ही है। जीवात्मा को उसके लक्षणों से जाना जाता है। उसके शास्त्रीय लक्षण हैं, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, ज्ञान, कर्म, अल्पज्ञता व नित्यता आदि।
हमने अपने विगत 45 वर्षों में जो अध्ययन किया है उसके अनुसार हमें यह ज्ञान पूर्णतयः सत्य, बुद्धि संगत व विज्ञान की आवश्यकताओं के अनुरुप लगता है। हमारे वैज्ञानिक अनेक कारणों से ईश्वर व धर्म को नहीं मानते। आने वाले समय में उन्हें इस ओर कदम बढ़ाने ही होंगे अन्यथा उनकी सत्य की खोज अधूरी रहेगी। इन्हीं शब्दों के हम लेख को विराम देते हैं।