आपातकालीन दमन के अमिट व्रणचिह्न

कुन्दन पाण्डेय

कहते हैं वक्त हर जख्म को भर देता है, लेकिन जख्म के चिह्न को वक्त मिटा नहीं पाता, धुंधला अवश्य कर देता है। भारतीय लोकतंत्र में आपातकाल का व्रणचिह्न, एक ऐसा ही चिह्न है। आज से ठीक 36 वर्ष पूर्व देश पर 25 जून, 1975 की मध्य रात्रि को आपातकाल थोपा गया था। लोकतंत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि लोकतंत्र 100 वर्षों में परिपक्व होता है। इस आधार पर हमारा भारतीय लोकतंत्र 1975 में परिपक्वता वर्ष से 75 वर्ष कम था। दरअसल 1971 के आम चुनाव में दो तिहाई बहुमत से चुनाव जीतने वाली इंदिरा गांधी के खिलाफ रायबरेली से समाजवादी राजनारायण चुनाव हार गये थे। परन्तु राजनारायण के इंदिरा गांधी की जीत को चुनौती देने वाली चुनाव याचिका पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून, 1975 को श्रीमती गांधी का चुनाव रद्द करने का आदेश घोषित कर दिया।

दरअसल 25 जून, 1975 की शाम छह बजे से जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान पर एकत्रित तकरीबन 1 लाख के उत्साही जनसमूह को संबोधित करते हुए इंदिरा गांधी से इस्तीफा देने का आग्रह किया और कहा कि अन्यथा भारत की जनता को उन्हें शांतिपूर्वक इस्तीफा देने को बाध्य करना चाहिए। इतना सुनने के बाद, इंदिरा गांधी ने लगभग 11.30 बजे आपातकाल के दस्तावेज पर हस्ताक्षर कर दिए। आपातकाल की घोषणा पर राष्ट्रपति ने बिना मंत्रीमंडल की सिफारिश के ही हस्ताक्षर कर दिए थे। 25 जून की रात्रि को 3 बजे जेपी को गिरफ्तार करने गयी पुलिस, 5 बजे तक पार्लियामेंट स्ट्रीट थाने ले आई। फौरन मिलने पहुंचे युवा तुर्क कहे जाने वाले कांग्रेसी नेता ‘चन्द्रशेखर’ तक को पुलिस ने वहीं गिरफ्तार कर लिया। चन्द्रशेखर की गिरफ्तारी समस्त कांग्रेसी सांसदों को यह चेतावनी थी कि जो विरोध करेगा, विपक्ष की तरह जेल में होगा।

“मेंटीनेंस ऑफ इंटरनल सिक्युरिटी एक्ट” यानी मीसा जैसा काला कानून लागू करके, प्रख्यात समाजवादी नायक रघु ठाकुर के अनुसार आपातकाल में लगभग 2 लाख लोगों को हिरासत में रखा गया था। ताज्जुब की बात है कि, यह संख्या 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय कारावास में रखे गये लोगों की संख्या से अधिक थी। तत्कालीन महान्यायवादी (अटार्नी जनरल) ने कहा था कि, “राज्य किसी की भी हत्या बिना दंडित हुए कर सकता है”। यह वाक्य निश्चित ही इस समय भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे सिविल सोसायटी के सदस्यों व समर्थकों के अंतस-मानस में सिहरन पैदा करने के लिए काफी है।

आपातकाल के दौरान सत्ता के नशे में मदांध संजय गांधी की मंडली का उत्साहित नारा था कि ‘एक राष्ट्र, एक पार्टी और एक नेता’। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने ‘इंडिया इज इंदिरा’ व ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहकर के चाटुकारिता को जबर्दस्त बढ़ावा दिया। बरूआ का यह कथन इसलिए सत्य प्रतीत होता है कि इंदिरा गांधी अपना लोकसभा निर्वाचन रद्द होने तथा कांग्रेस संसदीय दल में नये नेता के चुनाव की मांग से मानसिक रूप से अपने राजनीतिक जीवन में सबसे अशांत थी। बस फिर क्या था, ‘इंदिरा इज इंडिया’ के कारण इंदिरा ने अपनी नितांत निजी अशांति को पूरे देश पर थोप दिया। इंदिरा गांधी के सामान्य विरोध तक को देशद्रोही मानकर पूरे विपक्ष सहित जेलों में मीसा के तहत ठूंसकर, संविधान के 53 अनुच्छेद बदल दिए गए। 42 वां संविधान संशोधन इसी समय विपक्ष की अनुपस्थिति में हुआ था। पीएम के लोकसभा निर्वाचन को कोर्ट में चुनौती न देने का अकल्पनीय, निराधार एवं हास्यास्पद कानून संसद द्वारा बनाया गया। और तो और पं. नेहरू द्वारा प्रस्तावित एवं संविधान सभा द्वारा पारित ‘संविधान की प्रस्तावना’ में ‘पंथनिरपेक्ष व समाजवादी’ शब्द जोड़कर, इंदिरा ने नेहरू की समझ व विद्वता पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिए।

राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक ‘मदरलैंड’ के कार्यालय पर तोड़-फोड़ करके इसके संपादक मलकानी को गिरफ्तार किया गया। अनगिनत अखबार जो ऐसी स्थिति नहीं झेल सके, बंद हो गये। दैनिक जागरण ने अपने संपादकीय का स्थान खाली रखकर, नये तरह की पत्रकारीय अभिव्यक्ति की इबारत लिखी। प्लेटो का यह कथन इंदिरा गांधी पर सटीक बैठता है कि, “लोकतंत्र में आक्रामक और साहसी लोग नेता बन जाते हैं। दब्बू और चापलूस लोग इन नेताओं के अनुयायी।” 1971 की युद्ध विजय से अपनी आक्रामकता और साहसीपन पर श्रीमती गांधी जनता से मुहर लगवा चुकी थीं। पीएम इंदिरा ने तानाशाह के जैसे कहा कि, “मैं ही वह हूं जो देश को एकताबद्ध रखे है।” इसका तो यही अर्थ है न, कि इनके पहले नेहरू युग व इनके बाद के युग में देश में एकता नहीं थी। जेपी आन्दोलन में जनसंघ से अधिक अत्याचार सहकर संघ परिवार ने अद्वितीय व स्वर्णिम यश-ख्याति अर्जित की।

भारतीय लोकतंत्र के सभी संस्थाओं को अपूरणीय आघात पहुंचाया गया। आपातकाल के नाम पर किए गए दमन-शोषण और ज्यादतियों की जांच के लिए शाह आयोग का गठन किया गया। इस आयोग की गवाही में नौकरशाहों और अन्य अधिकारियों ने स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया कि अपने-अपने पद की रक्षा ही हमारे कार्य का एकमात्र आधार था। आपातकाल में इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करके पहली बार लोकसेवकों को नौकरशाह बना डाला। ऐसा आभास होता है कि देश पर आपातकाल थोपने वाला शासक यह कह रहा हो कि “ऐ लोकसेवकों तुम जनता के लिए शाह जरूर हो, परन्तु एकमात्र मेरे लिए तो नौकर (शाह नहीं) ही हो”। आपातकाल ने राष्ट्र-समाज-शासन में जो धर्म-अधर्म, सही-गलत, अच्छा-बुरा, संवैधानिक-असंवैधानिक एवं नैतिक-अनैतिक का भेद बचा-खुचा था, उसे भी हमेशा-हमेशा के लिए अधिकारिक रूप से समाप्त कर दिया। अब तो भारत की प्रशासनिक मशीनरी के अंतस-मानस, चाल-चेहरा-चरित्र में आपातकाल के दुर्गुण शाश्वत अंग बन गये हैं।

परन्तु यक्ष प्रश्न यह है कि क्या आज की सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक परिदृश्य वाले समाज में जे पी जैसा कोई व्यक्तित्व हो सकता है? जो मंत्री, प्रधानमंत्री तो बहुत बड़ी बात है, सांसद या विधायक तक न बना हो। लेकिन केन्द्रीय सत्ता (इंदिरा गाँधी) के खिलाफ आन्दोलन को सफल करने के लिए लाखों लोगों को जोड़ने की क्षमता रखता हो। जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र इतिहास से सबक नहीं सीखता, वो इतिहास में ही दफ्न हो जाता है। लेकिन भारतीय राष्ट्र, समाज, सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस, भाजपा सहित सभी विपक्षी दलों ने शायद ही आपातकाल से कोई सबक सीखा है। अब यह भविष्य ही बतायेगा कि पूर्व उल्लिखित सभी इकाईयों का इतिहास कैसा होता है?

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कुन्दन पाण्डेय
समसामयिक विषयों से सरोकार रखते-रखते प्रतिक्रिया देने की उत्कंठा से लेखन का सूत्रपात हुआ। गोरखपुर में सामाजिक संस्थाओं के लिए शौकिया रिपोर्टिंग। गोरखपुर विश्वविद्यालय से स्नातक के बाद पत्रकारिता को समझने के लिए भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी रा. प. वि. वि. से जनसंचार (मास काम) में परास्नातक किया। माखनलाल में ही परास्नातक करते समय लिखने के जुनून को विस्तार मिला। लिखने की आदत से दैनिक जागरण राष्ट्रीय संस्करण, दैनिक जागरण भोपाल, पीपुल्स समाचार भोपाल में लेख छपे, इससे लिखते रहने की प्रेरणा मिली। अंतरजाल पर सतत लेखन। लिखने के लिए विषयों का कोई बंधन नहीं है। लेकिन लोकतंत्र, लेखन का प्रिय विषय है। स्वदेश भोपाल, नवभारत रायपुर और नवभारत टाइम्स.कॉम, नई दिल्ली में कार्य।

7 COMMENTS

  1. कुंदन जी, कांग्रेस की स्थापना ही देश को गुलाम बनाये रखने की तरकीब के तहत हुई. उसपर से गांधीजी ने अपने बूते उसे राह जरुर दिखाई पर आज़ादी के बाद गलत हाथों में थामकर चले गुए. तब से हम इसी अतीत के क़र्ज़ को ढोते आ रहे हैं. अत्यंत ही प्रभावी लेख कलिए बधाई.

  2. jo pahle barua जी nai kiya-vo ab diggi raaja कर rahai hai ?

    ab anai vale time मई, इलेक्शन sai पहले युवराज जी, pardhman मंत्री बन जिगे aur rajmata desh par एमेर्गेंच्य thop daige……………….

    वैसे apatkal kai 1st step to uth hi chuke hai…………………….

  3. आर.सिंह जी लिखते हैं:
    ==>”केवल सत्ता परिवर्तन भ्रष्टाचार को नहीं खत्म कर सकता.मृत्यु के पहले वे (जे. पी.) इस बात को पूरी तरह समझ गये थे और वे एक बहुत ही दुखी व्यक्ति के रूप में स्वर्ग सिधारे थे।”<===
    सहमति। यह परम सत्य है। इसी लिए चरित्र निर्माण का काम नहीं भूलना चाहिए। सत्ता परिवर्तन भी हो, चरित्र निर्माण भी हो। धन्यवाद।

  4. अमरिका में आपात्काल समाप्ति के उद्देश्य से फ्रेंड्स ऑफ इण्डिया इंटरनॅशनल की स्थापना हुयी थी। सुब्रह्मंण्यं स्वामी, मकरंद देसाई, ना. ग. गोरे जी इत्यादि; नेताओं के प्रवास का, सारा उत्तर्दायित्व अमरिका में फैले हुए, संघ के स्वयं सेवकों ने ही लिया था। कुछ स्वयंसेवकों के पास-पोर्ट भी इंदिरा ने जप्त कर लिए थे।
    संघ के अंतर राष्ट्रीय कार्य का जाल कुछ दढ मूल हो रहा था, कि यह संकट आ गया था।
    “स्मगलर्स ऑफ ट्रूथ” और “एक्सपरिमेंट्स इन अनट्रूथ” ऐसी दो पुस्तकें भी छपी थी।अमरिकन सेनेटरों, कांग्रेसमनों इत्यादिं की भेंट करवाना, नगर नगर में प्रवासी भारतीयों की सभाएं आयोजित करना, बार बार, अपना टिकट खर्च कर, प्रत्यक्ष भारत जा कर संदेश पहुंचाना,{ डाक वाले पत्र खोलकर पढते थे।}, ऐसे अनेक छोटे बडे काम, माननीय स्व.लक्ष्मण राव भिडे जी, कार्यान्वित करवाते थे।ऐसे, अनेक छोटे बडे कार्यक्रमों द्वारा अमरिका के शासन की ओरसे इंदिरा पर दबाव लाया गया था।
    अनगिनत स्वयंसेवको नें, निःस्वार्थ भावसे आंदोलन चलाया था। किसीको भी कोई भारत रत्न, पद्म श्री इत्यादि की न अपेक्षा थी, न दिया गया। पर सामुहिक रीतिसे ऐसे कार्यों को भुला न दिया जाना चाहिए।
    इस कार्यमें संघके बिना (मेरी प्रत्यक्ष जानकारी) बाकी सारे अकर्मण्य ही थे। जितनी भी सभाएं होती थी, संघ को उपदेश देने वाले ही बहुत थे, काम करने में पिछे थे। स्मरण है,कि,न्यूयोर्क में मिटींग बुलायी गयी। १००-१५० तक श्रोता आए। अंतमें काम के लिए नाम लिखवाए, तो बहुतेरे, (केवल) स्वयंसेवक ही आगे आए थे। जो अनपहचाने थे, वे भी स्वयंसेवक ही निकले। यह आनंद से नहीं, पीडासे कह रहा हूं। सोच रहा था कहूं, या ना कहूं? पर सच्चाई को कहना निश्चित गलत नहीं हो सकता। गुरूजी कहते थे,”देश भक्ति (स्वभाव) प्रकृति हो, परिचय नहीं”।

  5. मेरे जैसे लोग उस आपात काल के केवल दर्शक ही नहीं,बल्कि उसकेविरोध में प्रच्छन रूप से कार्रवाई करने वालों में से थे.राजनारायण जब इंदिरा गांधी के विरुद्ध चुनाव लड रहे थे उसी समय यह तयशुदा था की उनकी चुनाव में हांर होगी और वे अदालत में चुनाव याचिका दायर करेंगे.भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन की शुरुआत भी करीब करीब उन्हीं दिनों हुई थी.पर जेपी जैसे नेता भी यह समझने में असमर्थ रहे की केवल सत्ता परिवर्तन भ्रष्टाचार को नहीं खत्म कर सकता.मृत्यु के पहले वे इस बात को पूरी तरह समझ गये थे और वे एक बहुत ही दुखी व्यक्ति के रूप में स्वर्ग सिधारे थे.ऐसे इस पूरे प्रसंग को और उसके बाद की परिस्थितियों को मैंने अपने लेख'” नाली के कीड़े “में समन्वित करने का प्रयत्न किया है(प्रवक्ता १ मई )

  6. सोवियत संघ की गुप्तचर एजेंसी के जी बी के भगोड़े मित्रोखिन द्वारा प्रकाशित गोपनीय दस्तावेजों में भारत सम्बन्धी दस्तावेज मित्रोखिन आर्काईव्स-२ में दो अध्यायों में विस्तार से बताया गया है की सोवियत गुप्तचर संस्था द्वारा इंदिरा गाँधी की पूरी सहायता की गयी. और स्वयं राजीव गाँधी ने उनके द्वारा विभिन्न सौदों में दी गयी आर्थिक ‘मदद’ के लिए उनका आभार व्यक्त किया गया. एमरजेंसी के दौरान के जी बी द्वारा चार हज़ार से ज्यादा लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में इंदिरा के समर्थन में भारतीय पत्रकारों की और से छपवाए गए थे. आज भी देश में अघोषित एमरजेंसी जैसे हालात हैं. देश की जनता को किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा.

  7. देश की जनता को आपातकाल के भयावह दिन भूलने नहीं चाहिए. ये कांग्रेस दुबारा आपातकाल लगाने से चुकेगी नहीं.

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