कविता

खाली हाथ

सारी रात

नींद आँखों से कोसों दूर है

ख्‍यालों का पुलिंदा

मधुर पल की चाह में

एक पल के लिये

जीने को उत्‍सुक है।

नितांत अकेला,

कुर्सी पर बैठा आदमी

विचारों में ड़ूबा

तलाश रहा है उस पल को

और वह मधुर पल

उसके हाथों से खिसक कर

बहुत दूर असीम में

सरकता हुआ चला जा रहा है।

ख्‍यालों के पुलिन्‍दे की परतें

कुर्सी और आदमी के चारों ओर

ढेर बनी उन्‍हें दबा रही है

और हाथ न आती उन परतों को

पीव वह आदमी, प्‍याज की तरह

परत दर परत छीलने को विवश है

उसके मिट जाने तक।