दिल्ली का मुगलकालीन बाजार, यानी चांदनी चौक। यह इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है। यहां की पराठे-वाली गली के क्या कहने हैं ! भई, जो भी गली में आया, इसका मुरीद बनकर रह गया।सन् 1646 में मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी को आगरा से दिल्ली लेकर आए थे। तब चांदनी चौक आबाद हुआ था। स्थानीय लोगों के मुताबिक पराठे-वाली गली के नाम से मशहूर इस गली का वजूद भी उसी समय आ गया था। लकिन, उन दिनों भी यह गली पराठे-वाली गली के नाम से पहचानी जाती थी, इसका कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं है।खैर! इस गली के दूसरे मोड़ पर करीब 140 वर्ष पुरानी पीटी गयाप्रसाद शिवचरण नाम की दुकान है। दुकान पर बैठे मनीष शर्मा बताते हैं, हमारे पुरखे आगरा के रहने वाले थे। उन्होंने सन 1872 में इस दुकान को खोला था।बातचीत के दौरान मालूम हुआ कि उनकी दुकान में पराठा बनाने वाले भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह काम कर रहे हैं। इनके पुरखे भी मनीष के पुरखे के साथ काम किया करते थे। इनका वर्षों का नाता है।इसके बाजू वाली परांठे की दुकान 1876-77 की है। दुकान से बाहर परांठे का स्वाद लेने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रही विद्या ने बताया, मैं अपनी बहन की शादी की मार्केटिंक करने मॉडल टाउन से यहां आई हूं। जब भी चांदनी चौक आने का मौका मिलता है तो पराठे-वाली गली जरूर आती हूं।भीड़-भाड़ वाली इस गली में बहुत मुमकिन है कि आप बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी तय कर सकें। इसके बावजूद यहां आने वाले लोगों से पराठे-वाली गली के जो पुराने ताल्लुकात कायम हुए थे, वो अब भी बने हुए हैं।मनीष बताते हैं कई ऐसे लोग हैं जो पहले अपने पिताजी के साथ यहां पराठा खाने आते थे। अब अपने बच्चों को लेकर पराठा खाने आते हैं। आज नए उग आए बाजारों में खुले बड़े-बड़े रेस्तरां के मुकाबले चांदनी चौक की पराठे-वाली गली का मान है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल में भी यह गली खांटी देशीपन का आभास कराते हुए देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों का लुत्फ उठाने का भरपूर अवसर देती है। शायद इसलिए लोग समय निकालकर यहां आते हैं।
अभी एक दो दिन के अंदर ही इस गली के बारे में जानकारी मिली … बहुत अच्छा लिखा है।
पराठे सुन कर हि मुहं में पानी आ गया…