मैदान में उतरा ‘गांधी’ !

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देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों के उत्तर भी तलाशें राहुल

-संजय द्विवेदी

पिछले कई महीनों से संसद के अंदर और बाहर कांग्रेस की सरकार की छवि मलिन होती रही, देश की जनता महंगाई की मार से तड़पती रही। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल हों या महंगाई से देश में आंदोलन और बंद, किसी को पता है तब राहुल गांधी कहां थे? मनमोहन सिंह इन्हीं दिनों में एक लाचार प्रधानमंत्री के रूप में निरूपित किए जा रहे थे किंतु युवराज उनकी मदद के लिए नहीं आए। महंगाई की मार से तड़पती जनता के लिए भी वे नहीं आए। आखिर क्यों? और अब जब वे आए हैं तो जादू की छड़ी से समस्याएं हल हो रही हैं। वेदान्ता के प्लांट की मंजूरी रद्द होने का श्रेय लेकर वे उड़ीसा में रैली करके लौटे हैं। उप्र में किसान आंदोलन में भी वे भीगते हुए पहुंचे और भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का आश्वासन वे प्रधानमंत्री से ले आए हैं। जाहिर है राहुल गांधी हैं तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यूं लगता है कि देश के गरीबों को एक ऐसा नेता मिल चुका है जिसके पास उनकी समस्याओं का त्वरित समाधान है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में एक दिन भी यह प्रकट नहीं होने दिया कि वे जनता के लिए भी कुछ सोचते हैं। वे सिर्फ एक कार्यकारी भूमिका में ही नजर आते हैं जो युवराज के राज संभालने तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री है। इसके कारण समझना बहुत कठिन नहीं है। आखिरकार राहुल गांधी ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं और इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी अपनी राय दे चुके हैं कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। यह अकेली दिग्विजय सिंह की नहीं कांग्रेस की सामूहिक सोच है। मनमोहन सिंह इस मायने में गांधी परिवार की अपेक्षा पर, हद से अधिक खरे उतरे हैं। उन्होंने अपनी योग्यताओं, ईमानदारी और विद्वता के बावजूद अपने पूरे कार्यकाल में कभी अपनी छवि बनाने का कोई जतन नहीं किया। महंगाई और भोपाल गैस त्रासदी पर सरकारी रवैये ने मनमोहन सिंह की जनविरोधी छवि को जिस तरह स्थापित कर दिया है वह राहुल के लिए एक बड़ी राहत है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। जाहिर तौर पर इस चुनिंदा रवैये से वे अपनी भुवनमोहिनी छवि के निर्माण में सफल भी हुए हैं।

वे सही मायने में एक सच्चे उत्तराधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं।सत्ता पाकर अधीर होनेवाली पीढ़ी से अलग वे कांग्रेस में संगठन की पुर्नवापसी का प्रतीक बन गए हैं।वे अपने परिवार की अहमियत को समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने कहा- ‘मैं राजनीतिक परिवार से न होता तो यहां नहीं होता। आपके पास पैसा नहीं है, परिवार या दोस्त राजनीति में नहीं हैं तो आप राजनीति में नहीं आ सकते, मैं इसे बदलना चाहता हूं।’आखिरी पायदान के आदमी की चिंता करते हुए वे अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। नरेगा जैसी योजनाओं पर उनकी सर्तक दृष्ठि और दलितों के यहां ठहरने और भोजन करने के उनके कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सही मायनों में वे कांग्रेस के वापस आ रहे आत्मविश्वास का भी प्रतीक हैं। अपने गृहराज्य उप्र को उन्होंने अपनी प्रयोगशाला बनाया है। जहां लगभग मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस को उन्होंने पिछले चुनावों में अकेले दम पर खड़ा किया और आए परिणामों ने साबित किया कि राहुल सही थे। उनके फैसले ने कांग्रेस को उप्र में आत्मविश्वास तो दिया ही साथ ही देश की राजनीति में राहुल के हस्तक्षेप को भी साबित किया। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी के प्रबंधकों ने उन्हें जो राह बताई है वह बहुत ही आकर्षक है और उससे राहुल की भद्र छवि में इजाफा ही हुआ है। किंतु यह बदलाव अगर सिर्फ रणनीतिगत हैं तो नाकाफी हैं और यदि ये बदलाव कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र में बदलाव का कारण बनते हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि राहुल गांधी को पता है कि भावनात्मक नारों से एक- दो चुनाव जीते जा सकते हैं किंतु सत्ता का स्थायित्व सही कदमों से ही संभव है। सत्ता में रहकर भी सत्ता से निरपेक्ष रहना साधारण नहीं होता, राहुल इसे कर पा रहे हैं तो यह भी साधारण नहीं हैं। लोकतंत्र का पाठ यही है कि सबसे आखिरी आदमी की चिंता होनी ही नहीं, दिखनी भी चाहिए। राहुल ने इस मंत्र को पढ़ लिया है। वे परिवार के तमाम नायकों की तरह चमत्कारी नहीं है। उन्हें पता है वे कि नेहरू, इंदिरा या राजीव नहीं है। सो उन्होंने चमत्कारों के बजाए काम पर अपना फोकस किया है। शायद इसीलिए राहुल कहते हैं-“ मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी। ” राहुल की यह विनम्रता आज सबको आकर्षित कर रही है पर जब अगर वे देश के प्रधानमंत्री बन पाते हैं तो उनके पास सवालों और मुद्दों को चुनने का अवकाश नहीं होगा। उन्हें हर असुविधाजनक प्रश्न से टकराकर उन मुद्दों के ठोस और वाजिब हल तलाशने होंगें। आज मनमोहन सिंह जिन कारणों से आलोचना के केंद्र में हैं वही कारण कल उनकी भी परेशानी का भी सबब बनेंगें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनके प्रति देश की जनता में एक भरोसा पैदा हुआ है और वे अपने ‘गांधी’ होने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं।

14 COMMENTS

  1. श्रीमान जी , राहुल गाँधी एक ऐसा चेहरा है जिसकी ब्रांडिंग की जा रही है, वास्तव में उनके पास गाँधी उपनाम होना ही उनकी सबसे बड़ी पूंजी है. वो हर उस मुद्दे पर बात करते है जिससे उनको फायदा हो लेकिन किसी भी गंभीर विषय पर बोलने से बचते है,

    मौजूदा सरकार की नाकामियो का ठीकरा तो एक दिन मनमोहन सिंह के सर पर फूटेगा ही.

  2. Rahul Gandhi is a bhondu. Everyone knows it. Even Congress leaders know it. They also know that the only way they can remain in power is if this bhondu becomes the PM. Actually they are least interested in this bhondu becoming a PM. They are more interested in themselves becoming a minister. None of the Congress leaders has to guts to challenge this fellow. They remember what had happened to Pranab Mukherjee when he had challenged Rajeev Gandhi in 1984-85. Congress chamchas had literally lifted Pranab Mukherjee and thrown him in the air in 100th annivesary celebration of Congress in Mumbai.

  3. महाशय जी आप अपने युवराज के हाथों में जादू की छडी थमा लाचार प्रधानमंत्री डा: मनमोहन सिंह के झुके कन्धों पर खड़ा कर सदियों से शोषित भारतीयों को दिखा रहे हैं| यदि आप लिखते हैं तो अवश्य पढ़ा होगा कि लगभग चालीस वर्ष पहले जब आप स्वयं अभी प्रारंभिक स्कूल में होंगे तब १९७१ में युवराज की दादी ने गरीबी हटाओ का नारा लगाया था| उन्होंने यह भी कहा था कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है| समय लगेगा| तब से बढ़ती जनसँख्या में गरीबी ने पूरा साथ दिया है| कभी कम नहीं हुई| भारत से अंग्रेजों के प्रस्थान हुए तिरेसठ वर्षों के बीच उनके कथित प्रतिनिधि कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र के साथ साथ उसके नेताओं के चेहरों में कई बदलाव आये हैं| आपका युवराज बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर चाहे कोई बात न करे, वह भोपाल त्रासदी पर चाहे कुछ नहीं कहे, वह काश्मीर के सवाल पर चाहे खामोश रहे, वह मणिपुर पर चाहे खामोश रहे, वह परमाणु करार पर चाहे खामोश रहे, वह अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चाहे चुप रहे, वह आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी चाहे खामोश रहे क्योंकि यह उसकी विशेषाधिकृत सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखे या न रखे| गरीबी और अज्ञानता में पल रहे अधिकतर भारतीयों के शरीर के साथ साथ उनकी आत्मा भी इतनी क्षीण हो गई है कि कथित आज़ादी के तिरेसठ वर्षों बाद भी अपने अच्छे बुरे का विचार किये बिना भारत में गुलामी की परम्परा को बनाए रख रहे हैं| आप पढ़े लिखे हैं और यदि आपको उपरोक्त भयंकर स्थितियों पर कोई अचम्भा नहीं होता है तो कोई दूसरा क्योंकर आपत्ति व्यक्त करेगा? आप व्यर्थ में युवराज चालीसा गा रहे हैं| कर दो राज्याभिषेक!

    Reply

  4. वाह यारा! हिन्दी में अलग लिखा हुआ यहाँ कॉपी नहीं होता. कामाला है भूषन जी का . अब अपनी कुण्डली यहाँ बनाने का प्रयत्न करता हूँ.
    भारत का दुर्भाग्य है, लोकतंत्र के नाम. वंशवाद ही बढ़ रहा अब राहुल के नाम.
    अब राहुल के हाथ देशा की बागडोर है.देश-विदेश का प्रश्न गौण भेडो की होD है.
    कहा साधक काबा जागेगा जमीर भारत का. राहुल गाधी सौभाग्य है अब भारत का.

  5. मतदान प्रक्रिया:
    (१) जनता भोली होती है। वह प्रतीति perception (जो प्रतीत होता है)पर मत देती है।अनजाना, पर ठोस रचनात्मक काम, उसे मालूम नहीं होता। इस लिए वास्तविक ठोस काम पीछे रह जाता है।
    और बिका हुआ मिडीया यह झूठी (perception), प्रतीति करवाने का ठेका ले कर ऐसे खोखले व्यक्तित्व को ही बढावा दे सकता है।
    अर्थ:=> सभी कुछ इस Perception (प्रतीति) पर निर्भर करता है। राहुल किसी दलित आंगनमें झाडू लगाए, तो समाचार बन जाएगा।
    “फोटु” के बाद, कार में बैठकर वापस। भोली जनता फिरसे ठगी जाएगी।
    (२) राहुल बाबा इतने भारतीय हैं, तो वेनेझुएला की ह्वेरोनिकासे विवाह क्यों रचने की सोच रहे हैं?
    (३) इससे विपरित, एकल विद्यालय के कार्यकर्ता कहां कहां पैदल जाकर, आदिवासी/वनवासी बालकोंको शिक्षा दे रहे हैं।२७ हज़ार “गांधी”-एकल विद्यालय चला रहे हैं।इनका “फोटु” लेने कोई मिडीया दौडकर नहीं जाएगा।क्यों कि, बंद लिफाफा नहीं मिलेगा।
    यह तो Tip of the iceberg हैं। (www.ekalvidya.org/) देखिए।
    ऐसे तो बहुत सारे प्रकल्प हैं।लगता है, मिडीया ही जयचंद है। जयचंदोंकी चांदी है।
    (४) एक विनोद करें? क्या मैदान में उतरा ‘गांधी’ शाखा लगाके दिखाएगा?बहुत सारी शाखाएं मैदानो में ही लगती है।
    या एकल विद्यालय जैसा, एक विद्यालय चलाके दिखाएगा?
    (प्रवक्ता ठीक तरहसे पढे, उचित लगे, तो, काटे,या छापे)

  6. I am subscribed; but same is not recorded herein. ( 7th Response at 5:13 PM 01-09-2010)

    I have noticed the above fact and I thought that I should point out this to Subscription Manager.

    Thanks.

  7. संजय जी अपने तो कलम ही तोड़ दी ,लेकिन मेरी समझ से राहुल अवसर खो चुके है क्योकि कांग्रेस की हालत पतली है.अभी राजस्थान के चुनाव में यह दिखा भी बिहार में कोई बहुत उम्मीद नहीं किया जा सकता रहा उत्तर प्रदेश का चुनाव तो उसमे भी मीडिया ही अधिक हल्ला केर उन्हें श्रेय देता रहा है,जबकि वास्तविकता यह है कि यहाँ कांग्रेस की जीत समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के नकारात्मक मतों से हुई थी अगेर कल्याण सिंह फास्टर नहीं होता तो कांग्रेस को आते-दल का भाव पता चल जाता,मुलायम सिंह का गादित गलत हो गया इसका फायदा कांग्रेस को मिला लेकिन उसके बाद क्या हुआ उपचुनावों कि चर्चा क्यों नहीं करते जहा कांग्रेस के केन्द्रीय मंत्रियो तक के चुनाव चेत्र में कांग्रस बुरी तरह हारी मात्र १ सीट वह भी लाल जी टंडन कि नाराजगी के चलते मिली.उसके बाद विधान परिषद् के चुनाव में अमेठी में कांग्रेस किओ सबसे कम वोते मिले फिर सिध्धार्थ नागेर में तो लीं मुसलमानों के वोट का दावा करते है उसी कि पासे पार्टी के भी नीचे तीसरे स्थान से संतोष किया सुनते है कि वह जो यूथ कांग्रेस के राहुल ब्रिगेड के फोटो पहचान वाले सदस्यों के आधे भी कांग्रेस को वोते नहीं दिए.आखिर मीडिया किस अधर पैर यह दावा केर रहा है समझ से परे है.और यह भी नहीं भुलाना चाहिए कि राजीव गाँधी तीन चौथाई बहुमत को भी अगले चुनाव तक नहीं कायम रख सके .और सबसे बड़ी बात कि बगर सहयोगियो के सर्कार बन नहीं सकती और क्या गारंटी कि फिर कोई मुलायम माँ-बेटे के सपनो को चकनाचूर करने को खड़ा हो जाय आखिर मुलायम ने सोनिया माँ का २७२ के बहुमत क़ी हवा निकल ही दिया और जिनगी भर के लिए त्याग क़ी देवी बनने को बाध्य केर दिया. इसी तरह इंदिरा गाँधी भी ७१ में गरीबी हटाओ के नारे के साथ दो तिहाई बहुमत से जीत केर आई लेकिन हालत क्या बने बताने क़ी जरुरत नही pure desh को bhogana oada और कांग्रेस को satta से भी hath dhona pada .

  8. मैदान में उतरा ‘गांधी’
    देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों के उत्तर भी तलाशें राहुल
    – by -संजय द्विवेदी

    वर्तमान केंद्रीय मिलिजुली सरकार और कांग्रेस पार्टी के भीतर जो नीति दिशा के अंतर जनता को देखाए जा रहा हें, वह एक समझी सूझी रण नीति है.

    सभी जन-विरोधी नीति के लिए मनमोहन सिंह सरकार उत्तरदायी और
    राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के लिए वे मामले चुने हैं जो आम आदमी के हित के हैं।

    असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से।

    राजीव गांधी अपनी ऐसी मोहिनी छवि के निर्माण में सफल हुए हैं। वह
    आखिरी आदमी की चिंता करते अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं।

    सबसे आखिरी आदमी की चिंता दिखनी चाहिए।

    युवराज को promote करने का यह प्रयास सफल होता दिख रहा है. ठीक कहा है
    राजीव गाँधी अपने ‘गांधी’ होने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं।

    मुन्ना भाई निर्धारित नीति के अंतर्गत गरीब के घरों में खाना खाने के प्रोग्राम में व्यस्त रहेगा.

    कठिन सवालों के उत्तर तलाशना राहुल का काम नहीं है. इसके लिए चमचे जो हैं.

  9. मध्याविधि चुनाव तो होने वाले नहीं है…………………और समान्य चुनाव को कई साल है………………फिर समझ नही आया

  10. महाशय जी आप अपने युवराज के हाथों में जादू की छडी थमा लाचार प्रधानमंत्री डा: मनमोहन सिंह के झुके कन्धों पर खड़ा कर सदियों से शोषित भारतीयों को दिखा रहे हैं| यदि आप लिखते हैं तो अवश्य पढ़ा होगा कि लगभग चालीस वर्ष पहले जब आप स्वयं अभी प्रारंभिक स्कूल में होंगे तब १९७१ में युवराज की दादी ने गरीबी हटाओ का नारा लगाया था| उन्होंने यह भी कहा था कि उनके पास कोई जादू की छड़ी नहीं है| समय लगेगा| तब से बढ़ती जनसँख्या में गरीबी ने पूरा साथ दिया है| कभी कम नहीं हुई| भारत से अंग्रेजों के प्रस्थान हुए तिरेसठ वर्षों के बीच उनके कथित प्रतिनिधि कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र के साथ साथ उसके नेताओं के चेहरों में कई बदलाव आये हैं| आपका युवराज बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर चाहे कोई बात न करे, वह भोपाल त्रासदी पर चाहे कुछ नहीं कहे, वह काश्मीर के सवाल पर चाहे खामोश रहे, वह मणिपुर पर चाहे खामोश रहे, वह परमाणु करार पर चाहे खामोश रहे, वह अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चाहे चुप रहे, वह आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी चाहे खामोश रहे क्योंकि यह उसकी विशेषाधिकृत सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखे या न रखे| गरीबी और अज्ञानता में पल रहे अधिकतर भारतीयों के शरीर के साथ साथ उनकी आत्मा भी इतनी क्षीण हो गई है कि कथित आज़ादी के तिरेसठ वर्षों बाद भी अपने अच्छे बुरे का विचार किये बिना भारत में गुलामी की परम्परा को बनाए रख रहे हैं| आप पढ़े लिखे हैं और यदि आपको उपरोक्त भयंकर स्थितियों पर कोई अचम्भा नहीं होता है तो कोई दूसरा क्योंकर आपत्ति व्यक्त करेगा? आप व्यर्थ में युवराज चालीसा गा रहे हैं| कर दो राज्याभिषेक!

  11. pankaj jha ka prshn bahut kathin nahin hai .bharat ki dhartee nipootee nahin hai .jahan tk pariwarwad ka aarop hai to pahle yh bhi nirnay hona chaiye ki desh ke bade poonjipati ka beta poonji pti nahin hoga ;afsar ka beta afsar nahin chaprasi hoga or sekdon ekad jameen ke maalik ka beta narega ki majdoori karega to hi hm yh kah sakenge ki raajneetigy ka beta raajneetigy nahin hoga .ydi uprokt kjo visheshadhikar hai to rahul ko bhi adhikar hai or priyanka badhera or anya ko bhi .

  12. बहुत बढ़िया संजय भाई ;आपकी परिष्कृत परिपक्व लेखनी को बधाई .
    आपने राहुल गाँधी को -राज्य आरोहन से पूर्व जिन चुनोतिओं के बरक्स्स
    पूर्णतह लेस होने की आवश्यकता जताई -उनमें एक दो बहुत जरुरी बातें और भी हैं .
    एक -भारत की विदेश नीति {अ }पकिस्तान से सम्बंधित .{b }cheen से सम्बंधित .{c}amerika से सम्बंधित .दो -desh की aarthik नीति .teen -bhrushtachaar से jung .
    yh sb pahle से hi tay ho और poora desh ekjut hokar nai pahchan के liye saanskrutik -samajik uthaan के liye sangharsh kare to hi राहुल ji safal ho sakenge akele unko chane के jhaad pr chadhane से कुछ nahin hoga .

  13. आदरणीय संजय द्विवेदी जी…
    आपने टिप्पणी करने को मजबूर कर दिया जी…

    1) “…आखिरकार राहुल गांधी ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं और इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं है…”

    — स्वाभाविक नेतृत्व?, बेचारे प्रणब मुखर्जी, 77 समितियों के अध्यक्ष हैं, सरकार की हर परेशानी को हल करते हैं, लेकिन “नेतृत्व” नहीं हैं सिर्फ़ एक “नौकर” हैं… क्योंकि मैडम उनकी प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा से परिचित हैं… 🙂

    2) “…उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं…”

    — सत्ता के प्रति आसक्ति नहीं है? अच्छा? और “इंतज़ार” तो वे मौके का कर रहे हैं कि कब और कैसे सारी गलतियों का ठीकरा मनमोहन के माथे फ़ोड़कर एक साफ़सुथरे और जादूगर युवराज की तरह गद्दीनशीन हो सकें…

    3) “…यह अकेली दिग्विजय सिंह की नहीं कांग्रेस की सामूहिक सोच है…”

    — हा हा हा हा हा हा, कांग्रेसी सोचते भी हैं… 🙂

    4) “…राहुल कहते हैं-“ मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी। ”

    — उनके पिता के पास भी कहाँ था, अचानक हवाई जहाज से लाकर भारत के सिर पर पटक दिये गये थे…

    5) “…वे अपने ‘गांधी’ होने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं…”

    — अवश्य करवायेंगे, बल्कि मीडिया को इसीलिये खरीदा गया है और माहौल बनाया जा रहा है, ताकि यह चेक कभी गलती से “क्लियरिंग” में अटक भी जाये तो वीटो पावर से कैश करवाया जायेगा…

    6) “…राहुल बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं…”

    — सिर्फ़ यही एक बात पूरे लेख में सही कही आपने… यही राहुल बाबा का असली भोंदू चेहरा है… 🙂

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