मनुष्य के जीवन यापन में पर्यावरण का अपना एक अहम योगदान होता है | एक बेहतर और स्वस्थ्य जीवन के लिए हमारे पर्यावरण का भी शुद्ध व साफ़ होना जरूरी है लेकिन आधुनिकीकरण के दौर में इंसान अपने मूल जरूरत और साथी पर्यावरण को दरकिनार करते हुए आधुनिकीकरण की रेस में अंधा दौड़ का हिस्सा बन चुका है | आज इन्सान ने जीवन के मायने ही बदल लिए है, मानो विज्ञान और विकास के आगे प्रकृति को नतमस्तक कर देना चाहता हो | कई विद्वानों ने किताबों में पर्यावरण को परिभाषित करते हुए इसे मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण इकाई बताया है | बच्चो को स्कूली शिक्षा में ही पर्यावरण के महत्व से रूबरू कराने की कोशिश की गयी लेकिन मौजूदा स्तर यह है कि मानो इंसान को पर्यावरण और उसकी महत्ता के मायने ही न पता हो |
डॉ डेविज के अनुसार- “मनुष्य के सम्बन्ध में पर्यावरण से अभिप्राय भूतल पर मानव के चारों ओर फैले उन सभी भौतिक स्वरूपों से है। जिसके वह निरन्तर प्रभावित होते रहते हैं। डडले स्टेम्प के अनुसार- “पर्यावरण प्रभावों का ऐसा योग है जो किसी जीव के विकास एंव प्रकृति को परिस्थितियों के सम्पूर्ण तथ्य आपसी सामंजस्य से वातावरण बनाते हैं।”
इस प्रकार पर्यावरण को कई अलग अलग मायने में परिभाषित किया गया है और इसमें पाया गया है कि मनुष्य का पर्यावरण के बिना कोइ अस्तित्व ही नही है | मनुष्य कितना भी आधुनिक हो जाय, मशीनों पर निर्भर हो जाय लेकिन उसका पर्यावरण से हमेशा जुड़ाव रहता है, चाहे वह जुड़ाव भौतिक / प्राकृतिक, जैविक या सामाजिक रूप से हो | प्रायः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण के जैव और अजैव तत्व समूह मानव जीवन को प्रभावित करते रहते है |
शहरी क्षेत्रों के भौतिक विस्तार मसलन क्षेत्रफल, जनसंख्या जैसे कारकों का विस्तार शहरीकरण कहलाता है। शहरीकरण भारत समेत पूरी दुनिया में होने वाला एक वैश्विक परिवर्तन है। संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक़ ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का शहरों में जाकर रहना और वहाँ काम करना भी ‘शहरीकरण’ है। ‘न्यू इंडिया ’ पहल को आगे बढ़ाने की दिशा में शहरी बुनियादी ढाँचों में सुधार के लिये शहरीकरण के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने की प्रक्रिया अपनाई जा रही है। वहीं ग्रामीण या छोटे कस्बों में रहने वाले लोगों का भी रुझान शहर की तरफ बढ़ रहा है | ऐसे में शहरी क्षेत्रों में दिन –प्रतिदिन आबादी भी बढ़ती जा रही है | वहीं छोटे कस्बों व नगरों का विकास मॉडल शहरी सुख सुविधाओं और व्यवस्थाओं के तर्ज पर तय किया जाता है | मौलिक जरूरतों से इतर भौतिकवादी सांचे पर लोगों का ध्यान होता है, जहां इंसान अपना नजदीकी फ़ायदा देखते हुए दूर के नुकसान को नही ध्यान दे पा रहा है |
आज आधुनिकता के दौर में इंसान जितने सुख सुविधाओं से व्याप्त है या उसे अर्जित करने के पीछे पड़ा हुआ है, उतनी ही समस्याएं और रोग-विकार भी मानव जीवन में बढ़ते जा रहे हैं | इसका एक बड़ा कारण पर्यावरण विघटन भी है | आज आधुकिनता और विकास के नाम पर तेजी से शहरीकरण हो रहा है, जिसका पर्यावरण पर सीधा प्रभाव पड़ रहा है | आज देश के अधिकतर राज्यों के कई हिस्सों में जंगल पूरी तरह से गायब है, नदियाँ सूख चुकी हैं, लोग चट्टानें काट रहे हैं, पहाड़ो पर घर बसा रहे हैं, पेड़ो को काटकर हाईवे बनाए जा रहे हैं, वायु को प्रदूषित कर रहे है, ऐसे कई ढेर सारे मुद्दे हैं, जो पर्यावरण से छेड़-छाड़ कर रहे है, उसे अपना रौद्र रूप दिखाने को उकसा रहे हैं | मानव द्वारा किया जाने वाला यह कृत खुद के पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है | विकास के नाम पर प्रकृति को नुकसान पहुंचाया जा रहा है लेकिन उसकी भरपाई कैसे करनी है, पर्यावरण का संतुलन कैसे बनाए रखना है? इस पर विचार नही किया जा रहा है |
छोटे नगरों व कस्बों में शहरीकरण और विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई की जा रही है | हम अपने इर्द गिर्द इसके कई उदाहरण देख सकते हैं, जैसे कि सड़को को चौड़ा करने की प्रक्रिया में हजारों पेड़ काट दिए जाते हैं, जिन्हें विशाल रूप लेने में सालों लग गये होते हैं | वही उनकी भरपाई के तौर पर कुछ पेड़ भी लगा दिए जाते हैं लेकिन वास्तविकता में वे अधिकतर पेड़ कागजों पर ही रह जाते हैं | अक्सर किसी नॅशनल हाईवे से गुजरते हुए लेन के बीच में कनेर, गुड़हल जैसे आदि छोटे-मोटे पौधे देखने को मिल जाएंगे| दरअसल ये वास्तव में तो पौधे होते हैं लेकिन सरकारी आकड़ों में पेड़ों में गिनती के बराबर ये होते है | क्योकिं अक्सर इसी तरह के हाईवे निर्माण में एक लगातार हजारों या लाखों पेड़ो की बलि चढ़ाई जाती है और उनके बदले इन नन्हे पौधों को खड़ा कर दिया जाता है, जो हमारे समाज द्वारा फैलाए गए भारी वायु प्रदूषण और कार्बनडाई आक्साईड का सामना करने के लिए तैयार भी नही होते है | ऐसे में शहरीकरण के नाम पर पर्यावरण को होने वाले भारी क्षति को हम नजरअंदाज कर रहे हैं |
वहीं पहाड़ी क्षेत्रों में पर्यटन बढ़ रहा है, आबादी बढ़ रही है, ऐसे में पहाड़ी क्षेत्र के तटों पर रहने वाले लोग अब पहाड़ों के शीर्ष तक पहुँचने लगे हैं | पहाड़ों पर लोग अपना आशियाना बना रहे हैं, जो दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है | ऐसे में प्रकृति से छेड़-छाड़ होना सामान्य है, क्योकिं पहाड़ों को काट कर वहां पक्के घर बनाए जा रहे हैं, व्यवसाय के अवसर तलाशे जा रहे हैं | जैसे जैसे इंसान पहाड़ों, जंगलों और प्रकृति को चोट पहुंचा रहा है, वैसे-वैसे पर्यावरण मानव जीवन के लिए असंतुलित होता रहा है | कभी शोर-शराबे वाले शहरों से लोग पहाड़ों पर शान्ति व सुकून की तलाश में जाते थे लेकिन आज अधिकतर पहाड़ी क्षेत्रों में सुकून खोजते थक जाते हैं क्योकि वहा भी मानव ने अपने लोभ व स्वार्थ के चक्कर में पर्यावरण को दूषित कर दिया है और लगातार क्षति पहुँचाया जा रहा है | आज पहाड़ों पर भी लम्बी चौड़ी सड़कें बनाने और शहर बसाने की कोशिश हो रही है, जिससे आए दिन पहाड़ो के खिसकने और मृदा अपरदन जैसी खबरे सुनने को मिलाती रहती है | लगातार प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है, बड़े-बड़े कारखाने स्थापित किए जा रहे हैं, जिसके कारण वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण लगातार बढ़ रहा है और प्राकृतिक संसाधनों का मूल रूप प्रभावित हो रहा है |
छोटे कस्बों व नगरों के शहरी रूप लेने और शहरों के विस्तार के साथ वहां रोजगार की संभावनाएं भी बढ़ती हैं | रोजगार की तलाश में ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्र से लोग शहरों की तरफ विस्थापित होते हैं और अपना आशियाना बसाने की कोशिश करते हैं और कुछ वहीं ताउम्र ठहर जाते है | ऐसे में बढ़ती आबादी के साथ बिजली, पानी और आम प्राकृतिक संसाधनों की भी आवश्यकता बढ़ती जाती है और उन्हें पूरा करने के लिए प्रकृति का दोहन भी थोडा थोड़ा करके शुरू हो जाता है, जिसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण पर होता है |
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान में दुनिया की आधी आबादी शहरों में रह रही है। वर्ष 2050 तक भारत की आधी आबादी महानगरों व शहरों में निवास करने लगेगी। वही एक दूसरी संस्था ऑक्सफोर्ड इकॉनोमिक के अध्ययन के मुताबिक (drishtiIAS में प्रकाशित) वर्ष 2019 से लेकर वर्ष 2035 के बीच सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले सभी शीर्ष दस शहर भारत के ही होंगे। विश्व बैंक की वर्ष 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत का शहरीकरण ‘Hidden And Messy’ अर्थात अघोषित एवं अस्त-व्यस्त है। भारत का शहरी विस्तार देश की कुल आबादी का 55.3% है परंतु आधिकारिक जनगणना के आँकड़े इसका विस्तार केवल 31.2% ही बताते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में 53 ऐसे शहर हैं जिनकी आबादी 10 लाख से अधिक है। इसके अलावा देश की राजधानी दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, बंगलूरू और हैदराबाद जैसे महानगर हैं जिनकी आबादी लगातार बढ़ रही है। लोग बेहतर भविष्य की तलाश में यहाँ पहुँचते और बसते रहते हैं।
भारत के जनसंख्या आयोग ने 15वीं जनगणना के दूसरे दौर के जो आंकडे़ जारी किए हैं उनके मुताबिक भारत तेज़ी से शहरीकरण की ओर बढ़ रहा है | आज तीन भारतीय में से एक भारतीय शहरों और कस्बों में रहने लगा है | 2001 आंकडों के अनुसार तक भारत की आबादी का 27.81% हिस्सा शहरों में रहता था पर 2011 तक इनकी तादाद बढ़कर 31.16% तक पहुँच गई | वहीं अगर सेटेलाइट से मिली तस्वीरों को आधार बनाया जाए तो दो तिहाई यानी 63% भारत शहरी नज़र आएगा। शहरीकरण का ये दौर अचानक नहीं बढ़ा है बल्कि इसमें सालों लगे है | 1991 में 25.71 फ़ीसदी लोग शहरों में थे और दस साल पहले यानि 1981 में ये आंकड़ा 23.34 फ़ीसदी का था | ऑक्सफोर्ड इकोनॉमिक्स के एक स्टडी के मुताबिक़ साल 2019 और 2035 के बीच सबसे तेजी से बढ़ने वाले सभी शीर्ष 10 शहर भारत में हैं।
दिन प्रतिदिन या तो लोग छोटे कस्बों से शहरो की तरफ विस्थापित हो रहे हैं या नगरो का वृहद् स्तर पर विस्तार किया जा रहा है |
शहरीकरण का एक मुख्य कारण बेरोजगारी, जीवन यापन और बेहतर सुविधाएं पाने की लालसा है | ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी अधिकतर परिवार संयुक्त रूप से रहता है, जहां जीवन यापन के लिए खेती- बाड़ी के अलावा शायद ही दूसरे संसाधन मौजूद होते है, जिसके कारण अधिकतर लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं और शहरों की आबादी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है | वहीं शहरीकरण की प्रक्रिया में पर्यावरण को हानि पहुँचाने में बढ़ती आबादी का भी हाथ है |
शहरीकरण के कारण पर्यावरण में होने वाला अनिश्चित बदलाव मानव जीवन के घोर त्रासदी की तरफ बढ़ रहा है | समय समय पर पर्यावरण संरक्षण को लेकर कुछ संस्थाए तमाम कदम उठाने की कोशिश करती है, लोगों को जागरूक करने की कोशिश करती है लेकिन अभी भी हम पर्यावरण को संरक्षित करने में नाकाम साबित हो रहे हैं | दरअसल इंसान अपने सुख सुविधाओं के लिए जैसे-जैसे नए मशीनरी और तकनीक की तरफ बढ़ रहा है, वैसे वैसे वह प्रकृति से दूर होता जा रहा है, उसके मूल को भूलता जा रहा है | ऐसे में छोटे स्तर पर निरंतर होने वाली क्षति एक दिन विकराल रूप ले लेती है और भूकंप, बाढ़, ज्वालामुखीय विस्फोट, दिन पर दिन तपती गर्मी, सूखा जैसे अनेक आपदाओं और असमान्य मौसम का हमें सामना करना पड़ता है | यह उन प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्याओं में से एक है जो वनोन्मूलन, चट्टानों का डायनामाइट विस्फोट, निर्माण कार्य, कम्पन इत्यादि जैसे मानव क्रियाकलापों का परिणाम है।
पर्यावरण में असामान्य बदलाव और पर्यावरण विघटन एक ऐसा मुद्दा है, जिसकी समस्या की जड़ और समाधान दोनों मनुष्य स्वंय है | अपनी बेतहाशा जरूरतों के अनुरूप मनुष्य आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल कर रहा, काम को आसान बनाने के लिए फैक्टरियाँ स्थापित कर रहा, गाँव को नगर और नगर को बड़े शहर में तब्दील कर रहा है लेकिन कभी भी उसकी भरपाई के बारे में नही सोचता | जिस पेड़ पहाड़ को काटकर हमने उसे सपाट बनाया और उसपर बड़ी इमारतों की जड़े हमने मजबूत की उनके मूल जरूरतों और प्रकृति के बारे में इंसान नही सोचता | दरअसल हम उसकी जड़ो को धीरे धीरे कमजोर करते जा रहे है, जिसका खामियाज़ा हमें तुरंत देखने को नही मिलता, बल्कि कुछ सालों बाद या यूं कह लें कि हम अपनी आने वाली पुश्तो को भुगतना पड़ता है |
आज हम प्रकृति की गोंद में बैठ कर प्रकृति से ही खिलवाड़ कर रहे है | प्रकृति उस माँ के समान है जो अपने बच्चे द्वारा तमाम कष्ट होने और अनगिनत गलतियों के बावजूद उससे शिकायत नही करती और उसे बर्दाश्त करती रहती, सम्भाल कर रखती है | लेकिन एक उम्र के बाद हमारा भी दायित्व होता है कि अब हम उस माँ का भी बराबर ख्याल रखें, उसे सहारा दे, अन्यथा हम उसे खो देंगे | उसी प्रकार हमें भी आज अपने प्रकृति / पर्यावरण का ध्यान रखने की जरूरत है, अन्यथा समय समय पर होनी वाली ये छोटी त्रासदी एक दिन रौद्र रूप धारण कर लेगी |
आज अधिकतर शहरो में इंसान शुद्ध हवा और साफ़ पानी के लिए भी संघर्ष कर रहा है, इसकी वजह बेतहाशा बढ़ती प्रदूषण और खनन है | इस अंधाधुंध रफ़्तार में अगर हम एक पल के लिए भी सब छोड़कर बैठे और सोचें कि हमने कया हासिल किया तो इस तथाकथित आधुनिक समाज में हमारे उपलब्धियों की फेरिहस्त बहुत लम्बी हो लेकिन उसी पल हम इमानदारी से सोचें कि इस बड़ी-बड़ी इमारतों, चौड़ी सड़कों, गाड़ियों के मेले और बड़े-बड़े फैक्टरियों से हमने क्या खोया तो निश्चित तौर पर एक समय बाद महसूस होगा कि हमने सुकून व शांति खोया | दरअसल हमने वह सुकून व शांति खोया जो हमें प्रकृति की गोंद में जाकर शुद्ध वातावरण के नजदीक होने से मिलता था न कि बड़ी-बड़ी इमारतों व सुविधाओं से |
आज शहरीकरण का स्वरूप भी बदल रहा है, आज यह रोजगार और व्यापार का एक हब बनकर तैयार हो रहा है, जहां लोग व्यवसाय तो कर रहे लेकिन अब धीरे धीरे शोर-शराबे और भीड़-बाद से इतर शहर के बाहर के कालोनियों और सोसाईटी में रहना पसंद कर रहे हैं | इसका कारण शहर में वायु प्रदूषण का बढ़ना है, जिससे तमाम तरह की बीमारियाँ उत्पन्न हो रही है, लोगो को मानसिक तनाव व चिडचिडापन का सामना करना पड़ रहा है | लोगो के पास खुली हवा में बैठेने को जगह नही है | आज देश की राजधानी दिल्ली में वायु प्रदूषण लगाम लगाने के लिए तमाम कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन फिर भी उसमें पूर्ण रूप से सफलता नही मिल पा रही है |
शहरीकरण की प्रक्रिया में पर्यावरण को हानि कई रूपों में हो रही है | जैसे जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, मृदा प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, रेडियोधर्मी प्रदूषण आदि | इसके कारण है कि मनुष्य अपनी जरूरतों के अनुरूप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर रहा है और अपनी उपयोग में आने वाली चीजों का बराबर ध्यान दे रहा हैं लेकिन उसके वेस्ट/ खराब पदार्थो को इधर-उधर फेक दे रहा है, जिससे तमाम तरह के प्रदूषण फ़ैल रहें हैं | मनुष्य के द्वारा वेस्ट / अनुपयोगी समझे जाने वाले पदार्थो को प्रकृति संभालने और उपयोगी बनाने का काम करती है, जिससे पर्यावरण प्रभावित हो रहा है | वास्तव में शहरीकरण की प्रक्रिया किसी शहर या नगर के विस्तार होने और नये सुख सुविधाओं के स्थापित होने तक ही नही समाप्त हो जाती बल्कि उसके बाद वहां रहने वाले लोगों के रहन-सहन, खान-पान और मानसिक बदलाव पर भी निर्भर करती है, जो निरंतर चलाती रहती है | शहर के तथाकथित आधुनिक समाज का रहने का अपना एक अलग ढंग है, जिसे शहर में आने वाला व्यक्ति भी धीरे धीरे उसे स्वीकार करने लगता है | शहरो में खाने से लेकर पहनने तक का अपना एक अलग तरीका है, जिसे हम स्टाईल कहते है | जैसे हर घर में एसी, फ्रीज हर काम के लिए एक निश्चित मशीन जो कि कहीं न कहीं वायु को प्रदूषित करने के लिए पर्याप्त है | वहीं अधिकतर सामानों के लेन-देन के लिए प्लास्टिक का उपयोग करना जो कि मृदा प्रदूषण का कर्ण बन रही है | शहरी संस्कृति में ऐसे तमाम दैनिक गतिविधियाँ है, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को हानि पहुंचा रही है |
आज विकास का पैमाना शहरीकरण से तय कर दिया गया है, हालांकि ऐसा नही कि सड़कें न बनाई जाय, शहर न बसाए जाएं, नगरों का विस्तार न हो, कारखाने न स्थापित किए जाए, निश्चित तौर पर होना चाहिए लेकिन उससे होने वाले नुकसान की भरपाई कि योजना भी हमारे पास होनी चाहिए और एक निश्चित सीमा भी | विकास के साथ साथ पर्यावरण के संरक्षण पर भी हमें योजना बनानी होगी | सबसे पहले प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग तक हमें सीमित रहना होगा, उसका दोहन नही होना चाहिए | साथ ही कारखानों से निकलने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने की बेहतर तकनीक खोजना होगा | हमें सोसाईटी और कारखानों को स्थापित करने के लिए जंगलो और पहाड़ों को काटने के बजाय उसके अनुरूप ख़ाका तैयार करने की जरूरत है और कारख़ाने बस्तियों से दूर स्थापित किए जाने चाहिए | आज भी लाखों लोग बेरोजगार है, वही कारखानों में काम करने वाले लोगों की संख्या भी कम हो रही है, क्योंकि उनका स्थान बड़ी मशीनों ने ले लिया है, जिससे प्रदूषण भी बढ़ रहा है | ऐसे में एक बार पुनः मैन पॉवर का इस्तेमाल अधिक किया जाना चाहिए |
हालांकि ऐसे कई ढेर सारे पहलू हैं जिनसे दरकिनार नही किया जा सकता न ही उनसे साफ़ साफ़ मुंह मोड़ा जा सकता है लेकिन उसमें सुधार जरुर लाया जा सकता है, शहरीकरण की प्रक्रिया में अपने जरूरतों और जीवन यापन के तरीके में बदलाव करना होगा | आधुनिकता और शहरी कल्चर के नाम पर अपने कृत से पर्यावरण को गंदा या प्रदूषित करने से बचना होगा, खुद पर नियंत्रण करना चाहिए | क्योकिं शहरीकरण की प्रक्रिया कभी खत्म नही हुई है न ही इंसान उससे संतुष्ट हुआ है, लेकिन इसके परिणाम को ध्यान में रखते हुए पर्यावरण के प्रति भी अपनी जिम्मेदारियों को समझना जरूरी है, जिससे पर्यावरण व प्रकृति के साथ साथ अपने आने वाले भविष्य को भी संरक्षित किया जा सके |