राजनीति

राजनीति में नैतिकता का बाजारभाव

-संजय द्विवेदी

झारखंड में पिछले दिनो से जो कुछ हो रहा है उसके बाद तो यह मान लीजिए कि राजनीति में नैतिकता की उम्मीदें पालना एक ऐसा सपना है जो कभी पूरा नहीं होगा। झारखंड में एक क्षेत्रीय दल के नेता शिबू सोरेन ने आखिरकार यह साबित कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी और उनके दल के चरित्र में कोई बहुत अंतर नहीं है। एक क्षेत्रीय दल ने एक राष्ट्रीय दल की नैतिकता और दोहरेपन की पोल खोलकर रख दी है। किंतु अफसोस यह कि यह सारा कुछ अंततः उस झारखंड की जनता पर ही भारी पड़ रहा है। राजनीति जब मंडी में हो तो वह एक व्यापार बन जाती है। लोकतंत्र की यही त्रासदी है कि वह बाजार में सीधे उतरने की अनुमति नहीं देता। वह लोक के जीवन से जुड़े सवाल उठाता है और जनतंत्र की पैरवी करता है। इसीलिए राजनीति में काम करनेवाले लोंगों को भ्रष्टाचार के चोर दरवाजे तलाशने पड़ते हैं।संसदीय राजनीति अपनी लाख बुराइयों के बावजूद सबसे बेहतर शासन प्रणाली मानी जाती है। कितुं इससे इसकी बुराइयां कम नहीं हो जाती जो हम अपने लोकतंत्र में घटित होते देख भी रहे हैं। राजनीति का अपना चाल चेहरा और चरित्र है लेकिन सैद्घांतिक रूप से तो वह लोगों के लिए ही होती है। लोकतंत्र में यदि जन सहमा और सकुचाया हुआ है तो ऐसे जनतंत्र का मतलब क्या है। जनतंत्र का यही सौंदर्य उसे दुनिया की सबसे खूबसूरत शासन व्यवस्था बनाता है। अगर इस सबसे खूबसूरत व्यवस्था में भी हमें राहत नहीं मिलती तो हमें सोचना होगा कि आखिर ऐसे कौन से तत्व हैं जो हमारे लोकतंत्र को भीड़तंत्र या गुंडातंत्र अथवा पैसातंत्र में तब्दील करने पर आमादा हैं। राजनीति के भीतर अचानक इतनी गिरावट जो दिखने में आ रही है उसके ऐतिहासिक और सामाजिक कारण क्या हैं। हमारे जनतंत्र की व्यवस्था की ऐसी क्या खामियां हैं जो हमें नैतिक होने से रोकती हैं। क्या कारण है कि एक राजनेता के लिए पैसा खुदा हो जाता है। इसके सामाजिक-आर्थिक कारणो की तलाश हमें करनी होगी।

ऐसे क्या कारण हैं कि देश के साठ साल के लोकतंत्र की यात्रा ने हमें इतना थकाहारा और दिशाहारा बना दिया है। राजनीति में मूल्यों के प्रश्न इतने अप्रासंगिक क्यों हो गए हैं। क्यों नैतिकता की राजनीति हमें रास नहीं आती है। राजनीति के इस पक्ष पर सोचने के लिए आज राजनीति ही तैयार नहीं है। मूल्यों और नैतिकता का प्रश्न आज हाशिए पर है। राजनीति के अपराधीकरण और व्यवसायीकरण की संगति ने जो वातावरण रचा है उसमें सारे सवाल हाशिए पर हैं। कभी राजनीति में नेतृत्व जनसंघर्षों से उभरकर सामने आता था और उनके जीवन- आचरण में देश तथा समाज की गहरी समझ दिखती थी। इसी तरह राजनीतिक दलों में वैचारिक एवं राजनीतिक विचारधारा के आधार पर कायर्कताओं को प्रशिक्षित किया जाता था। आज सारा परिवेश ही बदल गया है। राजनीति से विचारधारा, नैतिकता औऱ मूल्यों का लोप हो गया है। आपातकाल के बाद से शुरू हुई राजनीतिक गिरावट निरंतर जारी है। जीतने वाले प्रत्याशियों की तलाश ने वातावरण को और बिगाड़ दिया। कहीं से राजनीतिक कार्यकर्ता के संघर्ष,जनमुद्दों के प्रति उसकी समझ, उसके अतीत और वर्तमान पर चर्चा के बजाए राजनीतिक दलों की सोच यही रहती है कि चुनाव कौन जीत सकता है। अपराधी, व्यापारिक घरानों के दलालों,जातीय समीकरणों के अनूकूल पड़नेवालों की इसी में लाटरी खुल गई। ऐसे-ऐसे लोग संसद पहुंचे जिन्हें देखकर देश की जनता के पास शर्मशार होने के अलावा क्या बचता है। बाजार सज गए और इन्हीं बाजारों में राजनीतिक दलों के टिकट खरीदे जाने लगे। यही लोग टिकट पाने के बाद चुनाव जीतने के लिए वोट को भी खरीदने लगे। धौंस जमाकर वोट मांगने लगे, बूथों पर कब्जे शुरू हो गए। यह राजनीति हमें मुंह चिढ़ा रही थी और हम भारत के लोग इसे देखने को विवश थे। कोई भी राजनीतिक दल यह दावा नहीं कर सकता कि उसने आज तक अपराधियों को टिकट नहीं दिया। पैसेवालों की बन आई जो सीधा चुनाव जीतकर नहीं जा सकते थे उनके लिए राज्यसभा की टिकट देने के लिए राजनीतिक दल तैयार बैठे थे। राज्यसभा के चुनावों में भी वोटों के खरीद-फरोख्त के किस्से भी सुनने में आए।गिरावट चौतरफा थी, समाधान नदारद थे। राजनीति की मंडी सज चुकी थी। खरीददारों का इंतजार था। ये हालात कब बदलेंगें कहा नहीं जा सकता। संसद तक रूपयों की बंडल का पहुंच जाना गिरावट का चरम ही है। इन हालात में हमें अपने लोकतंत्र की पवित्रता की रक्षा के लिए सोचना होगा। आखिर कुछ लोगों के चलते यदि हमारा लोकतंत्र,हमारी संसद कलंकित हो रही है तो हमें अपनी व्यवस्था में ही वे यत्न करने होंगें ताकि ऐसे तत्वों का प्रवेश रोका जा सके। राजनीति देश के भले के लिए है। इस जनतंत्र में यदि आम आदमी की जगह नहीं है तो यह व्यवस्था बेमानी है।लोकतंत्र को सही अर्थों में ज्यादा सरोकारी औऱ ज्यादा संवेदनशील बनाने की जरूरत है। यह रास्ता हमें हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी दिखाते हैं। सही मायनों में गांधी ने ही पहली बार हमारी ताकत, सामूहिकता को साधने का कौशल हमें सिखाया था। वे भारतीय लोक को समझने वाले महापुरूष थे। उन्होंने पहली बार स्वालंबन और स्वदेशी के मंत्र से ताकतवर अंगरेजी सत्ता के सामने एक कड़ी चुनौती पेश की। राजनीति का संकट यह है कि उसने ये मार्ग बिसरा दिया। गांधी, नेहरू, जयप्रकाश नारायण, दीनदयाल उपाध्याय, डा.राममनोहर लोहिया जैसे नायक आज सही अर्थों में हमारी राजनीति के लिए अप्रासंगिक हो गए लगते हैं। इनकी उपयोगिता राजनीतिक दलों के आयोजनों में उनके चित्र पर माला पहनाने और नारे लगाने से ज्यादा नहीं बची है। कुलमिलाकर राजनीति का यह चेहरा बदलने की जरूरत है। देश के राजनीतिक दलों और राजनेताओं को यह सोचना होगा कि यह टूटता जनविश्वास एक बड़ा खतरा है। लोकतंत्र के प्रति लोगों की आस्था बचाए और बनाए रखने के लिए हमें सचेतन प्रयास करना होगा। यही विश्वास और इसका संरक्षण ही हमारे लोकतंत्र को प्राणवान और जीवंत बनाएगा। क्या हमें नहीं लगता कि हम एक ऐसे रास्ते पर खड़े हैं जहां से लौटने का भी रास्ता बंद है।