भारत में बासल II का मूल्यांकन

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बैंकिंग किसी भी अर्थव्यवस्था में सर्वाधिक जोखिम से भरा व्यवसाय है क्योंकि इसमें जनता का धन दांव पर लगा होता है और यह अत्यधिक लेवरेज्ड है । इसी कारण जोखिम प्रबंधन बैंकिंग से अपरिहार्य रूप से जुड़ा है क्योंकि पणधारियों के हितों की सुरक्षा करना अनिवार्य है । दुनिया भर में बैंकों को अभिशासित करने वाली जोखिम प्रबंधन नीतियों में सभी देशों में व्यापक अंतर पाया जाता है, जो बैंकिंग संस्थाओं के वैश्वीकरण में एक गम्भीर बाधा सिद्ध हुआ है । समान स्तरीय नीति-नियमों के अभाव में अंतर्देशीय एवं अंतर्बैंक तुलना करना कठिन हो जाता है ।

इसी स्थिति का विवेचन करने के लिए बासल समिति ने अंतर्राष्ट्रीय रूप से सक्रिय बैंकों के लिए जोखिम प्रबंधन एवं पर्यवेक्षण से सम्बन्धित बैंकिंग नीतियों में एकरूपता लाने के लिए जो समझौता किया, वही बासल समझौता कहलाता है । बासल समिति ने सर्वप्रथम वर्ष 1988 में कुछ दिशानिर्देश जारी किए जिसे बासल प्रथम के नाम से जाना गया । यह पहली बार था जब यह अनुभव किया गया कि किसी भी बैंक को एक न्यूनतम पूंजी रखनी चाहिए जो बैंक को विभिन्न प्रकार की जोखिमों से होने वाले नुकसान का सामना करने में सक्षम हो तथा विभिन्न प्रकार की आस्तियों के लिए भिन्न-भिन्न जोखिम प्रभार होने चाहिए । तत्पश्चात् वर्ष 2004 में बासल समिति ने एक नया समझौता बासल II जारी किया । बासल समिति का यह विचार है कि यह समझौता बैंकों में जोखिम प्रबंधन को मजबूत करने में सक्षम है । इसमें बैंकों के दैनंदिन संचालन में आने वाली सभी प्रकार की जोखिमों के अनुरूप पूंजी पर्याप्तता एवं जोखिम प्रभार निर्धारण के लिए विभिन्न अवधारणाएं बतलाई गई हैं जिनके आधार पर बैंक अपनी जोखिमों का आकलन कर सकते हैं एवं पर्यवेक्षक यह निर्धारित कर सकते हैं कि बैंक द्वारा किया गया जोखिम का आकलन एवं उसके लिए आवंटित पूंजी पर्याप्त है अथवा नहीं । साथ ही यह बैंक की वित्तीय रिपोर्टिंग में पारदर्शिता लाकर बाजार अनुशासन को बढ़ावा देता है ।

basal 2भारतीय बैंकिंग को अधिक समुत्थानशील बनाकर सर्वोत्तम अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के साथ पंक्तिबद्ध करने के लिए आरबीआई ने नब्बे के दशक में बासल । को अपनाया तब भी प्रुडेन्शियल नॉर्म्स, आय निर्धारण, आस्ति वर्गीकरण एवं प्रावधान (Asset Classification and Provisioning) में भारतीय बैंकों को अत्यन्त कठिनाईयों का सामना करना पड़ा था किन्तु अंततः भारतीय बैंकों ने बासल I को सफलतापूर्वक लागू कर दिखाया । अब भारतीय रिज़र्व बैंक ने देशी बैंकों के लिए बासल II को लागू कर दिया गया है । आरबीआई ने सर्वप्रथम बासल II को लागू करने हेतु मार्च 31, 2007 तक की समय सीमा रखी थी जिसका प्रारम्भिक तौर पर विभिन्न बैंकों के प्रबंधन द्वारा कुछ विरोध भी हुआ अतएव भारतीय बैंकों के पूरी तरह तैयार नहीं होने के कारण समय सीमा बढ़ाकर मार्च 31, 2008 कर दी गई ।

प्रारम्भिक विरोध के बावजूद बासल प्रतिमानों की वैश्वीकरण के युग में उपयोगिता अब सभी की समझ में आने लगी है और अधिकांश भारतीय बैंकों द्वारा इन्हें स्वीकृति मिलने लगी है । परिणामतः भारत में परिचालन करने वाले विदेशी बैंकों एवं भारत से बाहर विदेशों में परिचालनगत भारतीय बैंकों ने मार्च 31, 2008 से भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप बासल के संशोधित ढाँचे को अपना लिया है ।

 

बासल II और भारतीय बैंकिंग के लिए अवसर

बासल II के संशोधित प्रतिमान के तहत भारतीय बैंकों में नए पूंजी पर्याप्तता ढ़ाँचे का संशोधित स्वरूप, पर्यवेक्षी समीक्षा प्रक्रिया पर दिशानिर्देश तथा विनियामक पूंजी के भाग के रूप में अधिमानी शेयरों का निर्गम शामिल है । यद्यपि अभी भी बासल II के तहत परिष्कृत पद्धतियों को अपनाने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है और लगभग सभी मायनों में सरलीकृत अवधारणाओं को अपनाने की अनुमति दी गई है । बासल II की उन्नत अवधारणाओं को अपनाने से पूर्व बैंकों को पर्यवेक्षकों के समक्ष यह साबित करना होगा कि वे बासल मानदंडों के अनुकूल कार्य करने में सक्षम हैं । बासल II के जोखिम प्रबंधन, पूंजी प्रबंधन आदि पर पड़ने वाले सकारात्मक प्रभाव को अग्रलिखित बिन्दुओं में स्पष्ट किया गया है –

1. बासल समझौता एक अत्यन्त ही लचीला एवं अनुकूल समझौता है । यह कोई कठोर न्यूनतम मानदंड विहित नहीं करता है, अपितु नीति परिभाषित करने के लिए व्यापक सिद्धांत और दिशा-निर्देश निर्धारित करता है, जिन्हें प्रत्येक राष्ट्र अपनी अपेक्षाओं और प्राथमिकताओं के अनुकूल अपना सकते हैं ।

2. इन अनुशंसाओं के पीछे कोई कानून बाध्यता नहीं होने के बावजूद अधिकांश देशों के केन्द्रीय बैंकों ने इनका स्वागत किया है और अपने बैंकों को बासल प्रतिमान अपनाने के लिए प्रेरित किया है ।

3. बासल समझौता अपनाने से पूर्व भारतीय रिज़र्व बैंक और भारतीय बैंक संघ की संयुक्त सदस्यता वाली स्टीयरिंग समिति वर्ष 2005 में स्थापित की गई थी जिसने बासल सिद्धान्तों की भारत में बैंकिंग प्रणाली के विकास एवं प्रगति के लिए उपयोगिता देखकर ही बासल II को अपनाने की घोषणा की है ।

4. बासल II समझौता बैंकिंग उद्यम में सुरक्षा और सुदृढ़ता लाने का एक समग्र स्वरूप है क्योंकि यह पर्यवेक्षीय पूंजीगत आवश्यकताओं को बैंक के जोखिम प्रकटीकरण से जोड़ता है, पर्यवेक्षकों एवं बाजार विश्लेषकों को पूंजी पर्याप्तता परिमापन में सक्षम बनाता है और बैंकिंग संगठनों को जोखिम मापन एवं प्रबंधन में सुधार हेतु प्रोत्साहित करता है ।

5. नीतिगत उपायों द्वारा बासल II का अनुपालन भारतीय बैंकों को अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पटल पर अपना स्थान बनाने के लिए जरूरी है । अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कदम रखने से पूर्व बैंकों को एक समग्र जोखिम प्रबंधन प्रणाली अपनानी होगी ताकि वे निशिदिन बदलते आर्थिक माहौल एवं प्रतिस्पर्धा के कड़े दौर में अपनी उपस्थिति वैश्विक बाजार में दर्ज करा सके ।

6. बासल II सिद्धान्त मुख्य रूप से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यावसायिक स्थिति रखने वाले बैंकों के लिए जारी किए गए हैं और अधिकांश भारतीय बैंकों का अंतर्राष्ट्रीय बाजार में अधिक कारोबार नहीं है । किन्तु फिर भी वर्ष 2003 में ही भारत के सबसे बड़े वाणिज्यिक बैंक भारतीय स्टेट बैंक ने बासल II की अनुपालना करने की घोषणा कर दी थी जबकि उस समय भारतीय स्टेट बैंक की अंतर्राष्ट्रीय परिचालनों से होने वाली आय केवल 6% थी और भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुसार केवल उन्हीं बैंकों को बासल II अपनाना होगा जिनका अंतर्राष्ट्रीय बाजार से 20% व्यवसाय हो । यह सही है कि भारतीय बैंकों में से अधिकांश की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में मौजूदगी नहीं है किन्तु भावी लक्ष्यों के मद्देनज़र बासल II को अपनाने में की जाने वाली देरी भारतीय बैंकों को अंतर्राष्ट्रीय बैंकों की तुलना में कार्यात्मक योग्यता एवं प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता में पीछे छोड़ सकती है । स्पष्ट है कि यह समझौता वित्तीय एवं जोखिम प्रबंधन को उत्तम कोटि का बनाने के लिए जरूरी मानदंड निर्धारित करता है, जो सभी प्रकार के बैंकों के लिए लाभप्रद है ।

7. बासल समझौता अपनाने वाले देशों के पर्यवेक्षक अपने-अपने देश की अर्थव्यवस्था के अनुकूल विभिन्न आस्तियों के लिए भिन्न-भिन्न जोखिम निर्धारित कर सकते हैं । हमारे देश में आरबीआई ने नीचे दी गई तालिका के अनुसार जोखिम प्रभार निर्धारित किए हैं –

तालिका 1: जोखिम प्रभार हेतु भारतीय रिज़र्व बैंक के दिशानिर्देश

मूडीज रेटिंग आई सी आर ए जोखिम प्रभार (%)

AAA to AA LAAA 20

A LAA 50

BAA to BA LA 100

B LBBB and below 150

Unrated Unrated 100

स्त्रोतः आई सी आर ए, 2005

8. भारतीय रिज़र्व बैंक के पूंजी पर्याप्तता सम्बन्धी दिशानिर्देश अल्पावधि वाले रेटेड ऋणों के लिए कम जोखिम प्रभार की व्यवस्था करते हैं जैसे कि वाणिज्यिक पत्र जो अधिकांशतः तालिका 1 के अनुसार सबसे अच्छी रेटिंग के साथ केवल 20 प्रतिशत का जोखिम प्रभार आकर्षित करते हैं । इस प्रकार वाणिज्यिक पत्रों में निवेश से बैंक अधिक लाभान्वित हो सकते हैं ।

9. खुदरा व्यवसाय के मामले में बासल I के 125 प्रतिशत के स्थान पर नया बासल समझौता 75 प्रतिशत का जोखिम प्रभार निर्धारित करता है जिससे भारतीय बैंकों में क्रेडिट कार्ड व्यवसाय एवं अन्य निजी ऋण को बढ़ावा देने की बैंकों की प्रवृति और तीव्र हो सकती है ।

10. बासल I की तुलना में बासल II के अंतर्गत भारतीय रिज़र्व बैंक को भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल जोखिम प्रभार निर्धारित करने होंगे ताकि बैंक आने वाले समय में रेटेड कॉरपोरेट कम्पनियों को दिए जाने वाले ऋणों का हिस्सा बढ़ाकर अपने पोर्टफोलियो में जोखिम को संतुलित कर सकें ।

11. बासल II के प्रथम स्तम्भ के तहत भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपेक्षित डाटा को निर्मित करने, जोखिम मॉडलों को विकसित करने और उनकी बाद में जाँच-पड़ताल करने में बैंकों के सामने उपस्थित मानव संसाधन और सूचना प्रौद्योगिकी की मूलभूत संरचना की चुनौतियों एवं पर्यवेक्षकों के लिए भी मॉडलों को वैधीकृत करने और अनुमोदन की प्रक्रिया संचालित करने में उत्पन्न चुनौतियों का ध्यान रखते हुए इस बात को वरीयता दी कि भारत में बैंकों द्वारा प्रारम्भ में सरल दृष्टिकोणों का कार्यान्वयन किया जाए । उन्नत दृष्टिकोणों का विकल्प देने के सम्बन्ध में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा यथासमय निर्णय लिया जाएगा ।

12. बासल II को लागू करके भारतीय बैंक वृहद रूप से अपने साख जोखिम प्रभारों को कम करके विनियामकीय पूंजी में कमी ला सकते हैं यदि वे अच्छी रेटिंग वाले कॉरपोरेट ऋण, खुदरा ऋण तथा अपने ऋणों पर मोर्टगेज, प्रतिभूति आदि को अपने पोर्टफोलियो में सम्मिलित करें । इससे निश्चित ही बैंकों के ऋण प्रबंधन में परिवर्तन आएगा तथा उनका पोर्टफोलियो भी व्यापक रूप से प्रभावित होगा । यहाँ तक कि यदि बैंक अपने पोर्टफोलियो में परिवर्तन न भी करें तो भी आईसीआरए (ICRA) के अनुमानों के अनुसार बासल II को अपनाने से साख जोखिम के लिए विनियामकीय पूंजी में कमी आएगी ।

13. भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को मानकीकृत दृष्टिकोण को अपनाकर ऋण जोखिम के लिए पूंजीगत अपेक्षाओं की गणना करने का निर्देश दिया है जिससे ऋण जोखिम का मापन पहले की अपेक्षा अधिक सार्थक होने लगा है, क्योंकि इसमें गारंटी, डेरिवेटिव तथा अन्य जोखिम शामकों के प्रभाव को पूंजी प्रभार के आंकलन में शामिल किया जाता है । स्पष्ट है कि यह व्यवस्था बैंकों को क्रेडिट पोर्टफोलियो जोखिम के सम्बन्ध में जोखिम शामकों के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित करती है ।

14. यह मानते हुए कि भारत में बैंक अपने आंतरिक जोखिम प्रबंध मॉडलों को विकसित करने के सम्बन्ध में अभी नवजात स्थिति में हैं, यह निर्णय लिया गया कि शुरुआती तौर पर बैंक बाजार जोखिम के मापन के लिए मानकीकृत मापन पद्धति को अपनाएँ । पूंजीगत विनियमों का आंतरिक मॉडल ढाँचा बैंकों को बाजार जोखिम के उनके आंतरिक मॉडल के सहीपन को सुधारने के लिए प्रोत्साहित करता है । बैंकों द्वारा की गई प्रगति के आधार पर उन्हें उन्नत दृष्टिकोण अपनाने की अनुमति दी जा सकती है ।

15. परिचालन जोखिम जो कि बासल II के तहत पहली बार जोखिम प्रबंधन का अंग बनाई गई है, के लिए बैंकों को अतिरिक्त विनियामकीय पूंजी की व्यवस्था करनी होगी । भारत में, बैंकों को सूचित किया गया है कि वे परिचालन जोखिम के लिए पूंजीगत प्रभार का आकलन करने हेतु मूलभूत संकेतक दृष्टिकोण (Basic Indicator Approach) को अपनाएँ । तथापि उन्हें अधिक परिष्कृत परिचालन जोखिम मापन प्रणालियों को विकसित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा । मूलभूत संकेतक दृष्टिकोण के तहत बैंकों को पिछले तीन वर्ष में हुई सकल सकारात्मक वार्षिक आय के औसत का 15% परिचालन जोखिम के पूंजी प्रभार के रूप में रखना होगा । इसका अभिप्रायः यह भी है कि यदि बासल II अपनाने पर बैंकों को अधिक पूंजी की आवश्यकता होती है तो उसके लिए उन्हें बैंक के बाहर से पूंजी बाजार अथवा सरकार से पूंजी लेनी होगी । स्पष्ट है कि बासल II को अपनाने से भारतीय बैंकों के विलय एवं अधिग्रहण द्वारा उनके सुदृढ़ीकरण और उनमें विदेशी बैंकों की साझेदारी बढ़ने की संभावनाएँ अपरिहार्य हैं ।

16. बासल II के द्वितीय स्तम्भ “पर्यवेक्षी समीक्षा प्रक्रिया” के तहत बैंकों को नियामकीय पूंजी के अतिरिक्त एवं उससे ऊपर सभी प्रकार की जोखिमों का सामना करने के लिए एक न्यूनतम पूंजी कुशन रखना होगा । इसके तहत उन जोखिमों के लिए पूंजी प्रभार रखने की अपेक्षा बैंकों से की जाती है जिन्हें प्रथम स्तम्भ के तहत नहीं रखा गया है जैसे तरलता जोखिम, ब्याज दर जोखिम, रणनीतिक जोखिम, व्यापार जोखिम इत्यादि । यह न सिर्फ बैंकों को जोखिमों का सामना करने के लिए तैयार करता है वरन् पर्यवेक्षकों को भी पूंजी पर्याप्तता के अनुमान जानने में सक्षम बनाता है । अब जबकि बासल II के मूल तत्व प्रयोग में लाए जा रहे हैं बैंकों और पर्यवेक्षकों के लिए यह जरूरी है कि वे बासल II के अंतर्गत उन्नत दृष्टिकोणों को अपनाने के लिए क्षमताओं का निर्माण कर लें ।

17. बासल II के द्वितीय स्तम्भ के तहत आरबीआई ने जोखिम आधारित पर्यवेक्षण को लागू कर दिया है जिसमें बारह विविध जोखिमों के आधार पर बैंकों के जोखिम ढ़ाँचे का मूल्यांकन किया जाता है । पहले जहां बैंक निरीक्षण केवल क्रेडिट पर केन्द्रित हुआ करता था वहीं बासल मानदंडों को देश में लागू करने हेतु अब आर बी आई द्वारा किया जाने वाला बैंक परीक्षण जोखिम आधारित होने लगा है ।

18. बासल के तृतीय स्तम्भ “बाजार अनुशासन” के अंतर्गत बैंकों को नए जोखिम आधारित पूंजी अनुपातों, साख गुणवत्ता, पोर्टफोलियो प्रबंधन, जोखिम मापन एवं प्रबंधन से जुड़ी सभी जानकारियाँ सही स्वरूप में प्रदान करनी होगी । इस तरह बैंक की विविध प्रकार की गतिविधियों, उनमें विद्यमान जोखिम एवं उसके मापन-प्रबंधन के बारे में जानकारी प्रदान करने से बैंक वित्तीय बाजारों के प्रति अधिक पारदर्शिता अपनाते हैं जो अंततः बाजार अनुशासन को बढ़ावा देती है ।

19. वर्तमान वैश्विक वित्तीय संकट वित्तीय कारोबार में पारदर्शिता, लेखा अनुशासन, कम प्रकटीकरण इत्यादि का ही नतीजा था अतएव बासल II के तृतीय स्तम्भ को सही मायनों में लागू करने से बाजार में वित्तीय संस्थाओं के बारे में निवेशकों को सही जानकारी का ज्ञान होगा जो बाजार के सुदृढ़ीकरण के लिए नितान्त आवश्यक है ।

20. बैंकों द्वारा रखी जाने वाली विनियामकीय पूंजी उनके खाते में जमा खराब ऋण (Bad Debt) अथवा गैर निष्पादक परिसम्पत्तियों (NPAs) पर भी निर्भर करेगी । पिछले कुछ वर्षों में सभी वाणिज्यिक बैंकों ने बासल सिद्धान्तों की अनुपालना हेतु अपने एनपीए काफी सीमा तक घटाए हैं और कुल ऋणों में एनपीए का प्रतिशत वर्ष 1993 में 23.2 प्रतिशत से घटकर मार्च 2004 में 7.8 प्रतिशत रह गया है ।

21. वस्तुतः बासल समझौता बैंकिंग प्रणाली में सर्वोत्तम वैश्विक मानदंडों के अनुरूप निष्पादन क्षमता एवं स्थायित्व लाने के लिए अपनाई जा रही भारतीय रिज़र्व बैंक की दोहरी नीति का ही एक अंग है । भारतीय रिज़र्व बैंक एक ओर भारतीय बैंकिंग में विलय एवं अधिग्रहण द्वारा सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के बैंकों को मजबूत बनाने तथा दूसरी ओर विदेशी बैंकों में एक रणनीतिक तरीके से नियमित वृद्धि करने को प्रोत्साहित कर रहा है । यह नीति भारतीय बैंकिंग जगत में गहन प्रतिस्पर्धा उत्पन्न कर बैंक ग्राहकों को अच्छी सेवाओं एवं उत्पादों का विकल्प देने में कामयाब होगी ।

 

बासल II का आलोचनात्मक विवेचन-

संभवतया आलोचकों का यह मत कि बासल II समझौता औद्योगिक रूप से समृद्ध जी-10 देशों के मद्देनज़र बनाया गया है जहां साख का इष्टतम दोहन किया जा चुका है वहीं भारत जैसे विकासशील देशों में जहां आज भी अधिकांश जनता वित्तीय क्षेत्र की परिधि से बाहर है बासल समझौता एक अदूरदर्शी कदम साबित हो सकता है । इन सबके अतिरिक्त कुछ अन्य समस्याएं जो बासल II को अपनाने से पूर्व ध्यान में रखनी चाहिए वे हैं-

 

1. बासल II का अनुपालन करने के लिए व्यापक सूचना एकत्रण एवं सूचना विश्लेषण जरूरी है । जिसके लिए सार्वजनिक बैंकों को प्रतिवर्ष अतिरिक्त 50000 करोड़ रुपए चाहिए ताकि वे बासल प्रतिमानों के अनुरूप पूंजी पर्याप्तता प्राप्त कर सकें । कई बैंक बासल अनुपालन से होने वाले लाभों को न्यून मानते हैं क्योंकि उनकी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में नगण्य स्थिति है ।

2. निवर्तमान दिशानिर्देशों के अनुसार बासल II को केवल अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों पर लागू किया गया है और अन्य वित्तीय क्षेत्र जैसे बीमा, प्रतिभूति इत्यादि इससे अछूते हैं । स्पष्ट है कि वित्तीय तंत्र के अंतर्गत केवल बैंकिंग पर ही बासल का प्रभाव होगा तथा यह स्थिति पर्यवेक्षण के मामले में वित्तीय क्षेत्र में दुविधा पैदा करती है ।

3. यह भी आशंका है कि बैंकिंग संस्थान बासल II प्रतिमानों को लागू करने पर परिचालन जोखिम के लिए जरूरी अतिरिक्त पूंजी प्रभार की वसूली ग्राहकों पर दिन प्रतिदिन की बैंकिंग गतिविधियों के लिए अधिक मूल्य लगाकर करें । इसके कारण उत्पन्न स्थिति ग्राहकों को अधिक जोखिम वाले बैंकों से उत्पाद एवं सेवाएं खरीदने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है ।

4. विकसित देशों में अल्पावधि एवं दीर्घावधि ऋण के लिए जोखिम प्रभार भिन्न-भिन्न होता है । जबकि भारतीय बैंकों का पोर्टफोलियो मुख्यतः कम अवधि वाले ऋण जैसे वाणिज्यिक पत्र (Commercial Paper) अथवा ग्राहकों को दी जाने वाली वित्तीय सुविधाओं जैसे कैश क्रेडिट अथवा ओवरड्राफ्ट जो केवल तकनीकी दृष्टि में ऋण हैं से मिलकर बना है जिनके लिए भिन्न-भिन्न जोखिम प्रभार का निर्धारण करने के लिए बैंकों एवं पर्यवेक्षकों को विशिष्ट योग्यताएं विकसित करनी होगी ।

5. चूंकि भारतीय बैंकों का ऋण एवं अग्रिम पोर्टफोलियो अधिकांशतः अनरेटेड संस्थाओं के लिए होता है अतएव बासल II के अंतर्गत लागू होने वाला कम जोखिम वाले कॉरपोरेट वर्ग के लिए कम जोखिम प्रभार का विशेष असर भारतीय बैंकों पर नहीं पड़ेगा ।

6. आईसीआरए के अनुमानों के अनुसार भारतीय बैंकों को परिचालन जोखिम के लिए पूंजी प्रभार हेतु अतिरिक्त 12000 करोड़ रुपए की आवश्यकता पड़ेगी । इसमें से अधिकांश पूंजी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए 9000 करोड़, तत्पश्चात् नए निजी बैंकों के लिए 1100 करोड़ तथा पुराने निजी बैंकों के लिए 750 करोड़ की आवश्यकता होगी । यह पूंजी बैंकों द्वारा ईक्विटी के माध्यम से अर्जित की जा रही है जो बैंकों में संरचनात्मक परिवर्तन ला सकती है । पहले ही भारतीय बैंकों में विदेशी पूंजी निवेश को दी गई स्वीकृति बैंकों के पूंजी आधार को परिवर्तित कर रही है ।

7. बासल II की अनुपालना के लिए आवश्यक पूंजी प्रदान करने के लिए भारत सरकार ने बैंकों में विदेशी पूंजी निवेश को स्वीकृति दे दी है । जिसका नतीजा यह है कि दिसम्बर 2005 में ICICI बैंक में विदेशी संस्थागत निवेश लगभग 49% तक था वहीं यह HDFC के मामले में 69% तक पहुंच गया । ऐसी स्थिति में उदार विदेशी प्रत्यक्ष निवेश नीति से बड़े अंतर्राष्ट्रीय बैंकों द्वारा भारतीय बैंकों के अधिग्रहण की संभावनाओं का डर है ।

8. भारत जैसे देश में बैंकों में सार्वजनिक सर्वाधिकार जनता के मन में जो सम्मान एवं विश्वास पैदा करता है उसकी तुलना किसी भी प्रकार की पूंजी से नहीं की जा सकती है । यही कारण है कि भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् से कोई सार्वजनिक बैंक असफल नहीं हुआ है । वहीं बीयरिंग्स बैंक का अच्छा-खासा पूंजी आधार उसे बुरी तरह असफल होने से नहीं बचा पाया था जो बासल सिद्धान्तों की मूल अवधारणा कि पूंजी जोखिम से बचाने में सक्षम है को झूठा साबित करती है ।

9. बासल संस्थान द्वारा कराए गए QIS-5 के अनुसार जी-10 देशों के बैंकों में जोखिम प्रबंधन तंत्र उत्तम है जबकि आर्थिक मंदी में जिस तरह वहां के बैंकों की दुर्दशा हुई वह बासल II के समूचे अस्तित्व पर ही सवाल उठाती है । यही वजह है कि फेडरल रिज़र्व ने बासल II को लागू करने पर रोक लगा दी है क्योंकि यह अमरीकी बैंकों में न्यूनतम पूंजी के स्तर को वर्तमान स्तर से घटा सकता है । स्पष्ट है कि वैश्विक आर्थिक संकट ने यह संशय अधिकांश बैंकिंग जगत में पैदा कर दिया है कि बासल II को लागू करना अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक तंत्र को मजबूत करेगा अथवा कमजोर ।

10. कुछ आलोचकों का मानना है कि बासल II को लागू करने के लिए केवल आधारभूत अवधारणाओं को अपनाकर भारतीय रिज़र्व बैंक ने काफी अपरिपक्व एवं पुरातनपंथी दृष्टिकोण अपनाया है । क्योंकि यह आवश्यक नहीं जो जी-10 देशों के लिए सही हो वह भारत जैसे विकासशील देश के लिए भी ठीक हो । हमें नहीं भूलना चाहिए कि बासल II की अवधारणाओं को अपनाने की तकनीकी एवं मानव संसाधनात्मक क्षमता हमारे बैंकों में नहीं है और इन्हें अपनाने से न केवल बैंकों बल्कि पर्यवेक्षकों के लिए भी अत्यधिक कठिनाई उत्पन्न हो सकती है ।

11. भारतीय बैंकिंग के संदर्भ में एक विशेष बात यह है कि यहां अधिकांश ऋण (loan) अनरेटेड हैं जिनके लिए जोखिम प्रभार ऊपर दी गई तालिका के अनुसार 100% का होगा अर्थात् पूंजी भारित आस्ति अनुपात (CRAR) के 9% होने की स्थिति में प्रत्येक 100 रुपए के ऋण पर बैंकों को 9 रुपए जोखिम प्रभार के रूप में रखने होंगे । यह स्थिति बैंकों में ऋण पर लगने वाले प्रभार बढ़ा सकती है जिसे अंततः ग्राहकों को उठाना होगा ।

12. छोटे और मध्यम स्तर के उद्यमों की रेटिंग के लिए एसएमई रेटिंग एजेन्सी (SMERA) का गठन किया गया है किन्तु वास्तविक संदर्भ में इसकी रेटिंग को व्यवहार्यता प्राप्त नहीं हुई है जिससे इन उद्यमों में बैंकों के निवेश की उनके ऋण पोर्टफोलियो से तुलना करना कठिन हो जाता है ।

13. बासल II के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की आस्तियों के लिए जोखिम का निर्धारण रेटिंग कम्पनियों द्वारा दी गई रेटिंग के आधार पर होता है । किन्तु भारत में रेटिंग एजेन्सी की मूल्यांकन प्रविधियां अभी भी शैशवावस्था में हैं जिससे बासल II के अंतर्गत जोखिम प्रबंधन किस हद तक तथ्यसंगत होगा कहना मुश्किल है । जिस तरह वैश्विक वित्तीय संकट में दुनिया की नामी-गिरामी रेटिंग एजेन्सियों द्वारा अच्छी रेटिंग दिए जाने के बावजूद विकसित देशों के बैंकों को भारी नुकसान उठाना पडा वह रेटिंग की समस्त प्रक्रिया पर ही सवाल उठाती है ।

14. भारतीय बैंकों के समक्ष बासल II की तैयारी में सूचना प्रौद्योगिकी अवसंरचना, डाटा प्रबंधन, जोखिम प्रबंधन संसाधन, भारी निवेश, संचार साधनों आदि का सफलतापूर्वक संचालन जरूरी है ।

15. जोखिम विविधीकरण का सिद्धान्त बैंकों की देनदारी में कई मायनों में लागू नहीं होता है विशेषकर भारत जैसे देश में जहां कृषि, प्राथमिकता क्षेत्र इत्यादि में ऋण आदि देना बैंकों के लिए अनिवार्य होता है । साथ ही, ईक्विटी निवेश तथा रोजगार निर्माण कार्यक्रम आदि से जुड़ी हमारी चिंताएं विकसित देशों में नहीं हैं । हम यह नहीं भूल सकते कि भारत एक जनकल्याणकारी राज्य है जिसमें गरीब किसानों पर सिर्फ इसीलिए उँची ब्याज दर नहीं लगाई जा सकती क्योंकि उनके पास अच्छी रेटिंग नहीं है ।

सार रूप में हम कह सकते हैं कि वैचारिक धरातल पर बासल II बैंकों और वित्तीय संस्थानों द्वारा आंतरिक प्रयास के माध्यम से वित्तीय बाजारों को समृद्ध एवं पुष्ट करने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सुसंगत दृष्टिकोण निर्धारित करता है । इस प्रयोजनार्थ बासल II न केवल पालन की जाने वाली क्रियाविधि प्रदान करता है, अपितु इसमें निष्पादक संस्थानों के लिए अल्प पूंजीगत अपेक्षाओं के रूप में आवश्यक प्रोत्साहन की भी व्यवस्था करता है । बासल समझौता बैंकों को निष्पादन के सही उपायों के साथ-साथ पर्यवेक्षणीय दिशा-निर्देशों के एकीकरण के प्रति एक जटिल कदम है । इन जटिलताओं के अतिरिक्त भारतीय बैंकों के सामने एक बड़ी चुनौती यही है कि वे अपने मौजूदा सूचना तंत्र एवं प्रौद्योगिकी तथा मानव संसाधन के साथ बासल II के अनुकूल उन्नत दृष्टिकोणों को अपनाने के लिए क्षमताओं का निर्माण करें । बासल II के कारण बैंकों को अपना पूंजी आधार बढ़ाना होगा और जोखिम प्रबंधन के लिए न्यूनतम पूंजी निर्धारित करनी होगी । ऋण जोखिम एवं बाजार जोखिम के अतिरिक्त परिचालन जोखिम के लिए भी बैंकों को पूंजी प्रबंध करना होगा । इस प्रकार भारतीय बैंकों के लिए न्यूनतम पूंजी आवश्यकताएं बढ़ गई हैं और आवश्यक स्तर तक पूंजी को बनाए रखना तथा अत्याधुनिक वित्तीय अवधारणाओं से अपने कार्मिकों एवं तंत्र को सुसज्जित करना बैंकिंग तंत्र के लिए एक व्यवहारिक चुनौती बनकर उभरा है । किन्तु बासल प्रतिमानों का सुव्यवस्थित संचालन निश्चित ही भारतीय बैंकों में जोखिम प्रबंधन संस्कृति को सुदृढ़ बनाएगा और उनकी अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को मजबूत करेगा ।

 

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निधि चौधरी
तीन विषयों (अंग्रेजी साहित्य 2005, लोक प्रशासन 2007 एवं ग्रामीण विकास 2012) में स्नातकोत्तर की उपाधि । वर्तमान में लोक प्रशासन में पी.एच.डी. कर रही हैं । इसके अलावा यूजीसी-नेट, JAIIB (2008), CAIIB (2009) तथा BJMC (2003) की डिग्री भी रखती हैं ।। रचनाओं का प्रकाशन राष्ट्रीय स्तर के कई अखबार, पत्र-पत्रिकाओं जैसे द इंडियन बैंकर, बैंक क्वेस्ट, द इंडियन इकॉनोमिक जर्नल, द आइमा ई-जर्नल, बैंकिंग चिंतन अनुचिंतन, सीएबी कॉलिंग, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक नवज्योति, मेरी सहेली, गृहलक्ष्मी, गृहशोभा इत्यादि में हो चुका है ।

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