विकास हो मनुष्यता का, नैतिकता का न कि भौतिकता का

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संपूर्ण विश्व में प्रथम विश्व युद्ध के बाद से चहुं ओर विकास-विकास-विकास का डंका बजाया जा रहा है। कुछ देशों ने अपने आप को विकसित मानकर अन्य देशों को विकासशील या अविकसित देशों की श्रेणी में डाल दिया और अपनी विकसित योजनाओं को लेकर, विकास का नारा देकर, पूरे विश्व में इन योजनाओं को थोपने का काम किया है लेकिन किसी कीमत पर यह विषय चिंतनीय और मनन करने योग्य है।

इतिहास को उठाकर देखें तो जब भारत विश्व गुरु कहलाता था उस समय की शिक्षा पद्धति, संस्कृति और सभ्यता पूर्णतया नैतिकता पर आधारित होती थी। नैतिकता के पाठ का असर आचरण और व्यवहार में परिलक्षित और सर्वप्रिय होता था परंतु प्रथम विश्व युद्ध के बाद से ही नैतिकता का और चारित्रिक पतन शुरू हो गया क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध के बाद जिन लोगों ने उस समय भयावह युद्ध को और युद्ध के पश्चात भयावह मंदी को झेला था उससेे नैतिकता के सब्र के बांध न सिर्फ हिल गये, बल्कि बिखर गये थे। 

तत्पश्चात मनुष्य को मात्रा एक ऊंची जाति के जानवर की तरह माना जाने लगा जिसमें बड़े-बड़े और ताकतवर लोगों का कमजोर लोगों और निम्न दर्जे के लोगों को दबाने की प्रवृत्ति हावी होने लगी। इसी बीच इस विकासवाद के बहाने लोगों पर अपना वर्चस्व जमाकर एवं दिखाकर अपने प्रभाव में लेने का सिलसिला शुरू हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूरी दुनिया में हालात इतने खराब हुए कि अधिकतर लोग ऊसूल और नैतिक सिद्धांतों को ताक पर रख सुख-सुविधा-विलास के पीछे भागने लगे और उन पर अमीर बनने का जुनून सवार हुआ और यहीं से विकासवाद का परचम फहराने की और नैतिकता के पतन की शुरुआत हो गयी। 

भारतीय सभ्यता व संस्कृति में नैतिकता को शुरू से ही ऊच्च स्थान दिया गया है। नैतिकता हमें हर कदम पर सही-गलत के ज्ञान का आभास कराती है। नैतिकता के अभाव में व्यक्ति और समाज असंतोष, अलगाववाद, उपद्रव, आंदोलन, असमानता, असामंजस्य, अराजकता, आदर्शविहीन, अन्याय, अत्याचार, अपमान, असफलता अवसाद, अस्थिरता, अनिश्चितता, संघर्ष, हिंसा आदि में घिरकर और फंस कर रह जाता है। इसके मूल कारण में देखें तो व्यक्ति और समाज सांप्रदायिकता, भाषावाद, क्षेत्राीयतावाद और हिंसा की संकीर्ण भावनाओं व समस्याओं में उलझ कर रह जाता है। हालांकि, उसी समाज में विभिन्न कालों, विभिन्न परिस्थितियों और विभिन्न वातावरण में नैतिकता भी बदल जाती है और समयानुसार सुधार भी हो जाता है। 

समाजिक दृष्टिकोण से नैतिकता ही धर्म की आचार संहिता है; वहीं धर्म जिसको सृष्टि रचयिता द्वारा ब्रह्मांड के प्रत्येक कण-कण में निर्धारित किया हुआ है। नैतिकता के मानदंडों से ही कानून जैसी व्यवस्था की उत्पत्ति हुई है और आज विकासवाद के नाम पर व्यक्ति कानून को तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल कर नैतिकता को ताक पर रख भौतिकतावादी मानसिकता को मन में संजोये हुए, उचित-अनुचित का आंकलन किये बगैर अपने आप को विकसित कहलवा रहा है मगर हकीकत में पतन की ओर जा रहा है। 

धर्म मनुष्य को नैतिकता के माध्यम से समस्त प्राणियों से आचरण और व्यवहार, उचित-अनुचित का ज्ञान, कर्तव्य बोध, परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति दायित्व और अधिकार इत्यादि को नियम श्रृंखला में बांधकर मनुष्य को मानव बनने पर मजबूर करता है। 

मनुष्य की आत्मा में समस्त ज्ञान चाहे वह भौतिक हो, नैतिक हो या आध्यात्मिक हो विराजित रहता है। मात्रा हमें उस आवरण को अनावरित करना है जिसको मनुष्य मनोचित आचरण करते हुए मनुष्य से मानव की ओर बनकर विकास यात्रा को शुरू करता है। नैतिकता की विशेषताः-

थ् नैतिक शिक्षा ही मनुष्य को मानव बनाती है।

थ् नैतिकता व्यक्ति के अन्तःकरण की आवाज है। यह सामाजिक व्यवहार का उचित प्रतिमान है।

थ् नैतिकता के साथ समाज की शक्ति जुड़ी होती है।

थ् नैतिकता तर्क पर आधारित है। नैतिकता का संबंध किसी अदृश्य पारलौकिक शक्ति से नहीं होता।

थ् नैतिकता परिवर्तनशील है। इसके नियम देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। 

थ् नैतिकता का संबंध समाज से है। समाज जिसे ठीक मानता है वही नैतिक है।

थ् नैतिक मूल्यों का पालन व्यक्ति स्वेच्छा से करता है। किसी ईश्वरीय शक्ति के भय से नहीं।

थ् नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्य और आचरण से जुड़ी है।

थ् नैतिकता का आधार पवित्राता, ईमानदारी और सत्यता आदि गुण 

होते हैं।

थ् नैतिकता कभी-कभी धर्म के नियमों का प्रतिपादन करती प्रतीत होती है।

थ् नैतिक शिक्षा से ही सही अर्थों में राष्ट्र का निर्माण होता है। 

आज नैतिकता के पतन का मूल कारण है भ्रष्टाचार और इस भ्रष्टाचार की उत्पत्ति भौतिकतावादी सुखों की प्राप्ति जल्द से जल्द हो, जैसी इच्छाओं के प्रतिपादन से होती है। जब भी हमारा समाज गलत तरीकों से ज्यादा चाहत रखने लगता है तब नैतिकता के पतन का कारण बनता है और यहीं से भ्रष्टाचार की उत्पत्ति होती है। हालांकि, हम सभी यह जानते हैं कि ‘‘समय से पहले और भाग्य से अधिक न कभी किसी को मिला है और न कभी मिलेगा।’’

आजादी के 70 वर्ष बीत जाने के बाद भी हम भारत में देख रहे हैं कि अधर्मवाद और भ्रष्टाचार की स्थिति का बद से बदतर होना और हमारी नैतिकता में कमी आने का मूल कारण इसलिए है कि हम सब अपनी खुशियां पदार्थों में ढूंढ़ने लगे हैं जबकि भारतीय संस्कृति, सभ्यता और संस्कारों में वास्तविक खुशी का संबंध, वास्तविक विकास का संबंध, वास्तविक जीवन जीने का लक्ष्य, आत्मिक शांति, आंतरिक प्रसन्नता, परिवार, समाज और राष्ट्र उत्थान से है और हमारी परंपरायें और ज्ञान स्वयं को आत्म स्वरूप महसूस करने पर बल देती रही हैं। आज अगर हम सही मायनों में विकासशील होकर विकसित होना चाहते हैं और पुनः विश्व गुरु का स्थान पाना चाहते हैं तो हमें अपने भौतिकतावादी विकास को एक तरफ रखकर नैतिकतावादी और आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर होना होगा इसके लिए नये सिरे से विचार कर नयी शिक्षा प्रणाली इत्यादि लाकर नये भारत की कल्पना को साकार करना होगा।

समय है, विकसित स्वाभाविक नेतृत्व का

तृत्व अपने आप में एक बहुत ही व्यापक शब्द है और यह एक प्रकार की कला भी है। सामान्य रूप से जब नेतृत्व की बात आती है तो अधिकांशतः इसे राजनैतिक नेतृत्व के रूप में लिया जाता है। वैसे देखा जाये तो नेतृत्व के कई प्रकार हो सकते हैं। उदाहरण के तौर पर प्रशासनिक, राजनीतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक,

शैक्षणिक, व्यावसायिक या अन्य प्रकार के नेतृत्व हो सकते हैं।

स्वाभाविक सी बात है कि कोई भी व्यक्ति हर क्षेत्रा में नेतृत्व का विशेषज्ञ नहीं हो सकता है इसलिए अलग-अलग क्षेत्रों का नेतृत्व करने के लिए अलग-अलग व्यक्तियों का नाम देखने एवं सुनने को मिलता रहता है। सभी तरह के नेतृत्व की चर्चा यहां कर पाना संभव नहीं है किंतु उस नेतृत्व की चर्चा करना निहायत जरूरी है जिसकी चर्चा जन-जन की जुबान पर होती है। जाहिर सी बात है कि राजनीतिक नेतृत्व की बात हो रही है। वास्तव में यदि देखा जाये तो नेतृत्व का ही बिगड़ा हुआ शब्द है नेता।

किसी भी व्यक्ति में नेतृत्व स्वाभाविक भी हो सकता है, विकसित भी किया जा सकता है या परिवार से विरासत के रूप में भी मिल सकता है। जो नेतृत्व पारिवारिक विरासत के रूप में मिलता है उसे तमाम लोग थोपे हुए नेतृत्व के रूप में भी मानते हैं। स्वाभाविक नेतृत्व को यदि परिभाषित किया जाये तो मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसा नेतृत्व उम्मीदों की कसौटी पर कसकर, आग में सोने की तरह तपकर या हीरे की तरह घिसकर विकसित होता है यानी स्वाभाविक नेतृत्व को उस रूप में लेना चाहिए कि जैसे ‘अखाड़े के लतमरुआ’ पहलवान होते हैं यानी जो व्यक्ति अखाड़े में रोज जाता है और हारता-जीतता रहता है वह व्यक्ति किसी दिन नामी पहलवान बन जाता है। कुछ इसी प्रकार की परिकल्पना स्वाभाविक नेतृत्व की भी है।

स्वाभाविक नेतृत्व सिर्फ समाज में ही रहकर विकसित हो सकता है। स्वाभाविक नेतृत्व सामाजिक समस्याओं के समझने, समझाने और उसे सुलझाने के अनुभव से ही विकसित किया जा सकता है क्योंकि उसमें व्यक्ति और समाज का संपर्क आमने-सामने जमीनी हकीकतों को लेकर होता है। समस्याओं के समाधान हेतु सामाजिक कार्यकर्ता जब प्रशासनिक ढांचे में घुसता है तब उसे प्रशासन की ओर से खड़ी हो रही बाधाओं की बारीकियों को जानने एवं समझने का अनुभव होता है। ऐसे सामाजिक व्यक्ति जब राजनीति में प्रवेश करते हैं तो वे एक सफल एवं कुशल नेतृत्व प्रदान करते हैं। यहां पर हम कह सकते हैं कि नेतृत्व की कला और मनुष्य का मनोविज्ञान कहीं न कहीं एक दूसरे से जुड़ा है यानी जब तक हम समाज में रहने वाले व्यक्तियों के हावभाव, बोलचाल इत्यादि मुद्दों का अध्ययन नहीं करेंगे तब तक हमें किसी भी समस्या के प्रति एक धारणा बनाना कठिन हो जायेगा।

जिसमें समाज सेवा का जुनून होगा, वही राजनीतिक क्षेत्रा में भी नेतृत्व प्रदान कर सकता है। भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं केन्द्रीय मंत्राी माननीय नितिन गडकरी अक्सर एक उदाहरण देते हुए कहा करते हैं कि राजनीतिक क्षेत्रा के अंतर्गत गमले में उगे हुए लोग बहुत दुख देते हैं। उनके कहने का अभिप्राय यह है कि जैसे किसी पौधे की जड़ें जब तक पृथ्वी में गहराई तक नहीं जाती हैं, तब तक उसका पूर्ण विकास नहीं हो सकता है, ठीक उसी तरह किसी को जब तक सामाजिक समस्याओं के निदान की बारीकियों की व्यापक जानकारी नहीं होगी तो समस्या के निदान में काफी दिक्कत आ सकती है, यह सब बिना अनुभव की भट्टी में तपे संभव नहीं है। गमले का उदाहरण देने का अभिप्राय इस बात से भी है कि जो पौधा गमले में उगता है उसका विकास एक निश्चित वातावरण एवं दायरे में हो सकता है जबकि एक निश्चित ढांचे एवं वातावरण में रहकर समाज का विकास नहीं किया जा सकता है।

राजनीतिक क्षेत्रा में यह चर्चा बहुत तेजी से हो रही है कि जब मास्टर का बेटा मास्टर, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, दुकानदार का बेटा दुकानदार बन सकता है तो राजनीतिक व्यक्ति का बेटा एवं बेटी राजनेता क्यों नहीं बन सकते हैं? यहां यह प्रश्न बार-बार उठता है कि जब किसी राजनीतिज्ञ की औलाद नेतृत्व प्रदान के लिए आती है तो उसकी तुलना उसके माता-पिता से होेने लगती है। ऐसे में जब वह अपने पिता की बराबरी नहीं कर पाता है तो पिता के मुकाबले लोग उसे कम आंकने लगते हैं। दूसरी बात यह है कि क्या नेता का बेटा नेतृत्व के मामले में अपने पिता एवं माता की तरह ही पूर्ण होगा, यह अपने आप में एक विचारणीय प्रश्न है।

मेरा मानना है कि जिन परिवारों में समाज सेवाओं एवं नेतृत्व की परिपाटी रही है और घर के अन्य सदस्य भी उन सेवाओं में योगदान देते रहे हैं, निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कुछ न कुछ अनुभव के अंश विरासत में उन्होंने ग्रहण किये हुए हैं और इसी कारण वे सफल नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं और करना भी चाहिए। अगर उदाहरण के लिए भारत की एक मात्रा महिला पूर्व प्रधानमंत्राी की बात की जाये तो यह उदाहरण बिल्कुल सटीक बैठता है।

श्रीमती इंदिरा गांधी बाल्यकाल से ही अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ रहीं और बचपन से ही उनसे राजनीतिक बारीकियां सीखीं और समस्याओं के समाधान के बारे में प्रारंभ से ही उन्होंने जानने एवं सुलझाने की कला सीखी। इसी कारण उन्होंने देश का कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया किंतु श्रीमती इंदिरा गांधी से यदि उनके पुत्रा और पूर्व प्रधानमंत्राी राजीव गांधी की तुलना की जाये तो नेतृत्व के मामले में वे उनके बराबर कहीं टिक नहीं पाये। उसका कारण यह था कि राजीव गांधी की रुचि राजनीति में शुरू से ही बहुत अधिक नहीं थी।

राजनीति की बारीकियां श्रीमती गांधी के दूसरे पुत्रा संजय गांधी ने उनसे सीखी, किंतु वे असमय काल के गाल में समा गये। इस मामले में एक बात देखने को यह मिली कि संजय गांधी में तानाशाह प्रवृत्ति हावी हो गई थी। इसी कड़ी में यदि बात राहुल गांधी की, की जाये तो राजनीति एवं नेतृत्व की कला में श्रीमती गांधी की तो बात ही छोड़िये अपने पिता राजीव गांधी के इर्द-गिर्द भी नहीं पहुंच पाये।

वैसे देखा जाये तो पारिवारिक विरासत के रूप में राजनीति एवं नेतृत्व पूरी दुनिया में रहा है। अमेरिका में सीनियर जार्ज बुश के बेटे जूनियर बुश राष्ट्रपति बने, पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की पत्नी हिलेरी क्लिंटन सफल राजनीतिज्ञ बनीं। इंग्लैंड के राजपरिवार में अभी भी वंशवाद है। इस वंशवाद को पूरा सम्मान भी प्राप्त है और लोग अभी भी उसका सम्मान करते हैं। दुनिया के कई देशों में अभी भी वंशवाद का शासन है। उनमें कुछ अच्छा नेतृत्व दे रहे हैं तो कुछ नहीं दे पा रहे हैं तो इसका सीधा-सा अभिप्राय है कि राजनीति की कला किसने कितनी गहराई एवं बारीकी से सीखने की कोश्ािश की, यह बात महत्वपूर्ण है।  हिन्दुस्तान की बात की जाये तो दिग्गज नेता मुलायम सिंह के पुत्रा अखिलेश यादव अपने चाचा शिवपाल यादव को दरकिनार करते हुए मुख्यमंत्राी बने किंतु वे दुबारा अपनी कुर्सी को बचा पाने में कामयाब नहीं हो पाये।

इस कड़ी में देखा जाये तो लालू प्रसाद यादव के पुत्रा तेजस्वी यादव, तेजप्रताप यादव और बेटी मीसा भारती, उनकी पत्नी राबड़ी देवी, पूर्व प्रधानमंत्राी देवगौड़ा के बेटे कुमार स्वामी, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्राी शेख अब्दुल्ला के बेटे फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर अब्दुल्ला, कश्मीर के पूर्व मूख्यमंत्राी एवं देश के पूर्व गृहमंत्राी पी.एम. सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती, राजेश पायलट के सुपुत्रा सचिन पायलट, माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया, कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे जितेन्द्र प्रसाद के बेटे जितिन प्रसाद, केन्द्रीय गृहमंत्राी राजनाथ सिंह के सुपुत्रा पंकज सिंह, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्राी चौधरी देवीलाल और उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला तथा ओम प्रकाश चौआला के बेटों अजय एवं अभय सहित नेताओं की एक लंबी श्रंृखला है जिन्होंने अपने माता-पिता से राजनीति, समाज सेवा एवं नेतृत्व की प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की है। अब यह समय ही तय करेगा कि ये नेता कितना कामयाब हो पाते हैं? इस विषय पर यदि गहराई से मूल्यांकन एवं विश्लेषण किया जाये तो सबके बारे में अलग-अलग राय सामने आयेगी किंतु ये नेतृत्व के मामले में अपने माता-पिता के मुकाबले कितनी लंबी छलांग लगायेंगे, उसकी परख तो वक्त ही करेगा। इस पूरे प्रकरण में एक बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि यदि किसी को जबर्दस्ती नेता बनाया जाता है तो वह राजनीति एवं नेतृत्व के मामले में लंबी रेस का घोड़ा साबित नहीं हो पाता है। कुशल नेतृत्व वही प्रदान कर सकता है जिसमें समाज सेवा का जुनून होगा और जनता के दुख-दर्द से जुड़कर हमेशा हम सफर के रूप में कार्य करेगा। परिवारवाद की राजनीति में नेतृत्व का विकास तो किया जा सकता है किंतु इस पर एक आम राय नहीं बनाई जा सकती है।

आजकल एक परिपाटी चल पड़ी है कि समाज में जिनका नाम है यानी जिन्हें लोग जानते हैं, ऐसे लोग नेतृत्व में तेजी से आगे आ रहे हैं। ऐसे लोगों के नाम पर भीड़ तो आ जाती है किंतु यह भीड़ वोटों में तब्दील हो जाये, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता है। नेतृत्व करने के गुणों की यदि बात की जाये तो सेवा, संघर्ष, संपर्क, समन्वय एवं संवाद इन बातों का होना नितांत आवश्यक है और हमेशा इन बातों पर जोर भी देना चाहिए।

स्वाभाविक नेतृत्व की बात की जाये तो वर्तमान प्रधानमंत्राी माननीय नरेंद्र मोदी इसके एक बेहतरीन उदाहरण हैं, प्रधानमंत्राी बनने से पूर्व वे लंबे समय तक गुजरात के मुख्यमंत्राी रहे और मुख्यमंत्राी बनने से पहले भाजपा के संगठन में उन्होंने अपने आपको खूब तपाया है। कहने का आशय यही है कि प्रधानमंत्राी आज यदि देश का कुशलतापूर्वक नेतृत्व कर रहे हैं तो उसका एक मात्रा कारण यही है कि नेतृत्व के मामले में उनका स्वाभाविक विकास हुआ है, न कि वे थोपे गये नेता हैं। इसी प्रकार भाजपा अध्यक्ष माननीय अमित शाह, गृहमंत्राी माननीय राजनाथ सिंह, विदेश मंत्राी श्रीमती सुषमा स्वराज सहित तमाम मंत्रियों एवं नेताओं की एक लंबी श्रंृखला है जो केन्द्र सरकार एवं भाजपा संगठन में रहकर राष्ट्र एवं समाज को कुशल एवं सक्षम नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं।

माननीय गृहमंत्राी राजनाथ सिंह अक्सर कहा करते हैं कि हम राजनीति सिर्फ सरकार बनाने के लिए नहीं, बल्कि समाज बनाने के लिए करते हैं। लोगों से मिलने एवं बात करने का उनका जो तरीका है उससे लगता है कि वे निहायत ही स्वाभाविक नेता हैं।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्राी योगी आदित्यनाथ, हरियाणा के मुख्यमंत्राी मनोहर लाल खट्टर, झारखंड के मुख्यमंत्राी रघुवर दास, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्राी रमन सिंह, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्राी शिवराज सिंह चौहान सहित भाजपा के अधिकांश मुख्यमंत्रियों का यदि विश्लेषण किया जाये तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वे स्वाभाविक नेता हैं और अनुभव की भट्टी में ही तपकर निखरे हैं।

थोड़ा और पूर्व की बात करें तो डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पंडित दीन दयाल उपाध्याय, श्री अटल बिहारी वाजयेपी,

स्व. लाल बहादुर शास्त्राी, श्री लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. राम मनोहर लोहिया, श्री ज्योति बसु, श्री बुद्धदेव भट्टाचार्य, श्री प्रणव मुखर्जी, श्री मानिक सरकार आदि नेताओं ने अपने को स्वाभाविक नेता के रूप में स्थापित किया।

अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि देश में स्वाभाविक नेतृत्व का विकास किया जाये एवं उसे आगे लाया जाये। प्रधानमंत्राी नरेंद्र मोदी यदि कहीं जाते हैं तो उन्हें किसी का लिखा भाषण पढ़ने की आवश्यकता नहीं होती है। वे बिना किसी लिखित भाषण के जहां चाहें, जितनी देर चाहें, बोल सकते हैं किंतु क्या श्रीमती सोनिया गांधी एवं पूर्व प्रधानमंत्राी डॉ. मनमोहन सिंह से ऐसी उम्मीद की जा सकती है? जाहिर सी बात है कि श्रीमती सोनिया गांधी एवं डॉ. मनमोहन सिंह से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती है क्योंकि नेतृत्व के मामले में उनका स्वाभाविक विकास नहीं हुआ है।

भाजपा अध्यक्ष मााननीय अमित शाह जनता से मिलने-जुलने एवं संपर्क करने के लिए कार्यकर्ताओं को तमाम तौर-तरीकों एवं कार्यप्रणाली से इसलिए अवगत करा पा रहे हैं कि उनमें नेतृत्व कला का स्वाभाविक विकास हुआ है। इसे नेचुरल लीडरशिप भी कहा जा सकता है। वर्तमान में स्वाभाविक नेतृत्व की स्थिति चाहे जो भी हो किंतु अब सभी राजनीतिक दलों एवं समाजसेवियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे ऐसे लोगों को सामने लायें या विकसित करें जो नेतृत्व के क्षेत्रा में स्वाभाविक रूप से आगे बढ़े हैं। इसी में राष्ट्र एवं समाज सभी का कल्याण है।

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