मेला में मीडिया, बजी मीडिया की डफलियां

संजय कुमार

मीडिया, भाषा को विकृत कर रही है…..बाजारवाद व नैतिकता में सामंजस्य है जरूरी…. मीडिया नहीं होता तो अन्ना का आंदोलन सफल नहीं होता……मीडिया सत्ता के करीब आने से अपने दायित्व से हट गयी है…….पत्रकारिता अपनी जिम्मेवारियों को संतुलित रूप में निभाने में असफल रही है……सहित कई सवाल-जवाब, पटना पुस्तक मेला के दौरान मीडिया के योद्धाओं ने, मीडिया के उपर वैचारिक हमला बोला और हमले के बचाव खड़े भी दिखें।

लोकतंत्र का चैथा खंभा ’मीडिया’ सवालों के घेरे में आज है। अपने एथिक्स और मापदंडों के बीच द्वंद में फंसा है, जिस पर अंदर व बाहर से वैचारिक हमले हो रहे हैं। आरोप और सवालों की बौछार मीडियाकर्मी व बुद्धिजीवियों की ओर से आती रही है। ग्यारह दिवसीय पटना पुस्तक मेला के दौरान देश भर के मीडियाकर्मी व बुद्धिजीवियों का जमावड़ा लगा रहा। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला रहा। सबने अपनी-अपनी डफली बचायीं। इसके शोर में जनता के उपजे सवाल यों ही छूट गये।

मीडिया की विकृत होती भाषा पर जाने-माने कवि अशोक वाजपेयी ने सवाल उठाते हुए साफ कहा कि मीडिया, भाषा को विकृत कर रही है। उन्होंने कहा कि इस दौर में मीडिया की भूमिका संस्कृति के क्षेत्र में निंदनीय है। भाषा के प्रति मीडिया की लापरवाही पहले ऐसे कभी नहीं रही। श्री वाजपेयी की चिंता स्वाभाविक है। आज मीडिया जिस दौर से गुजर रही है उस पर तो उंगली उठनी ही है। भाषा से छेड़-छाड़ शब्दों के बेमतलब प्रयोग और खबरों के बेचने के इस दौर में मीडिया पाठकों के बीच क्या परोस रही है? एक संशय पैदा होता है। श्री वाजपेयी ने कहा कि आज मीडिया जन और सामाजिक मुद्दों को तरजीह नहीं दे रही है। अखबार के पन्ने हीरो-हिरोइनों के तस्वीरों से पटी रहती है। उन्होंने क्या खाया, क्या पिया, ये सब आज अखबार के लिए चर्चा का विषय बने हुए हैं, जबकि पहले ऐसा नहीं था। सामाजिक और जन मुद्दों पर गम्भीर चिंतन और मीडिया में विमर्श  झलकता था। आज यह कम हो चुका है। उन्होंने कहा कि मीडिया में अनावश्क रूप से अंग्रेजी शब्दों का समावेश  किया जा रहा है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हिन्दी को मीडिया हटाकर उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित करने में लगी हुई है।

मीडिया पर प्रसिद्ध कवि का गरजना बरसना शायद बिहार की मीडिया को नहीं पच पाया। तभी तो बिहार के सबसे बड़े अखबार का दावा करने वाले एक समाचार पत्र में अशोक वाजपेयी के पटना पुस्तक मेले में अगाज को नजर अंदाज कर दिया गया। अशोक वाजपेयी की खबर एक लाइन में समेटकर छोड़ दी गयी। वहीं, जिस विषय पर श्री वाजपेयी ने अपने विचार प्रकट किये उसे अन्य अखबारों ने जगह प्रदान की। यहां अशोक वाजपेयी सही रहे। ऐसा नहीं की सबसे बड़े अखबार में जगह की कमी पड़ी हो। लेकिन क्या मीडिया की सच्चाई मीडिया को बताने पर उनके कद को कम कर दिया जाय ? यह सवाल खड़ा कर जाता है। वहीं दूसरे अखबारों ने अपने ऊपर हमले को थोड़ा बदलाव कर छापने से परहेज नहीं किया। मीडिया की यह उपेक्षा कोई नई, नहीं है, जब पटना में प्रख्यात पत्रकार प्रभात जोषी ने पेड न्यूज के खिलाफ अपना वक्तव्य दिया था तो पटना के सबसे बड़े अखबार ने उनकी खबर ऐसे प्रकाशित की जैसे कोई आम खबर हो जबकि खबर के बगल में ही एक छपास नेता की तस्वीर के साथ खबर प्रकाशित की गयी थी। हालांकि कुछ ने तो खबर को ही ब्लैकआउट कर दिया था।

ब्रेक के बाद विषय पर न्यूज 24 की एडिटर इन चीफ अनुराधा प्रसाद को बोलने का मौका मिला। उन्होंने मीडिया पर बाजारवाद के प्रभावी होने पर कहा कि, मीडिया को बाजार और नैतिकता में सामंजस्य स्थापित करने की जरूरत है। बदलते दौर में प्रोफेशन और मिशन साथ ही चलेगें। उन्होंने ये भी कहा कि वे मीडिया के उपर हावी बाजारवाद को नकारात्मक तौर पर नहीं बल्कि सकारात्मक दृष्टि से देखती हैं। उदाहरण के तौर पर बाजार नहीं होता और टी वी की टीआरपी नहीं बढ़ती तो अन्ना का आंदोलन खड़ा नहीं होता ? अनुराधा प्रसाद ने राष्ट्रीय मीडिया पर किसी भी तरह के दबाव को खारिज किया और पेड न्यूज का गलत बताते हुए, इसे मीडिया के लिए खतरनाक बताया।

वहीं आईबीएन 7 के प्रबंध संपादक आशुतोष ने मीडिया पर बाजार के प्रभाव पर एक सवाल में कहा कि मीडिया को यह प्रयास करते रहना होगा कि वह बाजार का इस्तेमाल करे, न कि वह खुद इस्तेमाल हो। श्री आशुतोष ’अन्ना का आंदोलन और मीडिया पर सवाल’ विषय पर बोल रहे थे। आशुतोष ने अन्ना के आंदोलन व मीडिया पर उठते सवाल पर कहा कि अन्ना की जनता में वैसी ही साख है जैसे महात्मा गांधी की है। अगर मीडिया ने इस अन्ना को आगे बढ़ाया होता तो दूसरे कई ऐसे नेता है जो मीडिया की मदद से आगे बढ़ जाते। पर ऐसी बात नहीं है। अन्ना पर आम जनता का विष्वास जगा है। उन्होंने कहा, राजनीतिक नेतृत्व, पत्रकारिता व आदोलन तभी सफल हो सकते हैं जब उनकी साख जनता में हो। वहीं, हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक शशिशेखर ने कहा कि इतिहास देरी से फैसला लेता है। अन्ना के आंदोलन पर यही बात लागू होती है। इस आंदोलन को लेकर अभी फैसला होना है यह इतिहास तय करेगा कि उनका आंदोलन सफल है कि नहीं?

आशुतोष जी ने अन्ना की तुलना महात्मा गांधी से कर डाली ?  दर्शकों में सुगबुगाहट हुई। फुसफुसाहट हुई। आशुतोष जी की सोच पर मुस्कुराहट बिखरी। सवाल उठा, कहाँ  गांधी, कहाँ अन्ना ? पत्रकार हैं कुछ भी बोल सकते है? गौरतलब है कि आशुतोष ने अन्ना पर एक किताब ‘अन्ना 13 डेज दैट अवेकंड इंडिया’  लिखी है।

मेले में पत्रकारिता और सत्ता के बदलते विषय पर बिहार प्रेस फ्रीडम मुवमेंट की ओर से आयोजित विचार गोष्ठी को में विरोध के स्वर लहराये। राज्य के पत्रकारों, साहित्यकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक स्वर में कहा कि पत्रकारिता अपनी जिम्मेवारियों को संतुलित रूप में निभाने में असफल रही है। वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर ने कहा कि मुख्यधारा की मीडिया संक्रमण के दौर में है।

 

वहीं वरिष्ठ पत्रकार सुकांत नागार्जुन का मानना था कि  मीडिया की मौजूदा स्तर के लिए खुद पत्रकार ही जिम्मेदार है। वरिष्ठ कवि आलोक धनवा ने विषय पर हस्तक्षेप करते हुए, पत्रकारों को अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को एक बार फिर से समझने की ओर इषारा किया।उन्होंने कहा,पत्रकारों को अपने सामाजिक दायित्व और पत्रकारिता धर्म को उन्हें निभाना होगा।

सामाजिक कार्यकर्ता अनिल प्रकाश ने कहा कि आज समाज के अंदर जो कुछ हो रहा है वह मीडिया में खबर नहीं बन रही है। पत्रकार अपने सामाजिक दायित्व से विमुख हो गये है। अभियान के संचालक-पत्रकार ईशाउद्दुल हक ने कहा मीडिया की भूमिका का आकलन खुद पाठक करता है और पाठक ही फैसला लेता है। लेकिन, यहां मीडिया में जो भी खबर आ रही है। मीडिया बिना किसी मापदंड के उसे परोस रही है। मीडिया सत्ता के करीब आने से अपने दायित्व से हट गयी है। जब मीडिया सत्ता का इस्तेमाल करता है तब सत्ता भी मीडिया का इस्तेमाल करने लगता है।

‘मीडिया में आम आदमी’ के सवाल पर पत्रकार रविप्रकाश, प्रेस  फोटोग्रफर कृष्ण मुरारी कृष्ण, कवि मदन कष्यप, गणेश शंकर विद्यार्थी ने चिंता चाहिर की कि, जब से मीडिया आम आदमी से दूर हुआ है तबसे उसकी विश्वसनीयता में गिरावट आयी है।

मेले के दौरान मीडिया के उपर गंभीर विमर्ष जहाँ दिखा, वहीं मीडियाकर्मियों के अंदर फुसफुसाहट भी सुनाई पड़ी। बाजार और नैतिकता की बात हो या फिर जनपक्षीय मुद्दों से मीडिया के भटकाव का। मीडियाकर्मियों की चिंता यह रही कि ये बड़े पत्रकारों की अपनी चोंचलेबाजी है। मीडियाकर्मियों के बारे में कोई कुछ नहीं कहता। सभी नैतिकता और मौलिकता की दुहाई देते रहते हैं। सच क्या है सब जानते हैं।

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