टिड्डियों के उत्पात से किसान ख़ौफ़ज़दा

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■ डॉ. सदानंद पॉल

टुकनी, अंखफोड़वा, पतंगे इत्यादि टिड्डियों के नाम ही हैं । यह गर्मी के मौसम में थोड़े दिनों के बारिश के बाद धूप खिलने पर समूहों में निकल पड़ते हैं । खरीफ फसलों में लगने वाले कीट में एक प्रमुख कीट टिड्डी भी है । इसका प्रकोप बढ़ जाने पर फसलों को काफी नुकसान पहुंचता है इसकी रोकथाम करना अत्यन्त जरूरत है । यह कीट-पतंगे कम समय में अधिक तेजी से बढ़ता है । एक टिड्डी न्यूनतम से लेकर सौ तक अंडे देते हैं तथा एक छोटा कीट पांच सप्ताह में वयस्क हो जाता हैं । इसके बाद एक माह के बाद फिर वह  छोटा कीट अंडे देने लगता है । इसका विकास उन स्थानों पर तेजी से होती है, जहाँ पर जलवायु में परिवर्तन होते रहता है । अभी देश में जो मौसम की स्थिति बनी हुई है उसके अनुसार इनकी प्रजनन के लिए अनुकूल है । विकिपीडिया के अनुसार, टिड्डी यानी Locust ऐक्रिडाइइडी व Acridiide परिवार के ऑर्थाप्टेरा/Orthoptera समूह का कीट है। हेमिप्टेरा (Hemiptera) गण के सिकेडा (Cicada) समूह का कीट भी टिड्डी या फसल डिड्डी (Harvest Locust) कहलाता है। इसे लधुश्रृंगीय टिड्डा (Short Horned Grasshopper) भी कहते हैं। संपूर्ण संसार में इसकी केवल छह जातियाँ पाई जाती हैं। यह प्रवासी कीट है और इसकी उड़ान दो हजार मील तक पाई गई है।यूनियन पीडिया के अनुसार, टिड्डियाँ संपूर्ण संसार में केवल छह जातियाँ पाई जाती हैं। यह प्रवासी कीट है और इसकी उड़ान दो हजार मील तक पाई गई है।

यह कीट एकवचन में घातक नहीं होते हैं, अपितु बहुवचन में घातक होते हैं। ध्यातव्य है, विश्व में मनुष्य से भी पहले कीटों का अस्तित्व रहा है। वे जमीन के नीचे से लेकर पहाड़ी की चोटी तक सर्वव्या‍पी हैं। कीट मनुष्य की जिंदगी से बहुत अधिक जुड़े हुए हैं। इनमें से कुछ मनुष्यों के लिए लाभदायक हैं और कुछ बहुत अधिक हानिकारक हैं, इनमें से एक रेगिस्तानी टिड्डी है जो विश्व में सबसे अधिक हानिकारक कीट है। वे अनंतकाल से ही मनुष्य के लिए संकट बने हुए हैं। टिड्डियां छोटे सींगों वाले प्रवासी फुदके होते हैं जिन पर बहुत से रंगों के निशान होते हैं और ये बहुत अधिक भोजन खाने के आदी होते हैं। ये झुंड (वयस्क समूह) और हापर बैंड्स यानी अवयस्क समूह बनाने में सक्षम होते हैं। ये प्राकृतिक और उगाई हुई वनस्पति को बहुत अधिक क्षति पहुंचाती हैं। यह वास्तव में सोए हुए दानव हैं जो कभी-भी उत्तेजित हो जाते हैं और फसलों को बहुत अधिक क्षति पहुंचाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप भोजन और चारे की राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति पैदा हो जाती है। चौधरीचरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त गवार विशेषज्ञ बीडी यादव ने कहा है कि मौसम में ज्यादा नमी बढ़ने से गवार की फसल को बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया है। इस मौसम में हरा तेला और सफेद मक्खी के कारण भी फसल प्रभावित होती है। ऐसे में किसानों का इनसे बचाव के लिए सजग रहना चाहिए। इन बीमारियों से फसल को बचाने के लिए शुक्रवार को गांव दोगड़ा अहीर, कलवाड़ी, लहरोदा बड़गांव में गवार फसल पर स्वास्थ्य प्रशिक्षण शिविर लगाया गया, जिसमें मुख्यातिथि कृषि विज्ञान केंद्र, महेंद्रगढ़ डॉ. जयलाल यादव थे, जबकि अध्यक्षता डॉ. रमेश यादव ने की। इस शिविर में किसानों को बीमारियों की रोकथाम के बारे में जानकारी दी गई। इस बारे में उन्होंने बताया कि इस बीमारी से गवार के हरे पत्ते किनारी से पीले काले होने शुरू हो जाते है। अगर इन बीमारियों को शुरू में काबू नहीं किया गया तो बाद में गंभीर रूप धारण कर लेती हैं। इस दौरान किसानों को रोग ग्रस्त पौधे दिखाकर इन बीमारियों के लक्षण समझाए गए। इस दौरान डॉ. यादव ने किसानों को सलाह दी कि कृषि विक्रेताओं की सलाह लेकर कृषि अधिकारी तथा कृषि वैज्ञानिक की सलाह लेकर ही दवाई का इस्तेमाल करें। उन्होंने बताया कि इन बीमारियों की रोकथाम के लिए 30 ग्राम स्ट्रैप्टोसाइक्लिन 400 ग्राम कॉपर ऑक्सीक्लोराइट को 20 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। इस दौरान कीट विशेषज्ञ डॉ. आरके सैनी ने कहा कि अगर रस चूसने वाले कीड़ों का आक्रमण इसके साथ हो तो उपरोक्त घोल में 250 ग्राम मैलाथियान या रोगोर 30 ई.सी. मिलाकर प्रति एकड़ छिड़काव करें। इसका पहला छिड़काव बिजाई के 40-45 दिन पर करें तथा अगला स्प्रे इसके 12-15 दिन के अंतराल पर करें। शिविर में किसानों को नि:शुल्क स्ट्रैप्टोसाइक्लिन के 5 पाउच तथा एक-एक फेसमास्क वितरित किए। उन्होंने सभी किसानों को हिदायत दी कि स्प्रे करते वक्त फेसमास्क का जरूर इस्तेमाल करें। दैनिक भास्कर ने एतदर्थ रपट बनाई है, तो बीबीसी के अनुसार, इस समस्या के समाधान के लिए ऐसे उपायों की तलाश की जा रही है, जो कि पर्यावरण के लिहाज से उपयुक्त हों । इनमें जैविक कीटनाशक और प्राकृतिक शिकारी शामिल हैं, लेकिन सामान्य तरीके से इनका सामना करने के लिए कीटनाशक का छिड़काव किया जाता है । इस विधि से काफ़ी कम समय में ही हैंड पंप, गाड़ियों और हवाई जहाज की मदद से काफ़ी बड़ी मात्रा में टिड्डियों को मारा जा सकता है। क्रेसमेन कहते हैं, कीनिया, इथियोपिया और आदर्श स्थिति में सोमालिया में भी हवाई जहाज से कीटनाशक का छिड़काव किया जाना आवश्यक है, लेकिन सुरक्षा व्यवस्था की वजह से ये संभव नहीं है। चूंकि टिड्डों की आबादी इस समय व्यस्क है. ऐसे में उन पर हवाई जहाज से हमला करना जरूरी है । इससे हम प्रजनन के लिए तैयार टिड्डों की संख्या घटा सकते हैं।

यह कीट बहुसंख्यकों में आकर कृषि व फसलों पर गिरकर उनका नुकसान पहुँचाते है यानी अल्पवयस्क फसल पतेंगे कीट के कारण मर-खप जाते हैं । रोजगार और निर्माण के अनुसार, पौधों और कीटों के रिश्तों को और गहराई से देखा जाए। यह अध्ययन केवल कीटों के शरीर क्रिया विज्ञान और विकास की जानकारी के लिए ही नहीं है, बल्कि इससे यह भी पता चलता है कि पौधों में उपस्थित वाष्पशील और अवाष्पशील पदार्थ कीटों को कैसे प्रभावित करते हैं। इस अध्ययन से पर्यावरण के लिए सुरक्षित कीटनाशक बनाए जा सकते हैं। ऐसे कुछ कीटनाशी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में उपलब्ध भी हैं। यह अध्ययन मनुष्यों के लिए तो महत्वपूर्ण और उपयोगी है ही, पर्यावरण और इकॉलॉजी पर भी प्रकाश डालेंगे । कीट की वृद्धि और विकास में कई अवस्थाएं होती हैं जिनमें वह अपना बाहरी कठोर आवरण (क्यूटिकल) बदलता है। इस प्रक्रिया को कायांतरण या एक्डाएसिस कहते हैं। इस प्रक्रिया का नियंत्रण करने वाले हार्मोन को एक्डाएसोन नाम दिया गया है। इस हर्मोन को अलग करके इसे पहचानने का काम ए ब्यूटेनांट और पी कार्लसन ने 1954 में रेशम कीट यानी बॉम्बिक्स मोरी में किया था। कुल पाँच सौ किलोग्राम मादा कीटों में से उन्होंने 25 मिग्रा हार्मोन प्राप्त किया था। हम अब जानते हैं कि एक्डाएसोन एक पूर्व-हार्मोन है, असली हार्मोन बीस हाइड्रॉक्सी एक्डाएसोन का निर्माण कीटों के शरीर में हायड्रॉक्सीलेशन के जरिए होता है। कीटों के शरीर में कोलेस्ट्रॉल इस हार्मोन के रूप में परिवर्तित हो जाता है। हालांकि कीटों में कोलेस्ट्रॉल बनाने की क्षमता कम होती है इसलिए ये इसे बाहर से ग्रहण करते हैं। ये इसे पौधों से प्राप्त बीटा-सिटोस्टेरॉल से बनाते हैं।

कोरोना कहर के बाद उम्फान तूफान, मूसलाधार बारिश, फिर गर्मी और लू और अब टिड्डियों के कहर से लोग तो परेशान हो ही गए हैं, किन्तु किसान का जीना दूभर हो गया है।

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