पापा की नसीहतों ने ज़िंदगी बदल दी

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fatherशम्‍स तमन्‍ना
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पापा आज हमारे बीच नहीं हैं. लेकिन उनका स्नेह, उनकी मुस्कुराहट साया बनकर हमेशा मेरे साथ रहेगा। जानता था गंभीर स्थिति में पहुँच चुका कैंसर उन्हें हमसे कभी भी दूर कर सकता है. लेकिन यह कभी सोचा ही नहीं था कि पापा का साथ इतना जल्दी भी छूट जायेगा। 24 मई 2016 की वह सुबह जब मैं ऑफिस में सुबह 6 बजे का बुलेटिन कराकर फ्री हुआ था, करीब सवा सात बजे थे कि भाई का फ़ोन आया, रिंग सुनते ही किसी अनहोनी की आशंका से दिल थरथर काँपने लगा, फ़ोन उठाया तो भाई की आवाज़ सुनी “भाईजान जल्दी घर आ जाओ, पापा नहीं रहे. थोड़ी देर पहले उनका इंतेक़ाल हो गया” लगा जैसे मुझपर क़यामत आ गई. समझ में नहीं आया कि यह क्या हो गया? 20 मई को उनके पास से वापस आया था. तबियत ज़्यादा बिगड़ने का सुनकर फिर 25 मई का टिकट बना लिया था, ऑफिस में कह भी दिया था कि अब वापस तभी आऊंगा जब पापा अच्छे होकर हॉस्पिटल से घर वापस आजायेंगे। लेकिन अल्लाह को कुछ और ही मंज़ूर था. पापा का साया सर से उठने का सुनकर बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगा. सहकर्मियों ने मुझे संभाला और इंचार्ज को सूचना देकर फ़ौरन घर निकलने की सलाह दी. लेकिन दिल्ली से मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार) पहुंचना इतना आसान भी नहीं था. दिल कर रहा था काश! ऐसी कोई मशीन होती कि मैं बटन दबाता और पल भर में अपने पापा के पास मौजूद होता। जल्दी पहुंचने का सिर्फ एक ही रास्ता था कि मैं फ्लाइट से पहुंचु क्योंकि ट्रेन 24 घंटे से पहले पहुँच नहीं सकती थी. लेकिन फ्लाइट का इंतज़ाम करना मुश्किल था. इस बीच दूारका में रहने वाली छोटी मौसी को सारी बातों से अवगत कराया। उन्होंने थोड़ी देर में मुझे फ़ोन किया और बताया कि उन्होंने अपना और मेरा पटना के लिए फ्लाइट का टिकट बुक कर लिया है, मुझे फ़ौरन एयरपोर्ट पहुँचने को कहा. इस बीच भाई का फ़ोन आया “भाईजान हमलोग पापा को लेकर पटना हॉस्पिटल से निकल चुके हैं, दोपहर तक मुज़फ़्फ़रपुर पहुँच जायेंगे, तुम कबतक पहुँचोगे, ताकि कफ़न-दफ़न का इंतज़ाम कर सकें?” मैंने बताया कि फ्लाइट से आ रहा हूँ आंटी (छोटी मौसी) के साथ. शाम तक घर पहुँच जाऊंगा, तो उन्होंने कहा कि तुम्हारा इंतज़ार रहेगा फिर बाद नमाज़ ईशा (रात की नमाज़) तदफ़ीन (अंतिम संस्कार) करेंगे। जल्दी-जल्दी एयरपोर्ट पहुँचा। शुक्र था कि भारतीय रेल की तरह फ्लाइट लेट नहीं होती है. सही वक़्त पर जहाज़ ने उड़ान भरी और पायलट ने अगले डेढ़ घंटे में पटना पहुँचने का अनाउंस किया।
अगले डेढ़ घंटे में मेरे सामने पापा से जुड़ी बहुत सारी यादें गुज़रने लगीं। उनके वह उसूल जिसपर वह मरते दम तक क़ायम रहे, उनकी नसीहतें जो कई बार बिना बताये हमें देते थे, उनका सोचने और समझने का वह तरीका जिससे हर कोई उनका क़ायल हो जाता था, ज़िंदगी जीने का उनका सादगी भरा अंदाज़ और सबसे बड़ी बात हैसियत से भी कम पैर पसारने और ज़्यादा सब्र करने की उनकी आदत. सोचता हूँ जाने कैसे पापा ऐसा कर लेते थे? अपनी ज़िंदगी की डिक्शनरी में उन्होंने लालच और जलन जैसे शब्दों को कभी शामिल ही नहीं होने दिया। ज़िंदगी में ऐसे कई लम्हात आये जब हमने पापा के उसूलों का विरोध किया “पापा आप क्यूँ बुरा चाहने वालों को भी माफ़ कर देते हैं, क्यूँ नहीं उन्हें उनके ही अंदाज़ में जवाब देते हैं?” लेकिन पापा हमेशा मुस्कुराकर सिर्फ एक ही जवाब देते थे “जाने दो अल्लाह हिसाब करने वाला है, हम कौन होते हैं बदला लेने वाले।” तब उनका यह जवाब मुझे पसंद नहीं आता था और गर्म खून होने के चलते हमेशा उनके इस उसूल का विरोध किया करता था. विरोध हम उस वक़्त भी करते थे जब वह अपने डॉक्टरी पेशे में ग़रीब मरीजों से नाममात्र की फीस लिया करते थे और कई बार अपनी छुट्टी और आराम करने के समय के भी आने वाले मरीजों को बिना अतिरिक्त फीस लिए देखा करते थे. वक़्त बदलने के साथ जैसे-जैसे परिपकव्ता आती गई पापा के उसूलों का मतलब भी समझ में आने लगा. फिर तो अपने पिता से ज़्यादा खुद पर इस बात का गर्व होने लगा कि मैं एक ऐसे फरिश्ता रूपी इंसान का बेटा हूँ जो अपने दुश्मन से भी मुहब्बत से पेश आता है. जिसके दिल में किसी के लिए गिला-शिकवा समुद्र की रेत की तरह है. फिर अचानक आँखों से गिरते आँसूं ने मुझे याद दिला दिया कि आज वह फरिश्ता मुझसे हमेशा-हमेशा के लिए जुदा हो गया है.
20 साल पहले की वह घटना मैं कभी नहीं भूल पाया हूँ जब हम सब गर्मी की छुट्टी मनाने ननिहाल जा रहे थे. उस वक़्त हम ज्वाइंट फैमिली में रहा करते थे और साथ रहने की वजह से कुछ अनबन भी होती रहती थी, हर बार पापा की ख़ामोशी की वजह से हमें चुप रहना पड़ता था. लेकिन जवानी के जोश में मैं हमेशा बदला लेने की फ़िराक़ में रहता था. इसीलिए छुट्टी पर ननिहाल जाने से पहले मैंने इलेक्ट्रिक में कुछ ऐसा कर दिया कि उनलोगों को परेशानी होती। जब हम लोग स्टेशन पहुँचने वाले थे तो मम्मी ने पापा को मेरी कारिस्तानी बता दिया। मुझे आजतक याद है पापा की आँखों में आंसूं आ गए और उन्होंने कहा कि जो दूसरों को तकलीफ दे वह मेरी औलाद नहीं। मुझसे ही कोई गुनाह हो गया जो ऐसी औलाद मुझे मिली है. मम्मी ने उन्हें बहुत समझाया लेकिन पापा स्टेशन से वापस घर आये और इलेक्ट्रिक को उन्होंने फिर से ठीक किया। उस घटना ने मेरी ज़िंदगी का रुख मोड़ दिया था. मैं जानता हूँ आज पापा हमारे साथ नहीं है, लेकिन जीवन के हर मोड़ पर उनकी नसीहतें और उसूल मुझे राह दिखाती रहेंगी।

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शम्‍स तमन्‍ना
लेखक विगत कई वर्षों से प्रिंट एवं इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। बिहार तथा दिल्ली के कई प्रमुख समाचारपत्रों में कार्य करने के अलावा तीन वर्षों तक न्यूज एजेंसी एएनआई में भी अपनी सेवाएं दे चुके हैं। खेल तथा विभिन्न सामाजिक विषयों पर इनके आलेख प्रभावी रहे हैं। वर्तमान में मीडिया के साथ ग्रामीण क्षेत्रों की समस्याओं पर कार्य करने वाली गैर सरकारी संस्था चरखा में ऐसोसिएट एडिटर के पद पर कार्यरत हैं।

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