फ़ादर्स डे बनाम तर्पण

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मनोज कुमार
रिश्ते में हम तेरे बाप लगते हैं, तब लगता है कि बाप कोई बड़ी चीज होता है लेकिन बाज़ार ने ‘फादर्स डे’ कहकर उसे भी टेडीबियर की शक्ल दे दी है। ब्च्चे उन्हीं की जेब काटकर, उन्हें गिफ्ट देते हैं। उपहार कहने पर बाज़ार की नज़रों में देहाती हो जाएंगे, इसीलिए गिफ़्ट कहना ही ठीक रहेगा। ये डे का कॉन्सेप्ट बाज़ार के है, क्योकि भारत में बाप आज भी वैसा ही है, जैसा कि फ़ादर डे के पहले था। रफू किये कपड़े और फ़टी बनिया एक बाप को बाप बनाता है क्योंकि वह बाप बच्चों को नए कपड़ों में देखकर खुश होता है। उसकी तमन्ना तब पूरी होती है जब उसके बच्चे जीने लायक नौकरी पा लें। बहुत मजबूरी हो तब बच्चों से वह ना कहता है, वरना उनकी हर ज़रूरत बाप की खुशी होती है, मज़बूरी नहीं। वह बाप तो आज भी है लेकिन वह डैडी कब बन गया, उसे ही खबर नहीं हुई। बाप से डैडी बनकर बच्चों का स्टेटस तो बढ़ा दिया लेकिन खुद गुम हो गया। खुशी के साथ ज़रूरत पूरी करने वाला आज का डैडी एटीएम मशीन बन गया है। डैडी बोलें या बाप, ज़रूरत तो आज भी है लेकिन इस ताने के कि अब साथ ज़माना बदल गया है। ऐसा लगता है मानो बच्चे नई सदी में आसमां से उतरकर आये हैं। बाज़ार ने डे के ज़रिए रिश्तों को सिम्बोलिक बना दिया। एक तरह से यूज़ एंड थ्रो में बदलकर रख दिया है। अब इमोशन की रिश्तों में कोई जगह नहीं। कोई अहमियत नहीं बची है और बाजार के इस दौर में इसकी उम्मीद करना भी बेमानी है। 
फादर्स डे पर कल बाज़ार गुलज़ार होगा। डेड के नाम पर इमोशनल अत्यचार होगा। बाप कहो, पिता या डैड, बाज़ार के हवाले होंगे। उस पिता को कोई याद भी नहीं करेगा जिन्हें ओल्डएज होम छोड़ दिया गया है क्योंकि वे शायद बाप से डैड बन नहीं पाए। उनके बैंक अकाउंट में बाज़ार की ताकत बची नहीं थी। ऊपर से जवाब देती उम्र और बीमारी उन्हें डैड बनने से बाज़ार रोक रहा है। जिनके जेब में दम नहीं, उनके हम नहीं को बाज़ार पढ़ा रहा है, समझा रहा है। ओल्डएज होम भी इसी सोच की बुनियाद पर टिकी है। अभी तो शुरुआत है, आज के बेटे कल डैड नहीं बन पाए तो बाप और पिता के लिए ओल्डएज होम बाहें पसारे स्वागत के लिए आकुल है। जो लोग फादर्स डे सेलिब्रेट करने जा रहे हैं, वे लोग जान लें कि हमारी भारतीय संस्कृति में पिता के लिए तर्पण की सुविख्यात परम्परा है। फर्क इतना है कि फादर्स डे डैडी के सक्षम होते हुए मनाया जाता है जबकि तर्पण पिता के निधन के पश्चात उनकी आत्मा की शांति के लिए। तर्पण की इस परम्परा को फ़ादर्स डे निगल जाए तो कोई हैरत नहीं होना चाहिए। इस समय आप बाज़ार के साथ नहीं, बाज़ार अपने साथ आपको लिए चल रहा है, तब सारी बातें बेमानी हो जाती है।
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मनोज कुमार
सन् उन्नीस सौ पैंसठ के अक्टूबर माह की सात तारीख को छत्तीसगढ़ के रायपुर में जन्म। शिक्षा रायपुर में। वर्ष 1981 में पत्रकारिता का आरंभ देशबन्धु से जहां वर्ष 1994 तक बने रहे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित हिन्दी दैनिक समवेत शिखर मंे सहायक संपादक 1996 तक। इसके बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य। वर्ष 2005-06 में मध्यप्रदेश शासन के वन्या प्रकाशन में बच्चों की मासिक पत्रिका समझ झरोखा में मानसेवी संपादक, यहीं देश के पहले जनजातीय समुदाय पर एकाग्र पाक्षिक आलेख सेवा वन्या संदर्भ का संयोजन। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी पत्रकारिता विवि वर्धा के साथ ही अनेक स्थानों पर लगातार अतिथि व्याख्यान। पत्रकारिता में साक्षात्कार विधा पर साक्षात्कार शीर्षक से पहली किताब मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1995 में पहला संस्करण एवं 2006 में द्वितीय संस्करण। माखनलाल पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता शोध परियोजना के अन्तर्गत फेलोशिप और बाद मे पुस्तकाकार में प्रकाशन। हॉल ही में मध्यप्रदेश सरकार द्वारा संचालित आठ सामुदायिक रेडियो के राज्य समन्यक पद से मुक्त.

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