ना निकला घर से ;
पटाखों की लड़ियाँ ,
और फुलझड़ियाँ ,
सुहाने गगन में ,
कहर बन के बरसे ;
प्रदूषण के डर से ,
ना निकला घर से ;
हर मोड़ पर है मधुशाला ,
हर हाथ में मस्ती का प्याला ;
कैसे बचाऊँ तुम्हें ,
इस जहर से ;
प्रदूषण के डर से ,
ना निकला घर से ;
कहाँ है दिवाली ,
कहाँ खुशहाली ;
उसे देखनें को ,
ये नैना तरसे ;
प्रदूषण के डर से ,
ना निकला घर से ;
तूफां में जलते दीयों के नजारें ,
घनें बादलों में छिपे है सितारे ;
जाऊँ तो कैसे ,
पथरीली डगर से ;
प्रदूषण के डर से ,
ना निकला घर से ;
साल के बाद आयेगी फिर से दिवाली ,
झोली रहें ना किसी की खाली ;
ब्लॉग से ही बधाई हो ,
मेरी तरफ से ;
प्रदूषण के डर से ,
ना निकला घर से ;
—– अशोक बजाज