हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने वाले पहले राष्ट्राध्यक्ष: नेताजी सुभाषचंद्र बोस

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· डॉ. अमरनाथ


ओड़िशा के कटक में 23 जनवरी 1897 को जन्मे, कटक और कलकत्ता में पले-बढ़े, पिता की इच्छापूर्ति के लिए मात्र 23 वर्ष की आयु में आईसीएस पास करने वाले किन्तु अंग्रेजों की चाकरी करने को तैयार न होने के कारण उससे त्यागपत्र देने वाले, आजादी के लिए लड़ते हुए ग्यारह बार जेल जाने वाले, जेल में रहते हुए चुनाव लड़कर 1930 में कलकत्ता का महापौर चुने जाने वाले, भरी जवानी में तपेदिक से बीमार होने के कारण इलाज के लिए यूरोप जाने और बीमारी की अवस्था में ही ‘द इंडियन स्ट्रगल, 1920-1942’ नामक दो खंडों की मशहूर पुस्तक लिखने वाले, वियना में ऑस्ट्रियाई युवती एमिली शेंकल से प्रेम, बाद में विवाह और एक बेटी ( अनीता बोस) को जन्म देने वाले, 1936 में भारत लौटने पर गिरफ्तार होने और एक साल बाद रिहा होने के बाद बहुमत से कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने वाले, किन्तु गाँधी जी की इच्छा का ध्यान रखते हुए 16 मार्च 1939 को अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने वाले, गाँधी जी तथा काँग्रेस की नीतियों से असंतुष्ट होकर 3 मई 1939 को फॉरवर्ड ब्लॉक नाम से स्वतंत्र पार्टी का गठन करने वाले, घर में नजरबंदी के दौरान 26 जनवरी 1941 को पुलिस को चकमा देते हुए जियाउद्दीन के नाम से छद्मवेश में फरार होने और काबुल होते हुए मास्को और फिर बर्लिन पहुँचकर ‘आजाद हिन्द रेडियो’ स्थापित करने वाले, हिटलर से मिलने के बाद उससे सहयोग का आश्वासन न मिलने पर जर्मन और जापानी पनडुब्बियों पर सवार होते हुए मई में टोकियो पहुँच कर जापानी प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो से मिलने और जापान की संसद को संबोधित करने वाले, 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने आजाद हिन्द फौज के सुप्रीम कमांडर के रूप में सेना को संबोधित करते हुए ‘दिल्ली चलो’ का आह्वान करने वाले, ‘जय हिन्द’, तथा ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ जैसे अमर नारा देने वाले, आजाद हिन्द फौज और जापानी सेना के साथ मिलकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के खिलाफ युद्ध का उद्घोष करने वाले, 21 अक्टूबर 1943 को सिंगापुर में आरिजी- हुकूमते- आजाद हिन्द ( स्वाधीन भारत की अंतरिम सरकार) का गठन करने वाले, अपना ध्वज, अपना बैंक, अपनी मुद्रा, अपना डाक टिकट, अपनी गुप्तचर सेवा सहित शासन का पूरा तंत्र विकसित करने वाले, अपनी आजाद हिन्द सरकार के लिए जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, वर्मा, मान्चुको तथा आयरलैंड से मान्यता प्राप्त करने वाले, अंडमान तथा नीकोबार द्वीप समूह में 8 नवंबर 1943 को तिरंगा फहराने वाले, महिला फौजियों की ‘रानी झाँसी रेजीमेंट’ के साथ 85000 सैनिकों की विशाल पल्टन तैयार करने वाले, 4 अप्रैल 1944 को अंग्रेजों पर आक्रमण करके 22 जून 1944 तक इंफाल और कोहिमा में लगातार युद्ध करने वाले, 6 जुलाई 1944 को ‘आजाद हिन्द रेडियो’ पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधी जी को सबसे पहले ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित करने वाले और उनसे आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगने वाले और अंतत: 18 अगस्त 1945 को एक कथित विमान दुर्घटना में सदा- सदा के लिए दुनिया को अलविदा कहने वाले नेता जी सुभाषचंद्र बोस यदि आज भी देश के करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करते हैं तो यह स्वाभाविक ही है.

   यदि उनके द्वारा किए गए कार्यों के प्रमाण न होते तो विश्वास करना कठिन होता कि कोई व्यक्ति अपनी 48 वर्ष की अल्प आयु में इतना सारा काम भी कर सकता है.

हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने वाले पहले राष्ट्राध्यक्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस ही थे. वैसे तो उन्होंने हिन्दी या हिन्दुस्तानी के लिए कभी कोई आन्दोलन नहीं किया किन्तु अपने अनुभवजन्य सहज ज्ञान से उन्होंने भली-भाँति समझ लिया था कि आजाद भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी ही हो सकती है. इसीलिए उन्होंने आजाद हिन्द सरकार की राष्ट्रभाषा ‘हिन्दुस्तानी’ को चुना. ‘जय हिन्द’ नारा दिया और रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित ‘जन गण मन’ को अपना राष्ट्रगान यानी, ‘कौमी तराना’ घोषित किया किन्तु उसे नए सिरे से “शुभ सुख चैन की बरखा बरसे भारत भाग्य है जागा” के रूप में हिन्दुस्तानी में लिखवाया. उल्लेखनीय है कि गाँधी जी भी इसी हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे.

सुभाषचंद्र बोस ने हिन्दी की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी. हिन्दी क्षेत्र में काम करने का उन्हें कोई अनुभव भी नहीं था. किन्तु अपने सहज ज्ञान के बलपर उन्होंने समझ लिया था कि आजाद भारत की राष्ट्रभाषा बनने की योग्यता एकमात्र हिन्दुस्तानी में ही है. उन्होंने 1929 ई. में कहा था, “प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी, उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती. अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए, उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं, पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है.” इसीलिए कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के समय उन्होंने आग्रह किया था कि, “यदि देश में जनता के साथ राजनीति करनी है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है. बंगाल के बाहर मैं जनता में जाऊँ तो किस भाषा में बोलूँ ? इसलिए काँग्रेस का सभापति बनकर मैं हिन्दी खूब अच्छी तरह न जानूँ तो काम नहीं चलेगा. मुझे एक व्यक्ति दीजिए, जो मेरे साथ रहे और मेरा हिन्दी का सारा काम कर दे. इसके साथ ही जब मैं चाहूँ और समय मिले तब मैं उससे हिन्दी सीखता रहूँ.”

इसके बाद श्री लक्ष्मीनारायण तिवारी को, जो निष्ठावान कांग्रेसी थे और हिन्दी के अच्छे जानकार थे, सुभाषचंद्र बोस के साथ रखा गया था. हरिपुरा कांग्रेस में तथा सभापति के दौरे के समय वह बराबर नेताजी के साथ रहते थे. नेताजी ने बड़ी लगन से हिन्दी सीखी और बहुत अच्छी हिन्दी लिखने पढ़ने और बोलने लगे. आजाद हिन्द फौज का काम और सुभाष बाबू के वक्तव्य अमूमन हिन्दी में ही होते थे. वे भली भाँति जानते थे कि जिस देश के पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं होती, वह खड़ा नहीं रह सकता.

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से जब ब्रिटिश सेना पर आक्रमण किया तो अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए उन्होंने ” दिल्ली चलो” का नारा दिया था. उन्होंने अंग्रेजों से अंडमान और नीकोबार द्वीप जीत लिये और उन्होंने इन द्वीपों को “शहीद द्वीप” और “स्वराज द्वीप” का नया नाम दिया था.

  नेताजी सुभाषचंद्र बोस के इस हिन्दी प्रेम का व्यापक असर देश की भाषा- नीति पर पड़ा और हिन्दी को निर्विवाद रूप से आजाद भारत की राजभाषा बनने में सफलता हासिल हुई. महात्मा गाँधी की तरह नेताजी भी हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे. और जैसा कि ऊपर कहा गया है उन्होंने अपने आजाद हिन्द सरकार की राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी को घोषित किया था. यदि गाँधी और सुभाष की भाषा नीति का अनुपालन करते हुए आजादी के बाद हमारे नेताओं ने हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाया होता तो भारत की भाषा समस्या का बहुत कुछ समाधान हो गया होता. यद्यपि 15 अगस्त 1947 को पं. नेहरू ने भी लाल किले से अपने पहले भाषण का समापन “जय हिन्द” से करते हुए अपना मनोभाव व्यक्त कर दिया था. किन्तु खेद का विषय है कि संविधान निर्माण के समय भारत की राष्ट्रभाषा पर जब बहस हो रही थी तब न तो गाँधी जी जीवित थे और न नेता जी. देश का धर्म- आधारित बँटवारा भी हो चुका था. ऐसी दशा में हिन्दुस्तानी की जगह हिन्दी को राजभाषा बनाने वालों का पलड़ा भारी हो गया और हिन्दी भारत की राजभाषा घोषित हो गई और वह भी केवल कागजों पर. व्यवहार में अंग्रेजी यथावत चलती रही.

खेद है, आजादी के लगभग पचहत्तर साल बीत जाने के बाद आज भारत की भ्रामक भाषा नीति या नीति विहीन भाषा नीति के चलते देश को एक सूत्र में जोड़ने वाली गाँधी-सुभाष की वह हिन्दुस्तानी इतिहास में कहीं खो गई, लोक की सहज हिन्दी कृत्रिम राजभाषा की चक्की में पिस गई, कुछ शुद्धतावादियों के पाण्डित्य के बोझ तले सिमट गई और बची- खुची आंग्ल भाषा की आहार बन रही है. कभी ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दूस्तान’ का नारा लगाने वाली तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार इसे सिर्फ अशिक्षितों की भाषा बना देने पर आमादा है.

बहरहाल, नेताजी के प्रताप का ही असर है कि आजाद हिन्द फौज द्वारा अपनाया गया रामसिंह ठाकुर का निम्नलिखित गीत आज भी भारतीय सेना के प्रयाण गीत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

क़दम-क़दम बढ़ाए जा
खुशी के गीत गाए जा

यह जिंदगी है कौम की

तू कौम पे लुटाए जा।

तू शेरे हिन्‍द आगे बढ़

मरने से फिर भी तू न डर

उड़ा के दुश्‍मनों का सरजोशे-वतन बढ़ाए जा।

क़दम-क़दम…
तेरी हिम्‍मत बढ़ती रहे
खुदा तेरी सुनता रहे

जो सामने तेरे अड़े

तो खाक में मिलाए जा।

क़दम-क़दम…
चलो देहली पुकार के
क़ौमी निशाँ सँभाल के

लाल किले पे गाड़ के

लहराए जा, लहराए जा।

क़दम-क़दम…

हम नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती के अवसर पर हिन्दी/हिन्दुस्तानी के लिए किए गए उनके महान योगदान का स्मरण करते हैं और इस असाधारण महानायक के प्रति अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं.

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