खाद्य सुरक्षा से संभव है कुपोषण पर काबू

नवनीत कुमार गुप्‍ता 

प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने हाल ही में कुपोषण पर एक सर्वे रिपोर्ट जारी की जिसके अनुसार हमारे देश में पांच साल से कम आयु वाले 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने चिंता जताते हुए कुपोषण को राष्‍ट्रीय शर्म बताया। उन्होंने नीति निर्माताओं और कार्यक्रमों को लागू करने वालों को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पेयजल और पोषण के बीच कई कड़ियों को स्पष्‍ट रूप से समझने और उसके अनुसार अपनी गतिविधियों को आकार देने की जरूरत पर जोर दिया। गैर सरकारी संगठन नंदी के सर्वेक्षण ‘हंगामा कुपोषण रिपोर्ट-2011’ के अनुसार कुपोषण का शिकार हर तीसरा बच्चा भारतीय है। गंभीर चिंतन का विषय तो यह है कि कुपोषण के मामले में हमारा स्तर कई मामलों में गरीब सहारा अफ्रिका के देषों से भी अधिक है। संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार भारत में 23 करोड़ लोग भूख के शिकार हैं। भारत में हर दिन 5,000 बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं। भारत में महिलाओं की आधी आबादी खून की कमी से जूझ रही हैं। असल में हमारे देश में एक बड़ी आबादी गरीब है उसके पास उतना पैसा भी नहीं है कि वह पेट भरने लायक अनाज खरीद सके। योजना आयोग के अनुसार देश की 37.2 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे रह रही है। यह हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि आज भी बच्चे और महिलाएं व्यापक रूप से कुपोषण से ग्रस्त हैं। इसलिए भूख की लड़ाई में हमें सबसे पहले गरीबों के जीवन में सुधार लाना होगा और इसके लिए राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था को एक साथ कार्य करना होगा ताकि सभी को पोषणयुक्त आहार उपलब्ध कराया जा सके। इस संबंध में केंद्र सरकार द्वारा लोकसभा में खाद्य सुरक्षा विधेयक को प्रस्तुत करना इस दिषा में महत्वपूर्ण कदम है। इसके अमल में आ जाने से देश की 63.5 प्रतिशत आबादी को अति न्यूनतम दाम पर भोजन पाना कानूनी अधिकार बन जाएगा। नंदी के सर्वेक्षण में ऐसी अनेक बातें सामने आईं है जिनका सीधा संबंध खाद्य सुरक्षा से है।

असल में भोजन सभी जीवों की प्राथमिक आवश्यकता है। जीने की लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है जो उसे भोजन से मिलती है। हर व्यक्ति को चाहे वह अमीर हो या गरीब अपना पेट तो भरना ही होता है। लेकिन यह विडम्बना ही है कि आज भी करोड़ों लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल पा रहा है। असल में मानव जनसंख्या के बहुत बड़े भाग के लिए पोषणयुक्त आहार तक की पहुंच आज भी सपना ही है। भारत के सामने भी एक अरब से ज्यादा लोगों के लिए पोषण युक्त आहार उपलब्ध कराने की चुनौती है। स्वतन्त्रता के बाद से ही सबके लिए पर्याप्त भोजन की उपलब्धता हमारा राष्‍ट्रीय लक्ष्य रहा है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का यह कथन कि ”सभी इंतजार कर सकते हैं, लेकिन खेती नहीं” खाद्य सुरक्षा की महत्ता को प्रतिपादित करता है। वैसे कुछ लोग कहते हैं कि आज हमारे अनाज भंडारों में गेंहू और चावल की प्रचुरता है लेकिन यदि इन भंडारों के होते हुए भी जिस देश में लाखों लोग अपना पेट भी न भर सकें तो भला ये भंडार किस काम के। भले ही हमने तेज रफ्तार से विकास किया हो लेकिन पोषण युक्त आहार के मामले में यह विकास अभी भी आम आदमी तक नहीं पहुंच पाया है। नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के अनुसार यदि विकास दर बढ़ने से गरीबों को कोई लाभ नहीं होता तो इस तरह का विकास निरर्थक है। आधुनिक दौर में जहां एक तरफ पूंजीवाद तथा उसके जुड़ीं मान्यताएं फली-फूलीं वहीं दूसरी ओर बाजारवादी व्यवस्था भूख को मुनाफ़े के धंधे के रूप में परिवर्तित करने में लगी हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्वास्थ्य व पोषण की कमी को हथियार बनाकर अपने फायदे की नीतियां और कार्यक्रम थोप कर दोनों हाथों से धन बटोर रही हैं। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि कंपनियों और बाजार की सांठगांठ ने हमारी परंपरागत और प्राकृतिक खाद्य व्यवस्था के ताने-बाने में सेंध लगा दी है। एक समय हमारे देश में करीब 50 से 60 हजार धान की किस्में बोई जाती थीं लेकिन आज महज कुछ ही प्रमुख किस्मों को उगाया जाता है जो हमारी समृद्ध जैव विविधता के लिए चिंता का विषय है। रासायनिक खेती के बढ़ते प्रयोग ने मिट्टी में पाए जाने वाले असंख्य प्रकार के लाभकारी सूक्ष्मजीवों का तेजी से सफाया करने के साथ ही हमारी आहार शृंखला से कई आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्वों को भी दूर किया है। जिसके कारण आज एक बड़ी आबादी जिंक जैसे महत्वपूर्ण तत्वों की कमी का सामना कर रही है। अब बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा कृत्रिम रूप से इन पोषक तत्वों को आहार में शामिल करने का अभियान चलाया जा रहा है ताकि वो अपनी तिजोरियां भर सकें।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीतियों के कारण हम परंपरागत खेती से दूर हो गए और उनके रासायनिक दवाओं व आनुवांशिक बीजों को अपनाकर अपनी मिट्टी और पानी को अनजाने में ही जहरीली बना दिया। लेकिन अब हमारे देश के किसानों को धीरे-धीरे यह समझ आ रहा है कि रासायनिक दवाओं एवं ऊर्वरकोंं के जरिए खेती में स्थायी समृद्धि नहीं लायी जा सकती। इसलिए देश में कई स्थानों पर परंपरागत खेती का बिगुल बज उठा है और आवश्यकता के अनुसार आधुनिक तकनीकों का भी उपयोग किया जा रहा है लेकिन इस बात का पूरा ध्यान रखा जा रहा है कि हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित न हो। हालांकि कृषि क्षेत्र के लिए ग्लोबल वार्मिंग एक गंभीर चुनौती है। सिंतबर, 2009 में संयुक्त राष्ट्र संघ की एक विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट ने औसत तापमान में प्रति डिग्री बढ़त से भारत में गेहूं की उपज में प्रतिवर्ष 60 लाख टन कमी की आशंका जताई है। इसी आधार पर वैश्विक उत्पादन में आने वाली कमी का अंदाजा लगाया जा सकता है। बढ़ते तापमान का प्रभाव अनेक फसलों पर पड़ने के कारण खाद्य सुरक्षा का महत्व और भी बढ़ जाता है। हालांकि भारत खाद्यान्न मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो चुका है और पिछले दो-तीन सालों में चल रहे वैश्विक खाद्यान्न संकट जैसी स्थिति हमारे देश में नहीं दिखी। आज सरकार के पास भंडारण क्षमता से ज्यादा अनाज के भंडार हैं। अनाज की कुल भंडारण क्षमता 430 लाख टन है जबकि अगस्त, 2010 तक सरकारी एजेंसियों के पास 580 लाख टन अनाज का भंडार था। लेकिन वास्तविकता में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता में गिरावट आई है। जहां सन् 1961 में प्रतिव्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 468.7 ग्राम थी वह 2007 में घटकर मात्र 439.3 ग्राम रह गई। यह बात भी सच है कि भंडारण क्षमता से अधिक अनाज जमा होने पर उसका काफी हिस्सा खराब हो जाता है। इसलिए खाद्य भंडारण के लिए आधुनिक तकनीकों को अपनाने के साथ पारंपरिक तरीकों की ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि अनाज के प्रत्येक दाने का समुचित उपयोग हो सके।

बदलते जलवायु के संदर्भ में परंपरागत कृषि ज्ञान एवं देशी बीजों को बचाने एवं उनके उपयोग करने का विचार उपयोगी होगा। हमारे देश में बीजों की अनेक स्थानीय किस्में हैं। देशी बीजों को बचाने के संदर्भ में हमारे देश में कार्यरत भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् व कृषि क्षेत्र के विकास से संबंधित अन्य संस्थाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। इन संस्थाओं में देसी बीजों को आधुनिक तकनीकों का उपयोग कर अधिक उन्नत बनाया जा सकता है। जिससे अधिक पैदावार ली जा सकती है। इसी क्रम में जैव प्रौद्योगिकी द्वारा अब कुछ ऐसी फसलें उगाना संभव हुआ है जो सूखे का सामना करने में कुछ हद तक समर्थ हो सकती हैं। इसी दृष्टि से यदि कभी राजस्थान में उगने वाले खेजड़ी वृक्ष का जीन, गेहूँ के बीजों में डाला जाना संभव हुआ तो फिर पानी की कमी वाले क्षेत्रों में भी गेहूँ की फसल लहराएगी। इसके अलावा किसानों को बाजार व बड़ी कंपनियों की गिद्ध दृष्टि से बचाने के लिए भी अब यह आवश्यक हो गया है कि हम अपने देशी बीज व खाद का उपयोग परंपरागत व आधुनिक तकनीकों के साथ करें। कृषि में उपयोग किए जाने वाले ऐसे रसायनों के निर्माण को बढ़ावा देना चाहिए जो जैव-विविधता को भी कोई नुकसान न पहुँचाए। पर्यावरण अनुकूल ‘सदाबहार कृषि’ जैव-विविधता और किसान दोनों के लिए लाभकारी होगी।

सभी लोगों तक पोषित भोजन की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए क्रय शक्ति और रोजगार को बढ़ावा देना होगा। सरकार को चाहिए कि वह ग़रीब मजदूर को अनाज खरीदने के लिए सक्षम बनाएं ताकि कम से कम वह अपना पेट को भर सकें। आज भारत को स्थायी हरित क्रांति पर आधारित ऐसी खाद्य सुरक्षा की आवश्यकता है जिसके द्वारा आर्थिक और सामाजिक रूप से संतुलित आहार एवं पेयजल की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के साथ ही पर्यावरण की सफ़ाई और स्वस्थ्यचर्या को आम आदमी के जीवन का अभिन्न हिस्सा बनाया जा सके। इसके साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए खाद्यान्नों के उत्पादन व वितरण की व्यवस्था को प्रभावी बनाए जाने की भी आवश्यकता है ताकि धरती से उपजा अनाज का प्रत्येक दाना खाद्य सुरक्षा में अपना योगदान दे सकें। तभी हम आने वाली पीढ़ी को कुपोषण जैसी गंभीर समस्या से बचाने में सफल हो पाएंगे। (चरखा फीचर्स) 

4 COMMENTS

  1. इकबाल हिन्दुस्तानी जी, जब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश नहीं लगेगा,तब तक ये सब ऐसे ही चलते रहेंगे. कार्पोरेट सेक्टर की दलाली वगैरह सब भ्रष्टाचार की ही देन है.

  2. सवाल यह है की सुधार कैसे और कौन करे क्योंकि सरकार तो कोर्पोराते की दलाल बनकर काम क्र रही है.

  3. नवनीत जी,आपने भारत की वर्तमान दुर्दशा का वर्णन करते हुए बहुत सी हिदायते भी दे डाली हैं,पर मेरे ख्याल से आपने यह बताया ही नहीं कि विकास का इतना ढोल पीटने के बाद भी हमारी इस दुरावस्था कारण क्या है?अगर भूखमरी और कुपोषण के मामले में हमारा स्तर दुनिया के तथा कथित गरीब देशों से भी नीचे है तो हमारी गिनती दुनिया के उत्कृष्ट शक्तियों(सुपर पावर्स) में क्यों की जानी चाहिए?प्रधानमंत्री आज कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बता रहे हैंक्या इस स्थिति को समझने में उन्हें आठ वर्ष लग गए?जिस तरह यू पी ए १ के समय सबके लिए रोजगार योजना आरम्भ करके २००९ में वोट बटोरा गया था,उसी तरह यह नई योजना २०१४ में वोट बटोरने के लिए है.ऐसे मेरे विचार से राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा भी इसका समाधान नहीं है. .आप सड़ी हुई जन वितरण प्रणाली के द्वारा ही तो इसे कार्यान्वित करेंगे.यहसर्व विदित है कि कितना अच्छा अनाज असली उपभोक्ता तक पहुँच सकेगा.हाँ इससे एक लाभ अवश्य होगा कि गोदानों में सड़ रहे अनाज गरीबों की देहरी तक पहुंचा अवश्य दिए जायेंगे और आंकड़ों द्वारा शायद यह सिद्ध भी कर दिया जाएगा कि इस व्यवस्था को कार्यान्वित करने से कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या में गिरावट आयी है,पर स्थिति कमोवेश वही रहेगी.जब तक भ्रष्टाचार पर अंकुश नही लगता तब तक इस तरह की कोई जन हित कारी योजना सफल हो ही नहीं सकती.

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