विदेश नीति के माहिर मोदी

लोकसभ चुनाव में ऐतिहासिक जीत के बाद बनी मोदी सरकार 6 महीने पूरे करने जा रही है…इन 6 महीनों में मोद सरकार की चर्चाएं ग्लोबल हो गई हैं…न केवल भारत बल्कि विश्व में मोदी के नाम का डंका बज रह है…इसका बड़ा कारण है और वो है मोदी की विदेश नीति…चीन हो या पाकिस्तान, अमेरिका हो या ऑस्ट्रेलिया मोदी सबको जरूरत के हिसाब से तवज्जो दी है, या आंखें दिखाई हैं…मोदी की विदेश नीति का आंकलन इसी बात से ही किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 6 महीने के भीतर 36 देशों का दौरा कर चुके हैं… भूटान से शुरू हुआ यह सफर फिजी में ख़त्म हुआ.. इस दौरान मोदी पूरी दुनिया में छा गए…न्यूयार्क के मेडिसन स्क्वायर से लेकर सिडनी के अल्फोंस एरीना में दिए गए मोदी के भाषणों ने उनकी छवि एक ग्लैबल रॉक स्टार की बवन दी है…राजनीतिक स्तर पर शायद ही किसी नेता को रॉकस्टार का दर्जा मिला हो..खैर यह तो मोदी के व्यक्तित्व की खासियत थी कि उन्हें विदेशों में भी इतना प्यार मिल रहा है…लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर भी मोदी कामयाबी की तरफ बढ़ रहे हैं…पिछले कुछ सालों से वाजपेई और आई के गुजराल की विदेश नीति को देश के लिए सबसे बेहतर माना जाता है मगर कुछ पहलुओं में मोदी न इन दोनों नेताओं को भी पीछे छोड़ दिया है.

अपने शपथ ग्रहण में मोदी ने सार्क नेताओं को आमंत्रित यह जता दिया था कि उन्हें लंबा फासला तय करना है लेकिन इसके लिए वे पूरी तरह से योजना भी बना चुके हैं..विदेश नीति के मोर्चे पर सबसे पहली प्राथमिकता हमारे पड़ोसियों से अच्छे संबंध बनाने की थी..पाकिस्तान के साथ यह सिलसिला शुरू करने क कवायद तो हुई लेकिन पड़ोसी देश के रवैये और सीमा पर लगातार गोलीबारी के चलते प्रस्तावित वार्ता रद्द करनी पड़ी..मोदी को इसके लए भले ही विपक्ष की आलोचना सहनी पड़ी लेकिन सरकार पाकिस्तान को कडा संदेश देने मे कामयाब रही…वाजपेई के शासन में पाकिस्तानी आतंकियों के सामने सरकार झुकने को मजबूर हुई थी खूंखार आतंकियो को रिहा किया गया था..लेकिन मोदी सरकार इसके उलट जल्द से जल्द देश के दुश्मनों को गिरफ्त में लाने की योजना पर काम कर रही है.

हमारे पड़ोसी और आर्थिक प्रतिस्पर्धी चीन के साथ पिछले कुछ सालों में हमारे रिश्तो को सुधारने की बहुत कम कवायद हुई…मनमोहन सरकार ने चीन के साथ संबंधो को लेकर सकारात्मक पहल की थी जिसे आगे बढ़ाया नरेंद्र मोदी ने…सीमा पर लगातार घुसपैठ पर मोदी चुनाव प्रचार में चीन पर आक्रामक रुख अपनाते रहे..लेकिन सत्ता में आते ही वे ये समझ गए कि चीन को मात देने के लिए उसकी जैसी ही चाल चलनी होगी..लिहाजा चीन की घेराबंदी के लिए मोदी ने सबसे पहले नेपाल और भूटान की यात्राएं की..विदेशमंत्री सुषमा स्वराज को थाईलैंड भेजा…राष्ट्रपति विएतनाम की यात्रा पर गए…इससे पहले की चीन कुछ समझ पाता मोदी ने जापान का दौरा कर चीन की घेराबंदी में एक और कदम बढ़ा लिया..विएतनाम के पीएम भारत और कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए जिससे चीन आग बबूला हो गया…इसी कड़ी मे मोदी ने भारत-आसियान सम्मेलन के दौरान क्षेत्र के कई अहम देशों के साथ अलग अलग मुलाकातें की..यहां तक कि एशिया पैसेफिक द्वीपों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर भारत ने चीन के लिए जाल बुन लिया..हालांकि चीन के सामरिक संबंधों के अलावा व्यापारिक संबंधों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता लिहाजा प्रधानमंत्री शी जिनपिंग को भारत बुलाकर मोदी ने बड़ा दांव चला..विवादित सीमा को लेकर जिनपिंग के भारत दौरे को मोदी भुना नहीं पाए ..लेकिन आर्थिक विकास और आपसी व्यापार को लेकर कई समझौते हुए, मेक इन इंडिया और स्मार्ट सिटी जैसे प्रोजेक्ट कि लिए चीन 35 अरब डॉलर का निवेश करने पर राजी हुआ..ब्रिक्स और जी-20 सम्मेलन के दौरान भी मोदी न अन्य देसों के जरिए यह कहलवाने की कोशिश की कि दक्षिण एशिया में शांति स्थापना के साथ साथ शक्ति का संतुलन भी जरूरी है

लुक ईस्ट नीति भारत की विदेश नीति का अहम पहलू रहा है… इसकी शुरुआत 1991 में हुई और इसे प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव के शासन काल में विकसित और लागू किया गया…वाजपेयी की सरकार ने भी इसे कड़ाई से अपनाया..मनमोहन सरकार के दौरान जापान के साथ रिश्तों में और भी प्रगाढ़ता आई लेकिन जापान का इस्तेमाल भारत चीन के खिलाफ नहीं कर सका..मोदी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए जापान और विएतनाम के जरिए चीन को घेरने की कोशिश की और आशियान देशों के साथ संबधों को नई ऊंचाई देने के लिए लुक ईस्ट की जगह एक्ट ईस्ट पॉलिसी का नारा दिया..जापान ने मोदी क दो महत्कांक्षी प्रोजेक्ट स्मार्ट सिटी और बुलेट ट्रेन के लिए मदद देने का भी आश्वासन दिया, 55 अरब डॉलर निवेश करने का भरोसा दिलाया..आसियान देशों को भी मोदी ने मेक इन इंडिया के लिए निवेश का न्यौता दिया

अमेरिका के साथ भारत के संबंध छले 10 साल में काफी गहरे हुए हैं…वाजपेई सरकार ने संतुलित विदेश नीति अपनाते हुए परमाणु परीक्षण किया तो अमेरिका न बैन लगा दिया था..तब भारत और अमेरिका के बीच आपीस संबध इतने अच्छे नहीं थे..लेकिन मनमोहन सरकार ने अमेरिका पर पूरा फोकस किया..इसका नतीजा यह जिस अमेरका ने कभी परमाणु परीक्षण के नाम पर बैन लगाया था..उसी अमेरिका से भारत ने असैन्य परमाणु करार किया..बुश के बाद ओबामा प्रशासन ने भी भारत के प्रति सौहार्दपूर्ण रुख अपनाया..सत्ता बदली तो ओबामा ने मोदी को खुद फोन कर पीएम बनने की बधाई दी..यानि संकेत साफ था कि अमेरिका भारत के साथ बहुत आगे जाना चाहता है..अब अमेरिका भी समझ चुका था कि वैश्विक मंचों पऱ बारत की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता लिहाजा मोदी के वीजा बैन पर पाबंदी हटा ली गई..मोदी को अमेरिका जाने का न्यौता मिला और अमेरिकी दौरे पर मोदी-ओबामा के बीच हुई..इस दौरान व्यापार, आतंकवाद और रक्षा क्षेत्रों पर जोर दिया गया ..इस बीच डब्ल्यूटीओ के व्यापार सरलीकरण समझौते (एफटीए) पर भारत ने अपना दांव चला और यह एग्रीमेंट पास नहीं होने दिया..अमेरिका को भारत की ताकत का अहसास हुआ..जी-20 में फिर से अमेरिका से इस बात पर चर्चा हुई और भारत एफटीए के लिए राजी हो गया…मोदी और ओबामा एक दूसरे की मन की बात नहीं समझ पाए तो मोदी ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए ओबामा को गणतंत्र दिवस परेड में मुख्य अथिथि के तौर पर आमंत्रित किया..यानि रिश्तों में गर्माहट लाने की एक और कोशिश..

वाजपेई और मनमोहन सिंह के समय रूस से हमारे संबंध काफी दोस्ताना थे..वाजपेई के दौर में रूस हमारे लिए सबसे बड़ा हथियार निर्यातक था…लेकिन मोदी की विदेश नीति में अब तक रूस हाशिए पर है..हालांकि ब्रिक्स औऱ जी-20 के जरिए रूस को साधने की कोशिश की गई है..हो सकता है कि विदेश नीति के माहिर खिलाड़ियों की तरह मोदी ने यह पत्ता अभी न खोला हो..मगर ध्यान भी ध्यान रखान होगा कि जिस तरह का दबाव इस समय रूस पर बन रहा है उस पर भारत की चुप्पी से कहीं बहुत देर न हो जाए

 

 

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