क्या महज ‘‘औपचारिक‘‘ रह गई है गांधी टोपी!

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 लिमटी खरे

कांग्रेस का इतिहास गौरवमयी रहा है, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है। एक दशक से कांग्रेस अपने मूल मार्ग से भटक चुकी है। अब सत्ता की मलाई चखना, भ्रष्टों को प्रश्रय देना, जनता जनार्दन का गला रेतकर उसकी जेब से पैसा निकालना कांग्रेस का मूल मंत्र बन गया है। आधी सदी से ज्यादा इस देश पर शासन करने वाली कांग्रेस आज गांधी के नाम को भुनाकर सत्ता सुख भोग रही है, किन्तु गांधी टोपी को पहनना कांग्रेस के हर नेता यहां तक कि कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी तक को नागवार गुजरता है। यही कारण है कि सेवा दल की सलामी के वक्त गांधी टोपी को सर पर रखकर रस्म अदायगी करने वाले नेता चन्द क्षणों में ही इसे उतारकर मुस्कुराते हुए अपने अंगरक्षक के हवाले कर देते हैं। कहते हैं नंगा सिर अच्छा नहीं माना जाता। मर्द के सर पर टोपी और औरत के सर पर पल्लू संस्कार की निशानी होती है, जो दोनांे ही चीजें आज विलुप्त हो गईं हैं।

कहने को तो कांग्रेस द्वारा गांधी नेहरू परिवारों का गुणगान किया जाता है, किन्तु इसमें राष्ट्रपिता मोहन दास करमचंद गांधी का शुमार है या नहीं यह कहा नहीं जा सकता है। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, के बाद अब सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इर्द गिर्द ही कांग्रेस की सत्ता की धुरी घूमती महसूस होती है। वैसे तो महात्मा गांधी और उनकी अपनाई गई खादी को भी अपनी विरासत मानती आई है कांग्रेस। पर अब लगता है कि वह इन दोनों ही चीजों से दूर होती चली जा रही है। अधिवेशन, चुनाव, मेले ठेलों में तो कांग्रेसी खादी के वस्त्रों का उपयोग जमकर करते हैं, किन्तु उनके सर से गांधी टोपी नदारत ही रहा करती है।

कांग्रेस सेवादल के ड्रेस कोड में शामिल है गांधी टोपी। जब भी किसी बड़े नेता या मंत्री को कांग्रेस सेवादल की सलामी लेनी होती है तो उनके लिए चंद लम्हों के लिए ही सही गांधी टोपी की व्यवस्था की जाती है। सलमी लेने के तुरंत बाद नेता टोपी उतारकर अपने अंगरक्षक की ओर बढ़ा देते हैं, और अपने बाल काढ़ते नजर आते हैं, ताकि फोटोग्राफर अगर उनका फोटो लें तो उनका चेहरा बिगड़े बालों के चलते भद्दा न लगे।

इतिहास गवाह है कि गांधी टोपी कांग्रेस विचारधारा से जुड़े लोगों के पहनावे का हिस्सा रही है। अस्सी के दशक के आरंभ तक नेताओं के सिर की शान हुआ करती थी गांधी टोपी। पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू हों या मोरारजी देसाई, किसी ने शायद ही इनकी कोई तस्वीर बिना गांधी टोपी के देखी हो। आज भी महाराष्ट्र सहित अनेक सूबों के ग्रामीण इलाकों में गांधी टोपी दैनिक पहनने वाली वेशभूषा का अभिन्न अंग है।

लगता है कि वक्त बदलने के साथ ही साथ इस विचारधारा के लोगों के पहनावे में भी अंतर आ चुका है। अस्सी के दशक के उपरांत गांधी टोपी धारण किए गए नेताओं के चित्र दुर्लभ ही देखने को मिलते हैं। करीने से काढे गए बालों और पोज देते नेता मंत्री अवश्य ही दिख जाया करते हैं। गांधी नेहरू के नाम पर सियासी मलाई चखने वाले नेताओं को गांधी टोपी पहनना वजन से कम नहीं लगता है।

आधुनिकता के इस युग में महात्मा गांधी के नाम से पहचानी जाने वाली गांधी टोपी अब नेताओं के सर का ताज नहीं बन पा रही है। इसका स्थान ले लिया है कांग्रेस के ध्वज के समान ही तिरंगे दुपट्टे और भाजपा के भगवा दुपट्टे (गमछे) ने। जब नेता ही गांधी टोपी का परित्याग कर चुके हों तो उनका अनुसरण करने वाले कार्यकर्ता भला कहां पीछे रहने वाले हैं। इन परिस्थितियों में सियासी गलियारों में भला गांधी के सिद्धांतों को कौन मानने वाला रह जाएगा। कौन उनके सच्चाई, ईमानदारी, स्वयं का काम खुद करो आदि जैसे सिद्धांतों का अनुपालन करने वाला रह जाएगा।

एसा नहीं कि गांधी टोपी आजाद भारत के लोगों के सिरों का ताज न हो। आज भी महाराष्ट्र में अनेक गांव एसे हैं, जहां बिना इस टोपी के कोई भी सिर दिखाई दे जाए। इसके साथ ही साथ कर्नाटक और तमिलनाडू के लोगों ने भी गांधी टोपी को अंगीकार कर रखा है। यह गायब हुई है तो बस सियासतदारों के सिर से। नेहरू गांधी के नाम पर राजनीति करने वाली कांग्रेस की युवा पीढ़ी के अगुआ राहुल गांधी भी साल में एकाध मर्तबा ही गांधी टोपी में नजर आते हैं जब उन्हें कांग्रेस सेवादल की सलामी लेना होता है। बाकी समय तो वे खुले लहराते बालों को संवारते ही नजर आते हैं।

अस्सी के दशक के आरंभ तक अनेक प्रदेशों में चतुर्थ श्रेणी के सरकारी नुमाईंदों के ड्रेस कोड में शामिल थी गांधी टोपी। इस टोपी को पहनकर सरकारी कर्मचारी अपने आप को गोरवांन्वित महसूस भी किया करते थे। कालांतर में गांधी टोपी ‘‘आउट ऑफ फैशन‘‘ हो गई। यहां तक कि जिस शख्सियत को पूरा देश राष्ट्रपिता के नाम से बुलाता है, उसी के नाम की टोपी को कम से कम सरकारी कर्मचारियों के सर की शान बनाने मंे भी देश और प्रदेशों की सरकरों को जिल्लत महसूस होती है। यही कारण है कि इस टोपी को पहनने के लिए सरकारें अपने मातहतों को पाबंद भी नहीं कर पाईं हैं। आज टोपी लगाने का काम सुरक्षा एजेंसियों को ही करना पड़ रहा है। जिलों के कलेक्टर या नेता भी स्वाधीनता दिवस या फिर गणतंत्र दिवस पर सलामी के वक्त सर पर टोपी रखते हैं, किन्तु वह गांधी टोपी की बजाए पूर्वोत्तर राज्यों से बुलाई गई विशेष किस्म की टोपी हुआ करती है।

यह सच है कि नेताओं की भाव भंगिमओं, उनके आचार विचार, पहनावे को उनके कार्यकर्ता अपनाते हैं। जब नेताओं के सर का ताज ही यह टोपी नहीं बन पाई हो तो औरों की कौन कहे। यहां तक कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की वर्किंग कमेटी में उपसिथत होने वाले नेताओं के सर से भी यह टोपी उस वक्त भी नदारत ही मिलती है। देश के पहले नागरिक तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति कलाम ने भी कभी गांधी टोपी को धारण करना मुनासिब नहीं समझा।

मर्द के सर पर टोपी और औरत के सर पर पल्लू, अच्छे संस्करों की निशानी मानी जाती है। फिर आधी सदी से अधिक देश पर राज करने वाली लगभग सवा सौ साल पुरानी कांग्रेस के नेताओं को इसे पहनने से गुरेज कैसा। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू रहे हों या महामहिम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद, किसी ने कभी भी इनकी बिना टोपी वाले छायाचित्र नहीं देखे होंगे। आधुनिकता और पश्चिमी फैशन की चकाचौंध में हम अपने मूल संस्कार ही खोते जा रहे हैं, जो निश्चित तौर पर चिंताजनक कहा जा सकता है।

वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने एक सूबे में तो वन्दे मातरम को सरकारी कार्यालयों मंे अनिवार्य कर दिया है। यह सच है कि भाजपा का जन्म राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के आचार विचारों से ही हुआ है। क्या संघ के पूर्व संस्थापकों ने कभी गांधी टोपी को नहीं अपनाया? अगर अपनाया है तो फिर आज की भाजपा की पीढ़ी इससे गुरेज क्यों कर रही है? क्यों भाजपा शासित राज्यों में सरकारी नुमाईंदों को गांधी टोपी अनिवार्य नहीं की जा रही है। कारण साफ है कि आज की युवा पीढ़ी की नजरों में गांधी के सिद्धांत आप्रसंगिक हो चुके हैं।

युवाओं के पायोनियर (अगुआ) बन चुके कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी भी किसी कार्यक्रम में अगर जरूरत पड़ती है तो गांधी टोपी को सर पर महज औपचारिकता के लिए पहन लेते हैं, फिर मनमोहक मुस्कान देकर इसे उतारकर अपने पीछे वाली कतार में बैठे किसी नेता को पकड़ा देते हैं। फिर अपनी उंगलियों से राहुल अपने बाल संवारते नजर आ जाते हैं। आज मंत्री मण्डल का एक भी सदस्य गांधी वादी विचारधारा के प्रहसन के लिए ही सही गांधी टोपी को नही धारण करता नजर आता है।

अगर देश के नेता गांधी टोपी को ही एक वजनयुक्त औपचारिकता समझकर इसे धारण करेंगे तो फिर उनसे गांधी के सिद्धांतें पर चलने की आशा करना बेमानी ही होगा। यही कारण है कि कुछ दिनों पूर्व संसद के सत्र में कांग्रेस के शांताराम लक्ष्मण नाइक ने सवाल पूछा था कि क्या महात्मा गांधी को उनके गुणो, ईमानदारी, प्रतिबद्धता, विचारों और सादगी के साथ दोबारा पैदा किया जा सकता है। इस समय उनकी बहुत जरूरत है। हम सब अपने उद्देश्य से भटक गए हैं और हमें महात्मा गांधी के मार्गदर्शन की जरूरत है। भले ही यह महात्मा गांधी के क्लोन से ही मिले।

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लिमटी खरे
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2 COMMENTS

  1. लिमती भाई आप ने बहुत शानदार विषय उठाया हैं …..आप की एक एक बात से सहमत हूँ

  2. अभी कल कुछ पुरानी पुस्तकें पलटते हुए एक पुस्तक सामने आ गयी जिसमे सीए ऐ ओ ह्युम, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, बदरुद्दीन तय्यब जी तथा कुछ अन्य महानुभावों के भाषण संकलित थे.भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में ज्यादातर महानुभावों का विचार यही था की केवल उन्ही बातों की चर्चा की जाये जिन पर किसी का विवाद न हो. शायद आज़ादी के आन्दोलन के दौरान यह उचित लगा होगा लेकिन इस मनोवृत्ति के कारन देश की एकता एवं अखंडता के बारे में विरोधी विचारधारा के लोगों से विचार विमर्श तक नहीं किया गया. और इसी का परिणाम ये हुआ की देश का विभाजन हो गया. संवादहीनता संभवतः कांग्रेस की जन्मजात परंपरा रही है.और इसी में से अपने मत को ही सर्वोचित मान कर अधिनायकवाद का रास्ता खुलता है.

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