औपनिवेशिक कानूनों से मुक्ति की तैयारी

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प्रमोद भार्गव

आजादी के 68 साल बाद ही सही,यह अच्छी बात है कि मोदी सरकार औपनिवेशिक कानूनों से मुक्ति की तैयारी में जुट गई है। इन कानूनों से छुटकाराा इसलिए जरूरी है,क्योंकि एक तो इनमें से ज्यादातर कानून फिरंगी हुकूमत ने अपनी सत्ता की स्थापना,क्रांतिकारियों के दमन और सोने की चिडि़या माने जाने वाले देश भारत की संपदा लूटने की दृष्टि से बनाए थे। कई कानून स्वतंत्रता के बाद अप्रासंगिक होने के साथ प्रचलन से तो बाहर हो गए हैं,लेकिन उनका कानूनी वजूद बरकरार है। लिहाजा ऐसे कानून विरोधाभासी हालात पैदा करने में यदा-कदा सहायक बन जाते हैं। ऐसे कानूनों को आधार बनाकर कई सामंत,जिन्होंने आजादी के समय अपने राज्यों का विलय भारत सरकार में करने के साथ अचल संपत्तियां भी सौंप दी गई थीं,वे इन संपत्तियों की वापिसी की कानूनी लड़ाई अदालतों में लड़ रहे हैं। इसलिए इन कानूनों का खात्मा बेहद जरूरी है। इनकी समाप्ति से अदालती कामकाज में भी तेजी आने की उम्मीद है। जाहिर है,इससे समूची कानूनी व्यवस्था सरल व सार्थक होगी।

2 अक्टूबर गांधी जंयती को स्वच्छता अभियान की देशव्यापी शुरूआत हुई है। इस लिहाज से कचरा हो चुके कानूनों की सफाई भी जरूरी है। गोया भ्रामक हालात उत्पन्न करने वाले 287 कानूनों को इसी साल शीतकालीन सत्र में दफनाने की प्रक्रिया लगभग पूरी हो गई है। इनमें से ज्यादातर कानून 1834 से 1898 के बीच फिरंगी हुक्मरान वजूद में लाए थे। इनमें से कई कानून आज हस्यास्पद स्थिति उत्पन्न करने वाले हैं। मसलन,1878 में बने एक कानून के मुताबिक यदि किसी व्यक्ति को सड़क पर नोट पड़ा दिखाई देता है और वह इसकी सूचना पुलिस को नहीं देता तो उसे कारावास हो सकता है। 1887 में बने कानून के अनुसार लोग किसी भी होटल में पेयजल और शौचालय की सुविधा मुफ्त पा सकते हैं। इसी तरह 1934 का एक कानून कहता है कि पतंग बनाने,बेचने और उड़ाने के लिए सरकारी अनुमति जरूरी है। अब भला इन कानूनों के बने रहने का क्या औचित्य है ?

अनेक कानून ब्रिटिश हुकूमत के लिए तात्कालिक महत्व के थे,जिनकी जरूरत नहीं होने के बावजूद वजूद बरकरार है। इन कानूनों में बना 1836 बंगाल जिला अधिनियम,1866 का धर्मातंरित विवाह भंग कानून और 1887 में बना गांगा चूंगी कानून शामिल हैं। इसी तरह 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून के बाद पुराने भूमि अधिग्रहण कानूनों की कोई जरूरत नहीं रह गई है,लेकिन वे बने हुए हैं। नतीजतन ताकतवर लोग इन कानूनों का दुरूपयोग कर अपने हित साधने में सफल हो जाते हैं। इसका सबसे ज्यादा लाभ सामंतों और जमींनदारों ने उठाया है। इन्होंने करोड़ो-अरबों रूपए की परिसंपत्तियां भारत सरकार को विलय कर देने के बावजूद इन्हीं अप्रासांगिक हो चुके कानूनों के जरिए हथिया लीं है। ये कानून दौ सौ साल से भी ज्यादा समय से अप्रचलन में आ चुकने के बाद भी बेजा फायदा उठाने के लिए अस्तित्व में हैं। लिहाजा कानून की पोथियां बेवजह मोटी बनी हुई हैं,ं क्योंकि इनमें एक प्रकृति के सभी कानून संशोधित होने के बावजूद संकलित हैं। इनसे विरोधाभास पैदा करके पहुंच वाले लोग लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं।

सितंबर माह में विधि आयोग ने तत्काल रद्द कर देने लायक 72 कानूनों की सूची विधि मंत्रालय को दी थी। 261 कानूनों को भी आयोग रद्द करने के लिए अघ्ययन कर रहा है। आयोग ने ऐसे 600 कानूनों की सूची भी मंत्रालय को दी है,जो बदलते वक्त के साथ गैर उपयोगी हो चुके हैं। राज्यों में भी ऐसे ढेर सारे कानून हैं,जो गैर जरूरी हो गए हैं,लेकिन अस्तित्व में हैं। लिहाजा इन सरकारों को भी बेकार कानूनों पर झाड़ू फेरनी होगी।

विधि आयोग ने जिन कानूनों को समाप्त करने की राय दी है,उन्हें 49 श्रेणीयों ने बांटा है। वैसे महत्वपूर्ण इनमें तीन श्रेणीयां हैं। पहले वे कानून जो इसी संदर्भ में संशोधित अधिनियम बन जाने के बावजूद किताबों का हिस्सा बने हुए हैं। दूसरे,वे जो बदलते वक्त के साथ अप्रासंगिक हो चुकें हैं और तीसरे वे विनियोग कानून हैं,जिनकी संख्या 700 से भी ज्यादा बताई गई है। विनियोग विधेयकों की उपयोगिता तात्कालिक है। ये हर वर्ष संचित निधि से राशि निकलने के संसद द्वारा पारित किए जाते हैं और फिर व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन विधि-पुस्तकों में दर्ज बने रहते हैं। ब्रिटेन और आस्ट्र्रेलिया में इस तरह के कानूनों के संबंध में ऐसी इबारत भी विधेयक के मसौदे में दर्ज कर दी जाती है कि ये मकसद पूर्ति के बाद खुद-ब-खुद खत्म हो जाते हैं।

भारत के गणतंत्र घोशित होने के बाद देश का राज-काज भारतीय संविधान के अनुसार गतिशील होता रहा है। इस संविधान को डाॅ.भीमराव अंबेडकर की अघ्यक्षता वाली संविधान सभा ने स्वीकृति दी थी। लेकिन पृथक-पुथक विषयों से संबंधित औपनिवेशिक कानून विधिशास्त्रों का अधिकृत हिस्सा बने रहे। लिहाजा इनकी बुनियाद कायम रही। दण्ड प्रक्रिया संहिता और भू-राजस्व संहिता भी औपनिवेशिक तर्ज पर ही बनीं चली आ रही हैं। जबकि वैधानिक,प्रशासनिक,राजस्व और पुलिस सुधारों को आजादी के तत्काल बाद अमल में लाने की जरूरत थी।

हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने प्रशासनिक कानूनों की समीक्षा के लिए समिति गठित कर इन्हें समाप्त करने की अह्म पहल की थी। इस समिति की सिफारिश पर 1998 में 415 कानून रद्द कर दिए गए थे। लेकिन अभी भी करीब 1000 ऐसे कानून हैं,जिन पर झाडू फेरना जरूरी है। मोदी सरकार इस दिशा में आगे बढ़ रही है। उसने बजट सत्र में ही 36 ऐसे अधिनियमों को खत्म करने का विधेयक पेश किया हुआ है। इनमें मूल कानून तो केवल चार हैं,लेकिन इनमें जो बार-बार संशोधन किए गए हैं उनकी संख्या 32 है। यह विधेयक अभी संसद की स्थायी समिति के पास विचाराधीन है। इससे साफ होता है कि राजग सरकार अनावष्यक कानूनों को लेकर चिंतित है,अन्यथा संप्रग सरकार तो कभी भी बेवजह अड़चन पैदा करने वाले कानूनों को खत्म करने के लिए प्रतिबृद्ध दिखाई नहीं दी। मोदी सरकार 44 श्रम कानूनों को भी रद्द करने की तैयारी में है। क्योंकि ये कानून कामगरों तथा नियाक्ताओं के कल्याण में बाधा बन रहे हैं। जाहिर है,बेमतलब कानूनों को आकलन के बाद चरणबद्ध तरीके से निपटाने की प्रक्रिया सराहनीय है।

यह उल्लेखनीय पहल है कि सरकार कानूनी मकड़जालों से मुक्ति की राह पर निकल पड़ी है। इसके साथ ही न्यायालयों से भी यह दरकरार है कि वे भी कामकाज के औपनिवेशिक ढर्रे से मुक्त हों। पेचेदगियों का सरलीकरण करें। बेमतलब के गवाहों,साक्ष्यों और तकनीकि जांचों से अदालतों को भी छुटकारे की जरूरत है। ज्यादातर अदालती दस्तावेज ऐसी भाषा में तैयार किए जाते हैं,जो भाषा चलन से बाहर हो चुकी है। इस भाषा में अभी भी मुगलकालीन अरबी व फारसी भाषा के ऐसे शब्द प्रयोग में लाए जाते हैं,जिनके अर्थ समझने के लिए बहुभाषी शब्द-कोष खोजने पड़ते हैं। राजस्व अदालतें भी इसी भाषा को चलन में लाती हैं। मसलन,अदालतें भूमि अथवा जमीन की जगह ‘अराजी‘ शब्द का इस्तेमाल करती हैं,जबकि यह शब्द कहीं भी प्रचलन में नहीं है। सर्वोच्च और उच्च न्यायालय केवल अंग्रेजी का प्रयोग करती हंै,जबकि प्रकरण से जुड़े बुनियादी तथ्य स्थानीय भाषा में दर्ज होते हैं। इनका अंगे्रजी में किया अनुवाद भी सही नहीं होता। उच्च न्यायालयों में हाजिर होने वाले कई वकील भी अंगे्रजी में अपना पक्ष ठीक से नहीं रख पाते। इस कारण वे अपने मुवक्किल की पैरवी में पिछड़ जाते हैं। इसी नजरिए से कुछ समय पहले ही मद्र्रास हाईकोर्ट की मदुरै खंठपीठ के वकीलों ने इसलिए धरना-प्रदर्शन भी किया था कि अदालतें राज्य की भाषा में काम करें। लेकिन अदालतें अंगे्रजी के औपनिवेशिक मोहपाश से मुक्त होना ही नहीं चाहती। लिहाजा उन्हें भी इस मोह से मुक्त होने की जरूरत है।

 

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