कुमार कृष्णन
महात्मा गांधी चंपारण में शुरू हुए सत्याग्रह में भाग लेने अप्रैल 1917 में चंपारण पहुंचे थे।उन्होंने किसानों को अंग्रेजों के शोषण से मुक्त करने के लिए पहली बार सत्याग्रह आन्दोलन का रास्ता अपनाया, जो अब वैश्विक इतिहास के एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में दर्ज है।इसी अभियान के साथ किसानों का मुद्दा भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का अभिन्न अंग बना। इससे शुरू हुई प्रक्रिया जमींदारी उन्मूलन तक गयी। इसी आंदोलन ने मोहनदास करमचंद गाँधी को महात्मा गाँधी बनाया। चंपारण सत्याग्रह के दौरान ही गाँधीजी ने आम भारतीय किसान की तरह का लिवास अपनाया और वंचित तबकों से खुद से जोड़ने की कोशिश शुरु की। इससे आम भारतीयों के मन में उनके लिए जगह बनी। इससे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का चरित्र भी बदला ।इस बड़ी घटना ने भारत में लोकतन्त्र का जनाधार तैयार करने में मदद की। परिणामस्वरूप स्वतंत्रता के बाद लोकतांत्रिक व्यवस्था अस्तित्व में आयी।
चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष में देश उस महत्वपूर्ण दौर को याद कर रहा है, उस लड़ाई को याद कर रहा है जिससे किसानों के सवाल भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का अभिन्न अंग बने।वह संघर्ष जिसने दक्षिण अफ्रीका से लौटे मोहनदास करमचंद गाँधी को करोड़ों भारतीयों के दिल में बसा दिया। वह परिघटना जिससे स्वतंत्रता आन्दोलन का फलक व्यापक हुआ। औधोगिक क्रांति के फलस्वरूप नील की मांग बढ़ने के कारण ब्रिटिश सरकार किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे,चंपारण के किसान इससे परेशान थे। 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद नील की आपूर्ति के लिये चंपारण के किसानों पर दबाव और बढ़ा। हजारों भूमिहीन मजदूर एवं गरीब किसान खाद्यान के बजाय नील और अन्य नकदी फसलों की खेती करने के लिये वाध्य हो गये थे।इसके खिलाफ वहाँ के किसान संघर्ष पर उतरे। आगे चलकर किसानों को गांधीजी के सहयोग की जरूरत पड़ी। किसानों के अनुरोध पर गांधीजी वहाँ पर नील की खेती करनेवाले किसानों के हालत का जायजा लेने वहाँ पहुँचे। चंपारण में अंग्रेजों ने नील बनाने के अनेकों कारखाने खोल रखे थे। ऐसे अंग्रेजों को निहले कहा जाता था। इन अंग्रेजों ने चंपारण की अधिकांश ज़मीनों को हथियाकर उस पर अपनी कोठियां बनवा ली थी। ये अंग्रेज यहाँ के किसानो को नील की खेती के लिए मजबूर करते थे। अंग्रेजों का कहना था कि एक बीघे ज़मीन पे तीन कठ्ठे नील की खेती जरूर करें। इस प्रकार पैदा हुई नील को ये निहले कौड़ियों के दाम खरीदते थे। इस प्रथा को तीन कठिया प्रथा कहा जाता था। इस प्रथा के कारण चंपारण के किसानों का भंयकर शोषण हो रहा था। फलतः किसानो में अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक असंतोष फैल चुका था। ये अंग्रेज यहाँ की जनता का अन्य प्रकार से भी शोषण किया करते थे, जिससे व्यथित होकर चंपारण के एक निवासी राजकुमार शुक्ल जो स्वंय एक किसान थे, इस अत्याचार का वर्णन करने के लिए गाँधी जी के पास गये। राजकुमार शुक्ल के सतत प्रयत्नो से ही राष्ट्रीय कांग्रेस के 1916 के अधिवेशन में एक प्रस्ताव प्रस्ताव पारित कर चंपारण के किसानो के प्रति सहानुभूति प्रकट की गई। राजकुमार शुक्ल के साथ गाँधी जी 10 अप्रैल 1917 को पटना पहुँचे और वहाँ से उसी रात्रि मुजफ्फपुर के लिए रवाना हो गये। पटना प्रवास के दौरान गाँधी जी वहाँ के प्रसिद्ध वकील बाबू राजेन्द्र प्रसाद से मिलना चाहते थे परन्तु राजेन्द्र बाबू उस समय वहा मौजूद नही थे। गाँधी जी अपने मित्र मौलाना मजरुल्लहक जो प्रतिष्ठित बैरिस्टर थे, उनसे मिलकर नील की खेती से सम्बंधित समस्या की जानकारी ली और इससे निजात हेतु विचार विमर्श किया। 15 अप्रेल को गाँधी जी मोतिहारी पहुँचे, वहाँ से 16 अप्रैल की सुबह जब गाँधी जी चंपारण के लिये प्रस्थान कर रहे थे, तभी मोतीहारी के एस डी ओ के सामने उपस्थित होने का सरकारी आदेश उन्हे प्राप्त हुआ। उस आदेश में ये भी लिखा हुआ था कि वे इस क्षेत्र को छोङकर तुरंत वापस चले जायें। गाँधी जी ने इस आज्ञा का उल्लंघन कर अपनी यात्रा को जारी रखा। आदेश की अवहेलना के कारण उनपर मुकदमा चलाया गया। चंपारण पहुँच कर गाँधी जी ने वहाँ के जिलाधिकारी को लिखकर सुचित किया कि, “वे तब तक चंपारण नही छोङेगें, जबतक नील की खेती से जुङी समस्याओं की जाँच वो पूरी नही कर लेते।“ जब गाँधी जी सबडिविजनल की अदालत में उपस्थित हुए तो वहाँ हजारों की संख्या में लोग पहले से ही गाँधी जी के दर्शन को उपस्थित थे। मजिस्ट्रेट मुकदमें की कार्यवाही स्थगित करना चाहता था, किन्तु गाँधी जी ने उसे ऐसा करने से रोक दिया और कहा कि सरकारी उलंघन का अपराध वे स्वीकार करते हैं। गाँधी जी ने वहाँ एक संक्षिप्त बयान दिया जिसमें उन्होने, चंपारण में आने के अपने उद्देश्य को स्पष्ट किया। उन्होने कहा कि “वे अपनी अंर्तआत्मा की आवाज पर चंपारण के किसानों की सहायता हेतु आये हैं और उन्हे मजबूर होकर सरकारी आदेश का उलंघन करना पङा। इसके लिए उन्हे जो भी दंड दिया जायेगा उसे वे भुगतने के लिये तैयार हैं।“ गाँधी जी का बयान बहुत महत्वपूर्ण था। तद्पश्चात बिहार के लैफ्टिनेट गर्वनर ने मजिस्ट्रेट को मुकदमा वापस लेने को कहा। इस प्रकार गाँधी जी ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन का ज्वलंत उदाहरण पेश किया। गाँधी जी की बातों का ऐसा असर हुआ कि, वहाँ की सरकार की तरफ से उन्हे पूरे सहयोग का आश्वासन प्राप्त हुआ। चंपारण के किसानो की समस्या को सुलझाने में गाँधी जी को बाबू राजेन्द्र प्रसाद, आर्चाय जे. बी. कृपलानी, बाबू बृजकिशोर प्रसाद तथा मौलाना मजरुल हक जैसे विशिष्ट लोगों का सहयोग भी मिला।
गाँधी जी और उनके सहयोगियों तथा वहाँ के किसानों की सक्रियता के कारण तत्कालीन बिहार सरकार ने उच्च स्तरीय समिति का गठन किया जिसके मनोनीत सदस्य गाँधी जी भी थे। इस कमेटी की रिपोर्ट को सभी पक्षों द्वारा स्वीकार किया गया और तीन कठ्ठा प्रथा समाप्त कर दी गई। इसके अलावा किसानों के हित में अनेक सुविधायें दी गईं। इस प्रकार निहलों के विरुद्ध ये आन्दोलन सफलता पूवर्क समाप्त हुआ। इससे चंपारण के किसानों में आत्मविश्वास जगा और अन्याय के प्रति लङने के लिये उनमें एक नई शक्ति का संचार हुआ। चंपारण सत्याग्रह भारत का प्रथम अहिंसात्मक सफल आन्दोलन था। गाँधी जी द्वारा भारत में पहले सत्याग्रह आन्दोलन का शंखनाद चंपारण से शुरु हुआ। यहाँ किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के लिए ग्रामीण विद्यालय खोले गये। लोगों को साफ-सफाई से रहने का तरीका सिखाया गया। सारी गतिविधियाँ गांधीजी के आचरण से मेल खाती थीं। स्वयंसेवकों ले मैला ढोने, धुलाई, झाडू-बुहारी तक का काम किया। इसके साथ ही गांधीजी का राजनीतिक कद और बढ़ा।
इसके बाद अहमदाबाद के कपड़ा मिल मालिकों और गुजरात के खेङा जिले में लगान के खिलाफ ब्रिटिश सरकार से लड़ाई जीतकर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के सबसे बड़े नेता के रूप में उभरे। सन् 1917 में बहुत अधिक वर्षा होने के कारण फसल बरबाद हो गई थी। जिसकी वजह से भयंकर अकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई। पशु हो या मनुष्य सभी के लिये भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। ऐसी विषम परिस्थिति में खेङा के किसानो ने सरकार से अनुरोध किया कि उनसे इस वर्ष मालगुजारी न वसूल की जाये। श्री अमृत लाल ठक्कर, श्री मोहन लाल पाण्डाया और शंकर लाल पारिख आदि नेताओं ने कमिश्नर को एक प्रतिवेदन देकर उनका ध्यान किसानो की बदहाली की ओर आकृष्ट किया। गुजरात सभा की अध्यक्ष की हैसियत से गाँधी जी ने भी सम्बन्धित अधिकारियों को पत्र लिखकर एवं तार भेजकर प्रार्थना की, कि मालगुजारी की वसूली को स्थगित कर दिया जाये किन्तु अंग्रेज नौकरशाही कुछ भी सुनने को तैयार नही थे। तब गाँधी जी ने खेङा जिले के किसानो को सत्याग्रह की सलाह दी। इस सत्याग्रह में वल्लभ भाई पटेल, उनके बङे भाई विठ्ठल भाई पटेल, शंकर लाल बैंकर, श्रीमति अनुसुइया बहन, इन्दुलाल याज्ञिक और महादेव देसाई आदि नेताओं ने गाँधी जी की सलाह को सक्रिय सहयोग दिया। सत्याग्रह के प्रारंभ में सभी सत्याग्रहियों से गाँधी जी ने ये शपथ लेने को कहा कि, “क्योंकि हमारे गॉवों में फसल एक चौथाई से भी कम हुई है इसलिये हम लोगों ने सरकार से निवेदन किया था कि मालगुजारी की वसूली अगले साल तक के लिये स्थगित कर दिया जाये किन्तु सरकार ने हमारा निवेदन स्वीकार नहीं किया। अतः हम लोग प्रतिज्ञा करते हैं कि, इस साल सरकार को पूरी या बकाया मालगुजारी नही देंगे। इसके लिये सरकार जो भी कदम उठायेगी वो दंड स्वीकार करने के लिये हम खुशी से तैयार हैं, भले ही हमारी ज़मीन जब्त कर ली जाये फिर भी हम सरकार को मालगुजारी देकर अपने आत्मसम्मान को चोट नहीं पहुँचायेंगे। हम लोगों में से मालगुजारी देने में सक्षम लोग भी मालगुजारी इसलिये नही देंगे क्योंकि कहीं उनके दबाव में गरीब किसान मालगुजारी देने के चक्कर में अपना सर्वस्य न बेच दें। ऐसे गरीब किसानो को ध्यान में रखते हुए धनी किसानो का कर्तव्य है कि वो उनका साथ देते हुए सरकार को मालगुजारी न दें।“ खेङा सत्याग्रह में किसानो के आन्दोलन का ये तरीका बिलकुल नया था। गाँधी जी गॉव-गॉव घूमकर किसानो को हर हाल में शांति बनाये रखने की अपील कर रहे थे । उन्होने किसानो में सरकारी अफसरों से न डरने का साहस जगाया। गाँधी जी के व्यक्तित्व का ही असर था कि खेङा के किसानो ने पूरा आन्दोलन शान्तिपूर्ण तथा निर्भिकता से आगे बढाया। सरकारी दमन चक्र चलता रहा कुछ सत्याग्रही गिरफ्तार भी किये गये। मवेशियों तथा ज़मीनो को भी सरकारी दमन का शिकार होना पङा। इन सब कठिनाईयों के बावजूद भी किसान दृढता से अपने सत्याग्रह आन्दोलन पर डटे रहे। परिणामस्वरूप मजबूर होकर सरकार को किसानो से समझौता करना पङा। इस आन्दोलन से गुजरात के किसानो को अपनी शक्ति का एहसास हुआ और देश में एकता की शक्ति का नारा बुलंद हुआ। इसके साथ ही किसानों और मजदूरों के मुद्दे आजादी की लड़ाई की बड़ी लड़ाई का हिस्सा बने। आगे चलकर अछूतोद्धार और नारीउद्धार जैसे समाजसुधार के सवाल भी इस संग्राम के महत्वपूर्ण अंग बने। इस लिहाज से चंपारण सत्याग्रह का महत्व निर्विवाद है।इस आन्दोलन से स्वतंत्रता आन्दोलन का जनतांत्रिकरण हुआ। साथ ही यह महत्वपूर्ण है कि आज जबकि कृषि क्षेत्र गहरे संकट में है और उदारीकरण के फलस्वरूप मजदूर अधिकारों पर हमले बढ़े हैं, तब क्या चंपारण, खेङा और अहमदाबाद के सत्याग्रहों से कोई प्रेरणा ली जा सकती है? क्या आज के हालातों से निपटने के लिये गाँधी की विरासत कोई मददगार हो सकती है? विकास के पैमाने पर कहाँ है किसान।यदि गाँधी के विचारधारा को नजरअंदाज करते हैं तो आज जिस दिशा में विकास को ले जा रहें हैं वो बहुतों को रौंदकर मंजिल तक पहूँचेगी।
महात्मा गांधी ने जिन मूल्यों को लेकर देश निर्माण की बात कही थी, आज ठीक उसके विपरीत माहौल है। माहौल बदलने के लिए युवाओं से संवाद करना और उन्हें जोड़ना आज की जरूरत है।
“गांधीजी ऐसा स्वराज चाहते थे, जिसमें समाज का अंतिम व्यक्ति यह महसूस करे कि वह आजाद है और देश के विकास में उसका महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी बापू का यह सपना, सपना ही बना हुआ है।” इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गांधी के सत्याग्रह को लेकर जो माहौल तैयार किया है, वह प्रशंसनीय है, मगर इसमें असली गांधी के विचार नहीं दिखाई दे रहे हैं।
गांधी किसानों के सवाल पर चंपारण आए थे, लेकिन आज भी चंपाारण के किसानों की हालत दयनीय बनी हुई है। उन्होंने कहा कि चंपारण की थारू जनजाति की महिलाएं, जो पहले अवैध रूप से शराब बनाकर अपना जीवनयापन करती थीं, आज भुखमरी के कगार पर पहुंच गई हैं। उनके पास रोजगार का कोई साधन नहीं है। नीतीश को उन गांवों में जाकर गांधी के सपने और विचारों को पूरा करन होगा। बिहार में शराबबंदी को सराहते हुए भारत ने कहा कि इससे गांवों में शांति का भाव देखा जा रहा है। गांधी ने शिक्षा पर काफी जोर दिया था, लेकिन उनके सपने के बुनियादी विद्यालयों की हालत बिहार में काफी बदतर है। पारंपरिक रूप से जो छवि हमें मिली है, वह है मातृभूमि की जो ‘सुजलाम् सुफलाम् मलयज शीतलाम् है, शस्य श्यामलाम् है’ जिसका हम नमन करते हैं। लेकिन आज पूंजीवादी व्यवस्था में यह तहस-नहस हो गई है। गांधी के विचारों और सपनों को अब तक आई सभी सरकारों ने अपने लिए भुनाया है, मगर उनके सपनों के भारत को वे पीछे छोड़ते चले गए।आज के दौर में गांधी के विचारों को सबसे ज्यादा प्रासंगिक है। आज जब’धर्म’ और ‘जाति’ के नाम पर देश तोड़ने की बात हो रही है। आज ऐसी स्थिति पैदा की जा रही है कि ‘भारत माता की जय’ बोले तो पिटाई और नहीं बोले तो भी पिटाई।