गौतम-अहिल्या-इन्द्र आख्यान का यथार्थ स्वरूप

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-मनमोहन कुमार आर्य-

Indra

 

रामायण में गौतम-अहिल्या का एक प्रसंग आता है जिसमें कहा गया है कि राजा इन्द्र ने गौतम की पत्नी अहिल्या से जार कर्म किया था। गौतम ने उसे देख लिया और इन्द्र तथा अहिल्या को श्राप दिये। रामायण के पाठक इसे पढ़कर इस घटना को सत्य मान लेते हैं। क्या यह सम्भव है कि एक एक ब्रह्मज्ञानी ऋषि की पत्नी ऐसा अनुचित कार्य करे। ऋषि की पत्नी तो स्वयं भी ब्रह्मज्ञानी ही हो सकती है न कि कोई साधारण अज्ञानी व दुर्बल चरित्र की। क्या यह भी सम्भव है कि कोई पुरूष वेश बदल ले तो उसे अपने पति व अन्य पुरूष का अन्तर ही पता न चले, यह सर्वथा असम्भव है। इस कथा का सूक्ष्मता से अध्ययन करने पर यह विदित होता है कि यह कथा ऐतिहासिक न होकर वेद के एक वैज्ञानिक आख्यान व रहस्य का विद्रूप वर्णन है। यह कथा ऐतिहासिक तथ्य न होने के कारण सत्य नहीं है। इसका जैसा अर्थ रामायण में दिया गया है वह सत्य व यथार्थ से सर्वथा भिन्न है। महाभारत काल के बाद हमारे देश में हमारा पण्डित वर्ग स्वच्छन्द, बन्धनों व अनुशासन से रहित हो गया था। ऋषियों व विद्वानों के ग्रन्थ प्रेस वा मुद्रणालय में तो छपते नहीं थे कि उनकी अनेक प्रतियां प्रकाशित हो जायें, अतः यदि उस काल में कोई ग्रन्थ लिखता था तो उसकी एक ही प्रति बनाता था। यदि वह अपने शिष्यों व अन्यों की सहायता से उसकी अतिरिक्त प्रतियां बनवाता था तो जितने लेखक होंगे उतनी ही प्रतियां बन सकती थी। इसका लाभ उठा कर कुत्सित मन वाले, भाषा व काव्य लेखन में सक्षम लोगों ने मिथ्या व भ्रान्तिपूर्ण श्लोक बनाकर हमारे मान्य व लोकप्रिय ग्रन्थों में अयथार्थ व असत्य विचारों व कथा कहानियों को जोड़ दिया जिसका प्रमाण रामायण में गौतम-अहिल्या तथा इन्द्र की मिथ्या कथा का पाया जाना है।

 

महाभारत काल के बाद संस्कृत, वेद, वैदिक साहित्य, इतिहास आदि के सबसे अधिक प्रमाणित विद्वान महर्षि दयानन्द सरस्वती हुए हैं। इन्होंने समस्त संस्कृत साहित्य का अन्ध्ययन किया। ग्रन्थों में जो लिखा था उसे सत्य व असत्य की कसौटी पर कसा व असत्य के कारणों को जानने का प्रयास किया व उसमें सफलता प्राप्त की। उन्हें पता चला कि हमारे प्राचीन साहित्य यथा मनुस्मृति, रामायण, महाभारत आदि में अनेकत्र अनेक प्रक्षेप विद्यमान हैं। वेदों में प्रक्षेप इस कारण न हो सके कि प्राचीन ब्राह्मण वेदों को स्मरण करने के साथ प्रत्येक मन्त्र के साथ देवता, छन्द, ऋषि आदि का प्रयोग करते थे जिस कारण कि प्रक्षेप सम्भव नहीं था। महर्षि दयानन्द ने चारों वेदों की भूमिका के रूप में        ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका नाम से अपना प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखा है जिसकी देशी व विदेशी विद्वानों ने प्रशंसा की है और स्वामी दयानन्द को ऋषि परम्परा का विद्वान घोषित किया है। यह कहा गया है कि वैदिक साहित्य का आरम्भ वेदों से होता है और ऋषि दयानन्द की ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर समाप्त होता है। यह यथार्थ टिप्पणी है जिसे महर्षि दयानन्द सरस्वती के साहित्य के अध्येता अपनी विवेक बुद्धि से सत्य स्वीकार करते हैं। इसमें कहीं अत्योक्ति नहीं है, निम्नोक्ति सम्भव है।

 

ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः अध्याय में महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इन्द्र और अहल्या की कथा मूढ लोगों ने अनेक प्रकार से बिगाड़ कर लिखी है। उन्होंने ऐसा मान रखा है कि देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गौतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गौतम ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया किहे इन्द्र ! तू हजार भगवाला हो जा। अहल्या को शाप दिया कि तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गौतम की प्रार्थना की कि हमारे शाप का मोक्षण कैसे वा कब होगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायं, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तुझ पर अपना चरण लगावेंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरूप में आजावेगी। महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि इस प्रकार से पुराणों में यह कथा बिगाड़ कर लिखी गई है। सत्य ग्रन्थों में ऐसा नहीं है। सत्यग्रन्थों में इस कथा का स्वरूप निम्न प्रकार है।

सूर्य का नाम इन्द्र है, रात्रि का नाम अहल्या है तथा चन्द्र का नाम गौतम है। यहां रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरूष के समान रूपक अलंकार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि से सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात् जिस (सूर्य) के उदय होने से (वह) रात्रि के वत्र्तमान रूप श्रृंगार को बिगाड़ने वाला है। इसलिये यह स्त्री पुरूष का रूपकालंकार बांधा है। जैसे स्त्ऱी-पुरूष मिल कर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ-साथ रहते हैं। चन्द्रमा का नाम गौतम इसलिये है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है और रात्रि को अहल्या इसलिये कहते हैं कि उसमें दिन का लय हो जाता है। सूर्य (इन्द्र) रात्रि को निवृत्त कर देता है, इसलिए वह उसका ‘जार’ कहलाता है। इस उत्तम रूपकालंकार विद्या को अल्प बुद्धि पुरूषों ने बिगाड़ के सब मनुष्यों में हानिकारक फल धर दिया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणों की मिथ्या कथाओं का मूल से ही त्याग कर दें। ऐसी अनेक मिथ्या कथायें पुराणों में दी गई हैं जिन्हें विवेकशील मनुष्यों को स्वीकार नहीं करना चाहिये। रामायण में यह कथा वैदिक ग्रन्थों से आयातित है।

गौतम-अहिल्या के आख्यान व कथा की ही तरह अन्य ऐसी अनेक कथाओं के मिथ्यात्व का कारण अर्वाचीन काल में लोगों का वेदों के मन्त्रों के शब्दों का लौकिक संस्कृत के आधार पर अर्थ करना है। वेद ईश्वरीय ज्ञान है तथा वेदों के शब्द ईश्वरीय वाक् है। यह वेदों के शब्द धातुज व यौगिक है। अतः वैदिक शब्दों का अर्थ लौकिक संस्कृत से करने से इस प्रकार की त्रुटियां होती हैं। यदि वेदों के शब्दों के अर्थ अष्टाघ्यायी महाभाष्य व निरूक्त पद्धति को अपनाकर किये जायें तो उनका यथार्थ प्रकट होता है जैसा कि महर्षि दयानन्द जी ने किया है।

महर्षि दयानन्द के किये अर्थ ही ग्राह्य, यथार्थ व प्रमाणित हंै। आशा है कि पाठक मिथ्यार्थ को छोड़कर यथार्थ को ग्रहण करेंगे।

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