सामाजिक लड़ाई जारी है समलैंगिकों की

महेश दत्त शर्मा

भारतीय समलैंगिकों को कानूनी लड़ाई जीतकर क्या मिला है, यकीनन कानूनी संरक्षण तो मिला ही है। लेकिन स्वास्थ्य मंत्री गुलाम नबी आजाद ने इसे एक बीमारी कहकर एक नई बहस छेड़ दी है। इससे लगता है कि समलैंगिकों को अभी लंबी लड़ाई के लिए तैयार रहना चाहिए। हमारा समाज जो अभी अंतर-जातीय विवाह तक को खुले दिल से नहीं स्वीकार पाया है, समलैंगिकों के प्रति वह कितना खुला रह सकता है, इसे कहने की आवश्यकता नहीं है। कुछ मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर समाज का एक बडा़ तबका अभी भी समलैंगिकों का मुखर आलोचक है। चर्च, मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे के द्वार अभी भी उनके लिए बंद हैं।

अगर हम समलैंगिकता के भारतीय इतिहास पर दृष्टि डालें तो इसकी जड़ें वैदिक काल तक पहुँचतीं या वहाँ से प्रस्फुटित होती दिखती हैं। मनुस्मृति में कई स्थानों पर समलैंगिक व्यवहार का उल्लेख आया है और इसे यौन-व्यवहार का एक हिस्सा माना गया है लेकिन इसे सामाजिक मान्यता नहीं दी गई, बल्कि इसके लिए सजा तय की गई थी। यदि एक उम्रदराज स्त्री किसी कुंवारी युवती से समलैंगिक संबंध बनाती तो बड़ी उम्र की स्त्री की दो उँगलियाँ काटने या फिर सिर के बाल मूँड़कर गधे पर बिठाकर नगर भर में घुमाने की सजा दी जाती थी। यदि दो हमउम्र युवतियाँ ऐसा करतीं तो जो ऐसा करने के लिए पे्ररित करती, उस पर दो सौ सिक्के जुर्माना और दस छड़ियों की सजा का प्रावधान था। पुरुष समलैंगिकों की सजा कम गंभीर थी। यदि दो पुरुष आपसी संबंध बनाते तो उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता था। समाज में पुनः सम्मिलित होने के लिए उन्हें वस्त्रों सहित स्नान करना पड़ता था।

वात्स्यायन के कामसूत्र में भी समलैंगिकता की चर्चा की गई है। हमारे वैदिक शास्त्र तीन तरह की प्रकृति अथवा लिंग की स्वीकृति देते हैं-पुम-प्रकृति (पुरुष), स्त्री-प्रकृति (महिला) तथा तीसरी प्रकृति अथवा लिंग जिसमें नपुंसक (पुरुष समलैंगिक), अलिंगी और द्विलिंगी सम्मिलित हैं, जिन्हें कई धर्म-निरपेक्ष एवं धार्मिक दस्तावेजों में समाज का हिस्सा बताया गया है।

विश्व हिंदू परिषद् के पूर्व अध्यक्ष विष्णु हरि डालमिया ने 14 मई, 2004 को ‘सैन फ्रांसिसको क्राॅनिकल’ को दिए एक साक्षात्कार में इसके विरुद्ध बोलते हुए कहा था, ‘‘समलैंगिकता को कानूनी जामा पहनाना भारतीय समाज पर एक हमला होगा। हिंदुओं के लिए इस तरह का व्यवहार न केवल प्रकृति के विरुद्ध है, यह हमारी संस्कृति के भी विरुद्ध है।’’

हरे कृष्ण आंदोलन के संस्थापक स्वामी प्रभुपाद ने समलैंगिकता पर सन् 1977 में अपनी एक टिप्पणी में कहा था, ‘‘एक पुरुष की दूसरे पुरुष के प्रति समलैंगिक भूख आसुरी प्रवृत्ति है। यह कृत्य किसी समझदार के लिए उपयुक्त नहीं है।’’

श्रीमद् भागवतम् के तीसरे स्कंध के बीसवें अध्याय में एक कथा आई है। ‘…ब्रह्माजी ने अपनी कमर के निचले भाग से असुरों को उत्पन्न किया। वे अत्यंत कामलोलुप होने के कारण उत्पन्न होते ही मैथुन के लिए ब्रह्माजी की ओर लपके। यह देख पहले तो वे हँसे, किंतु फिर उन निर्लज्ज असुरों को अपने पीछे लगा देख भयभीत और क्रोधित होकर बड़े जोर से भागे…।’

इस कथा का यह तात्पर्य है कि समलैंगिकता मनुष्य को असुर जैसा बना देती है। यह प्रसंग स्वामी प्रभुपाद की टिप्पणी को भी पुष्ट करता है।

हिंदू दार्शनिक जिद्दू कृष्णमूर्ति ने कहा था, ‘‘समलैंगिकता भी इतर लिंगी कामुकता की भाँति हजारों साल पुरानी है और यह समस्या इसलिए बनी है क्योंकि मनुष्य सेक्स पर बहुत अधिक केंद्रित हो गया है।’’

आर्ट ऑफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर का इस विषय में कहना है, ‘‘प्रत्येक व्यक्ति में पुरुष एवं महिला दोनों हैं। कभी एक हावी होता है कभी दूसरा। यह सब द्रव पर निर्भर है।’’

गणितज्ञ शकुंतला देवी ने अपनी पुस्तक ‘द वल्र्ड ऑफ होमोसेक्सुअल्स’ में त्रिचुरापल्लि स्थित श्रीरंगम् मंदिर के प्रधान पुरोहित श्रीनिवास राघवचेरियर का साक्षात्कार दिया है जिसमें राघवचेरियर ने कहा है, ‘‘समलिंगी जोड़े पूर्व जन्म में निश्चित ही पति-पत्नी होने चाहिए। लिंग बदल सकता है किंतु आत्मा वही रहती है, इसलिए प्यार उन्हें एक-दूसरे के प्रति आकर्षित करता है।’’

हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में समलैंगिकता पर पहली सार्वजनिक बहस सन् 1924 में आरंभ हुई जब राष्ट्रवादी एवं समाज-सुधारक पांडेय बेचैन शर्मा ‘उग्र’ की हिंदी लघुकथा ‘चॉकलेट’ राष्ट्रवादी अखबार ‘मतवाला’ में प्रकाशित हुई। इस एवं इस तरह की अन्य कथाओं द्वारा उग्र ने शहरी एवं शिक्षित पुरुष-पुरुष सेक्स के विरुद्ध व्यापक धर्म-युद्ध छेड़ दिया। हालाँकि उनका दाँव तब उलटा पड़ गया, जब पं. बनारसीदास चतुर्वेदी सरीखे अन्य साहित्यकारों एवं राष्ट्रवादियों ने उग्र द्वारा उठाए समलैंगिकता के मुद्दे से कोई सरोकार न रखते हुए, उनकी कथाओं को उत्तेजक एवं अश्लील करार दे दिया। इसके बाद तो इस मुद्दे पर हिंदी मीडिया में बड़े पैमाने पर वाद-विवाद चला। यह विवाद तब जाकर शांत हुआ, जब महात्मा गांधी इसमें कूदे और उन्होंने कहा कि वे उग्र के जैसे साहित्य की निंदा करते हैं। सन् 1929 में महात्मा गांधी एक बार फिर समलैंगिकता की बहस में कूदे। स्कूलों में ‘अप्राकृतिक दोष’ पर प्रश्नों के जवाब देते हुए ‘यंग इंडिया’ में एक खुले पत्र में उन्होंने सामान्य सामाजिक उदासीनता, स्कूलों में धार्मिक शिक्षा की उपेक्षा और समर्पित अध्यापकों की कमी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया। उन्होंने इसे एक बड़ा रोग कहा और समाज को दुष्प्रभावित करने वाला लक्षण बताया। इसका उपचार बताते हुए उन्होंने लिखा कि इसके लिए ‘दूसरों के फैसले का इंतजार’ न करें बल्कि व्यक्तिगत सुधार करें।

सन् 1936 में मशहूर उर्दू शायर फिराक गोरखपुरी ने जवान लड़कों की खूबसूरती की तारीफ में एक गजल लिखी तो बवाल मच गया। जवाब में फिराक ने समलैंगिकता के बचाव में एक भावपूर्ण गजल लिखी, जिसकी पूर्व एवं पश्चिम के दार्शनिकों, समलैंगिकों और इसके समर्थकों ने खूब प्रशंसा की। फिराक ने तर्क दिया कि महान कला मामूली पूर्वाग्रह की वस्तु नहीं हो सकती और समलैंगिकता सादी, हफीज, महमूद गजनवी और बाबर जैसी पूज्य शख्सियतों की महानता में अंतर्निहित है।

1945 में उर्दू लेखिका इस्मत चुगताई ने अपनी अर्द्ध-आत्मकथा ‘टेढ़ी लकीर’ में मुसलिम महिलाओं की मानसिकता को उकेरा। विवादास्पद ‘लिहाफ’ कहानी में उन्होंने अपने पात्रों के समलैंगिक आकर्षण का चित्रण किया।

1962 में राजेंद्र यादव ने ‘प्रतीक्षा’ कहानी लिखी। इसमें दो महिलाओं के बीच के समलैंगिक रिश्ते का सविस्तार निंदाहीन वर्णन है।

1974 में वी.टी. नंदकुमार का मलयालम उपन्यास ‘रंडु पेनकुट्टिकल’ (दो लड़कियाँ) प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास ने केरल में लेसबियन रिलेशनशिप को सकारात्मक छवि दी और यह खासकर महिलाओं एवं कॉलेज-छात्राओं में बेहद लोकप्रिय हुआ।

1979 में जानेमाने राजस्थानी लेखक विजय दान देहता की कहानी ‘ए डबल लाइफ’ प्रकाशित हुई। इसमें दो युवतियों के विवाह और उनके यौन-संबंधों का रोमांटिक वर्णन किया गया है। कहानी एक लोककथा के रूप में लिखी गई थी जो राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में गहरे रची-बसी है।

अगर हम पश्चिमी जगत् पर दृष्टि डालें तो वहाँ समलैंगिक विवाह का इतिहास खासा विस्तृत है। अनेक आरंभिक पश्चिमी समाजों ने इसे बर्दाश्त भी किया। प्राचीन रोम, ग्रीस, मध्य यूरोप, नेटिव अमेरिका और अफ्रीका में इसके सबूत खोजे जा सकते हैं।

पुरुष-प्यार चीन में, फुजियान के दक्षिणी प्रांत में विशेष रूप से प्रोत्साहित किया गया था। पुरुष भी भव्य समारोह के साथ तरुणों से विवाह रचाते थे और ये संबंध स्थाई होते थे।

प्राचीन ग्रीस में समलैंगिक संबंधों को सामाजिक मान्यता प्राप्त थी। दरअसल ये संबंध स्त्री और पुरुष के बीच विवाह में बाधा नहीं बनते थे बल्कि विवाह के पूर्व या साथ-साथ चलते थे।

कहा जाता है कि सिकंदर महान, लाॅर्ड बेयरन, वाॅल्ट व्हिटमेन, आॅस्कर वाइल्ड, राॅक हडसन, टी.ई. लॉरेंस, ई.एम. फोस्टर, प्लेटो, लियोनार्दो दा विंची, हेड्रियन, विरगिल, माइकल एंजेलो और मारलेवो जैसे ऐतिहासिक व्यक्ति भी समलैंगिक थे। प्राचीन रोम में सम्राट नीरो ने अलग-अलग समय पर आयोजित विवाह समारोह के दौरान दो तरुणों से विवाह किया था। कुछ अन्य रोमन सम्राटों ने भी इसी का अनुसरण किया। ज्यों-ज्यों ईसाई धर्म का प्रभाव बढ़ा और उसने विवाह का उद्देश्य प्रजनन तक सीमित करना चाहा, रोम में समलैंगिकता के प्रति असहिष्णुता बढ़ती गई।

काँगो, अफ्रीका में पुरुष स्त्रियों के साथ-साथ तरुणों से भी विवाह करते थे ताकि अपने ससुर को दुल्हन की कीमत अदा कर सकें। समझा जा सकता है कि ये विवाह अस्थाई होते थे।

हिब्रू ओल्ड-टेस्टामेंट में स्पष्ट इंगित है कि किंग डेविड के किंग शाउफल के पुत्र जॉनाथन के साथ यौन संबंध थे। केथोलिक थेअलोजियन (धर्म-विज्ञानी) बोसवेल ने वेटिकन को आकुल-व्याकुल करते हुए पर्दाफाश किया कि चैदहवीं सदी तक चर्च नियमित रूप से समलैंगिक जोड़ों के विवाह करवा रहा था। किंग जेम्स, जिसने बाइबिल के अंग्रेजी अनुवाद का आदेश दिया था, एक समलैंगिक था। जब अनुवादकों को यह तथ्य ज्ञात हुआ तो वे बहुत क्षुब्ध हुए, लेकिन चूँकि बात राजा से संबद्ध थी, अतएव खुले तौर पर वे अपना रोष सार्वजनिक नहीं कर सके।

मध्यकाल में यूरोप में समलैंगिकों को अधर्मी के रूप में देखा जाता था और संदेह होने पर उन्हें मौत के घाट उतार दिया जाता था। यूरोप में हिटलर के शासन के दौरान, चीन में माओ के, ईरान में खौमेनी के और संयुक्त राज्य अमेरिका में मैकार्थी के शासन के दौरान समलैंगिकों के दिन खासकर उत्पीड़न भरे रहे। सन् 1885 में समलैंगिकता को ग्रेट ब्रिटेन में अपराध की संज्ञा दी गई। इसके पूर्व तक महारानी विक्टोरिया एवं अन्य अधिकारी यह यकीन करने को तैयार ही नहीं थे कि दो स्त्रियाँ यौन-संबंध कायम कर सकती हैं!

अनेक देशों में पहले समलैंगिक रिश्तों पर रोक के लिए कानून बने और बाद में विरोध के चलते उन्हें उठा लिया गया। अल्बर्ट आइंस्टाइन, सिगमंड फ्रायड, एच.जी. वेल्स, बट्र्रेंड रसेल आदि जैसी विश्व-विख्यात शख्सियतों ने समलैंगिकों के पक्ष में आवाज बुलंद की, जिसका परिणाम भी सकारात्मक रहा। दुनिया भर में आज लाखों-लाख समलैंगिक कुछ नेपथ्य में तो कुछ मुक्त रूप से जीवन-यापन कर रहे हैं। आज के कुछ चर्चित गे (पुरुष समलैंगिक) एवं लेसबियन (स्त्री समलैंगिक) नामों में शामिल हैं-मार्टिना नवरातिलोवा, सीनेटर बॉब ब्राउन, पॉल ऑग्रेडी, जस्टिस किर्बे, मेलिस्सा इथरिज, इयान रॉबट्र्स, जिमी सोमरविले, एंडी बेल, एल्टन जाॅन, नेपाली राजनेता सुनील बाबू पंत आदि।

भारत में सन् 2005 में, गुजरात से प्रिंस मानवेंद्र सिंह सार्वजनिक रूप से शाही समलैंगिक के रूप में सामने आए। भारतीय एवं विदेशी मीडिया ने उन्हें हाथोहाथ लिया। सन् 2008 में जोल्टन पराग ने मिस्टर गे अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में हिस्सा लिया। भारतीय मीडिया ने इस खबर को बहुत उछाला। बाद में भेदभाव के कारण उन्हें भारत वापस आने में डर लगने लगा। उन्होंने कहा, ‘‘भारतीय मीडिया ने मुझे इतना ज्यादा एक्सपोज कर दिया है कि मेरे दोस्तों के पेरेंट्स ने मुझसे बात करने को उन्हें मना कर दिया है।’’

29 जून, 2008 को दिल्ली, बेंगलुरु, कोलकाता और पुद्दुचेरि में गे प्राइड परेडें निकाली गईं। कोलकाता को छोड़कर तीनों शहरों में यह इस तरह की पहली परेड थी। मुंबई में यह परेड 16 अगस्त, 2008 के दिन निकली जिसमें बॉलिवुड एक्ट्रेस सेलिना जेटली ने भी शिरकत की।

16 अगस्त, 2009 को भारत की पहली गे पत्रिका ‘बॉम्बे दोस्त’ का सेलिना जेटली ने मंुबई में पुनर्विमोचन किया। बाॅलिवुड में गे एवं लेसबियन संबंधों को लेकर फिल्मांकन का दौर काफी पहले आरंभ हो चुका था। समलैंगिक संबंधों को लेकर पहली खुली फिल्म ‘फायर’ (1996) भारत में 1998 में प्रदर्शित हुई जिसे भारतीय-कनाडाई निदेशक दीपा मेहता ने बनाया था। इस फिल्म से देश भर में एक बार फिर से इस विषय को लेकर बहस छिड़ गई।

गे या लेसबियन क्यों? समलैंगिक मानते हैं कि वे जन्मजात वैसे होते हैं। उनकी ऐसी धारणा के जड़ पकड़ते ही संभवतः वे इसके विपरीत सोचना छोड़ देते हैं। यद्यपि जन्मजात समलैंगिकता का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। अधिकांश गे अथवा लेसबियन सामान्य पुरुष अथवा स्त्री होते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि समलैंगिकता एक सीखा हुआ व्यवहार होता है, जो अनेक तथ्यों से प्रभावित हो सकता है। जैसे बचपन में अस्त-व्यस्त पारिवारिक जीवन, पेरेंट्स की उपेक्षा, शारीरिक एवं मानसिक शोषण, कौटुंबिक उत्पीड़न, विपरीत सेक्स के प्रति भय, प्रसव पीड़ा का भय, माँ का तेज-तर्रार होना एवं पिता का भीरु होना या इसके विपरीत; लड़के-लड़कियों के हाॅस्टलों में उत्पन्न पारस्परिक घनिष्ठता, सेक्स के मामले में प्रयोगधर्मिता इत्यादि कारक समलैंगिक रुझान के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। इनके अतिरिक्त व्यक्ति की अपनी पसंद भी इसमें एक अहम भूमिका निभाती है।

आज वास्तव में सेक्स के मायने ही बदल गए हैं। लोग इसे मौज-मस्ती एवं आनंद के रूप में लेने लगे हैं, जबकि पूर्व काल में इसका उद्देश्य संतानोत्पत्ति तक सीमित था। आज तो संतानोत्पत्ति एवं लालन-पालन के ‘झमेले’ से बचने के लिए ही कई लोग समलैंगिक बनने लगे हैं।

कई ऐसे रसायन भी हैं जिनके प्रयोग से समलैंगिकता की भावनाएँ भड़काई जा सकती हैं। अमेरिकी रक्षा विभाग के सरकारी दस्तावेजों के अनुसार, अमेरिकी सेना ने एक समय में ऐसे बम बनाने की संभावनाओं पर विचार किया था जिससे शत्रु सैनिक लड़ाई के बजाय अपने साथियों से प्यार करने लगते। अमेरिकी सेना का यह बम होता समलैंगिकता फैलाने वाला। जी हाँ, समलैंगिकता बम। तो अब हो सकता है, भविष्य में लोग रसायन सूँघकर या पीकर भी समलैंगिक बनने लग जाएँ!

कानून चाहे समलैंगिकता को मान्यता प्रदान कर दे, प्रकृति एवं समाज इसे अवांछित और असामाजिक ही कहेंगे। 1973 तक संयुक्त राज्य अमेरिका के अस्पतालों में समलैंगिकता का इलाज डॉक्टर मनोरोग और असामान्य व्यवहार के रूप में करते थे। इसके बाद राजनीतिक दबाव के चलते इसे रोका गया।

विदेशों में समलैंगिकता को लेकर शोध जारी हैं। कुछ शोधों के अनुसार, गे एवं लेसबियन एक सामान्य स्त्री-पुरुष के जोड़े के मुकाबले अपेक्षाकृत अधिक सहजता से रोग-ग्रस्त हो सकते हैं। इनमें मानसिक रोग, अवसाद, नशे की लत, धूम्रपान, दिमागी रोग, आत्महत्या की प्रवृत्ति जैसे विकार अधिक देखने को मिलते हैं। साथ ही गुदा कैंसर, खुजली, सिफलिस, हेपेटाइटस बी एवं सी, त्वचा रोग, गुप्त रोग, मस्से, एच.आई.वी. एड्स आदि का खतरा भी उन्हें अपेक्षाकृत अधिक होता है।

समलैंगिकों की जीवनशैली भी आम लोगों के मुकाबले भिन्न होती है। हालाँकि एक गे से यह प्रश्न पूछा गया तो उसका कहना था, ‘‘हम आपके सामान्य पड़ोसी हैं। हमारे पास एक कुत्ता है, एक बिल्ली है। मैं आपकी तरह कार चलाता हूँ। हम मिलजुलकर रहते हैं।’’

पर बात यहीं खत्म नहीं होती। वस्तुतः समर्पित समलैंगिक संबंध आम विवाहित जोड़ों से कई मामलों में महत्त्वपूर्ण रूप से भिन्न होते हैं। इनमें ठहराव नहीं होता; प्रकृति प्रदत्त मातृ या पितृ सुख से ये सदैव वंचित रहते हैं। इन्हें सामाजिक उपेक्षा सहनी पड़ती है। विभिन्न धर्म-ग्रंथों के दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी ग्रंथ में समलैंगिकता को प्रश्रय नहीं दिया गया है। इस दृष्टि से इनके अपने मजहबी धर्म-ग्रंथ ही इन्हें अपने से दूर कर देते हैं। बाइबिल में पाँच जगह (लेविटिकस 18:22; 20:13; रोमंस 1:26,27; 1; कोरिंथियंस 6:9,10; टिमोथि 1:9,10) स्पष्ट रूप से लिखा है कि समलैंगिकता पाप है। हिंदू धर्म-ग्रंथ इस कृत्य को पहले ही आसुरी घोषित कर चुके हैं। इसलाम और सिख धर्म में भी इसकी वर्जना है।

कहा जा सकता है कि समलैंगिक संबंध यद्यपि धर्म और समाज के लिए अनावश्यक और अनपेक्षित है तथापि इसका चुनाव पूरी तरह अकेले किसी व्यक्ति के नियंत्रण में नहीं है-वर्तमान परिवेश में तो ऐसा ही लगता है।

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जन्म- 21 अप्रैल 1964 शिक्षा- परास्नातक (हिंदी) अनेक प्रमुख हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में महेश दत्त शर्मा की तीन हज़ार से अधिक विविध विषयी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आपका लेखन कार्य सन १९८३ से आरंभ हुआ जब आप हाईस्कूल में अध्ययनरत थे। बुंदेलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी से आपने 1989 में हिंदी में एम.ए. किया। उसके बाद कुछ वर्षों तक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए संवाददाता, संपादक और प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया। आपने विभिन्न विषयों पर अधिकारपूर्वक कलम चलाई और इस समय आपकी लिखी व संपादित की चार सौ से अधिक पुस्तकें बाज़ार में हैं। हिंदी लेखन के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए आपने अनेक पुरस्कार भी अर्जित किए, जिनमें प्रमुख हैं- नटराज कला संस्थान, झाँसी द्वारा लेखन के क्षेत्र में 'यूथ अवार्ड', अंतर्धारा समाचार व फीचर सेवा, दिल्ली द्वारा 'लेखक रत्न' पुरस्कार आदि। संप्रति- स्वतंत्र पत्रकार, लेखक, संपादक और अनुवादक।

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