गजल

ग़ज़ल-जावेद उस्मानी

संस्कृति धरोहर की सारी पूंजी लूटाएंगे
बनारस को अपने अब हम क्योटो बनाएंगे
गंगा को बचाने भी को विदेशी को लाएंगे
अपने देशवासियों को ये करिश्मा दिखाएंगे
नीलामी में है गोशा गोशा वतन का
जर्रा जर्रा बिकने को रखा है तैयार चमन का
हुकूमत में आते ही मिजाज़ ऐसे बदल गए
स्वदेशी के नारे वाले भी विदेशी सांचे में ढल गए
सारे जहां में घूम घूम रोते है अपने हाल को
खुद ही फंसे है फंद में काटेंगे क्या उस जाल को
‘‘अहम् अहमामि’’ बस न लोक है न तंत्र है
विकास का न जाने कैसा अनोखा ये मन्त्र है
डूबे हुए है कर्ज में , जमीं पे है न बाम पर
पहले क़र्ज़ के नाम पे अब हैं फ़र्ज़ के नाम पर
जबसे पैसा वाले हमारे मालिकान हो गए
अपने ही घर में खुद हम मेहमान हो गए