समय से पहुंचने वाली ट्रेनें ही दे दीजिए

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हे रेलवे के नीति – नियंताओं ! हमें मंजिल पर समय से पहुंचने वाली ट्रेनें ही दे दीजिए …!!
तारकेश कुमार ओझा
चाचा , यह एलपी कितने बजे तक आएगी।
पता नहीं बेटा, आने का राइट टेम तो 10 बजे का  है, लेकिन आए तब ना…।
शादी – ब्याह के मौसम में बसों की कमी के चलते  अपने पैतृक गांव से शहर जाने के लिए मैने ट्रेन का विकल्प चुना तो स्टेशन मास्टर की यह दो टुक सुन कर मुझे गहरा झटका लगा।
दरअसल साल – दर साल रेलवे को पटरी पर लाने के तमाम दावों के बावजूद देश के आम रेल यात्री की कुछ एेसी ही हालत है।
 नई सरकार में पदभार संभालने वाला हर मंत्री यही कहता है कि ट्रेनों को समय पर चलाना उनकी प्राथमिकता है। लेकिन वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत है। पैसेंजर ट्रेनों का तो आलम यह कि इनके न छूटने का कोई समय है न पहुंचने का।  हर साल रेल बजट से पहले चैनलों पर राजनेताओं व विशेषज्ञों को बहस करते देखता हूं। … रेलवे की हालत अच्छी नहीं है। आधारभूत ढांचा मजबूत करने की जरूरत है… आप जानते हैं रेलवे यातायात का सबसे सस्ता माध्यम है…।  … आपको पता है रेलवे की एक रुपए की कमाई का इतना फीसद खर्च हो जाता है…।  लेकिन इसके लिए आप फंड कहां से लाइएगा… वगैरह – वगैरह।
फिर बजट पेश होता है। इतनी नई ट्रेनें चली, इतने के फेरे बढ़े। संसद में कुछ सत्तापक्ष के माननीय बजट को संतुलित बताते हैं तो विरोधी खेमे के क्षेत्र विशेष की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं। शोर – शराबे के बीच बजट पारित। फिर कुछ दिनों तक  बजट में उपेक्षा का आरोप लगाते हुए कुछ खास क्षेत्रों में रेलवे ट्रैक पर प्रदर्शन और धीर – धीरे सब कुछ सामान्य हो जाता है।
अब तक देखने में यही आया है कि जैसा रेलमंत्री का मिजाज वैसा निर्णय।
 कई साल पहले एक इंजीनियर साहब रेल मंत्री बने, तो उन्होंने एेलान किया कि ट्रेनों में एेसा डिवाइस लगा देंगे कि टक्कर हो भी गई तो कैजुअलटी ज्यादा नहीं होगी। लेकिन अब तक सरकार इस पर विचार ही कर रही है।
एक संवेदनशील कला प्रेमी नेत्री ने रेलमंत्रालय का कमान संभाला तो उन्होंने एेलान कर दिया कि  ट्रेनों में आपको संगीत सुनाएंगे। लेकिन मामला अब भी जहां का तहां…।
एक ठेठ देहाती किस्म के जमीन से जुड़े राजनेता को रेल मंत्री का पद मिला तो उन्होंने घोषणा कर दी कि ट्रेनों में प्लास्टिक के लिए कोई जगह नहीं , अब सब कुछ कुल्लहड़ में मिलेगा। अरसे से कुम्हारों के मुर्झाए चेहरे कुछ दिनों के लिए खिले जरूर , लेकिन जल्द ही हालत फिर बेताल डाल पर वाली…।
मुंबई के 26-11 हमले के बाद तय हुआ कि सभी स्टेशनों को किले में तब्दील कर देंगे। स्टेशनों पर सीसीटीवी कैमरे लगेंगे और जवानों को अत्याधुनिक हथियार भी दिए जाएंगे। लेकिन कुछ समय बाद ही स्टेशनों का फिर वही चिर-परिचित चेहरा। ज्यादातर अत्याधुनिक मशीनें खराब। जबकि कुर्सियों पर बैठे जवान या तो ऊंघते हुए नजर आते हैं या फिर आपस में हंसी – मजाक करते हुए।
हाल में एेलान हुआ कि अब टिकट के लिए यात्रियों को मगजमारी नहीं करनी पड़ेगी। स्टेशनों पर टिकट वेंडिंग मशीनें लगेंगी। मशीन के सामने खड़े होइए और जहां की चाहिए , टिकट लेकर चलते बनिए।
लेकिन कुछ दिनों बाद ही मशीनें पता नहीं कहां चली गई  और टिकट काउंटरों पर वहीं धक्का –  मुक्की और दांतपिसाई की मजबूरी।
कितनी बार सुना कि अब आरक्षण के मामले में अब दलालों की खैर नहीं। लेकिन महानगरों की तो  छोड़िए गांव – कस्बों तक में रेल टिकट दलालों के दफ्तर हाइटेक होते जा रहे हैं।
न जाने कितनी बार सुना कि ट्रेनों की आरक्षण प्रणाली पारदर्शी होगी। एक सीमा से अधिक वेटिंग लिस्ट हुए तो अतिरिक्त कोच लगा कर सब को एडजस्ट किया जाएगा।  लेकिन खास परिस्थितयों में देखा जाता है कि नंबर एक की वेटिंग लिस्ट भी अंत तक कन्फर्म नहीं हो पाती।
बीच – बीच में सुनते रहे कि अब रेल व यात्री सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी आरपीएफ या जीअारपी में किसी एक दो दी जाएगी। लेकिन महकमे में अब भी दोनों के जवान पूर्ववत नजर आते हैं।
इसलिए हे रेलवे  के नीति – नियंताओं…। हमें नहीं चाहिए हाइ स्पीड बुलेट ट्रेनें। हमारी रेल जैसी है वैसी ही ठीक है। हमें बस , इंसानों की तरह अपनी मंजिल तक समय पर पहुंचने लायक ट्रेनें ही दे दीजिए।
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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

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