राघवेन्द्र कुमार “राघव”
सोलह सौ पचास गोलियां चली हमारे सीने पर ,
पैरों में बेड़ी डाल बंदिशें लगीं हमारे जीने पर |
रक्त पात करुणाक्रंदन बस चारों ओर यही था ,
पत्नी के कंधे लाश पति की जड़ चेतन में मातम था |
इंक़लाब का ऊँचा स्वर इस पर भी यारों दबा नहीं ,
भारत माँ का जयकारा बंदूकों से डरा नहीं |
लाशें बच्चे बूढ़ों की टूटे फूलों सी बिखरी थीं ,
आज़ादी की बलिवेदी पर शोणित बूँदें उभरी थीं |
ललकार बन गयी चीत्कार गुलजार जगह शमशान हो गयी ,
तारीख बदलती रही मगर वो घड़ी वहीं पर ठहर गयी |
धूल धूसरित धरा खून में अंगारों सी दहक रही थी ,
कतरा-कतरा शोला था क्रांति शिखाएं निकल रही थी |
इसी धूल से भगत सिंह सा बलिदानी उत्पन्न हुआ ,
उधमसिंह से क्रांति दूत ने सारी दुनियां को सन्न किया |
अमृतसर की आग हिन्द में धीरे धीरे फैली थी ,
माँ भारती की हथकड़ी इसी आग में पिघली थी |
भारत आज़ाद हो गया था अपना आकाश हो गया था ,
इंक़लाब का शोर कागजों में ही दबा रह गया था |
बलिदानों की प्रथा तिरंगे झंडे में लिपटी रह गयी ,
माँ भारती बेज़ार थी बेज़ार ही वो रह गयी ||