ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं

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डॉ.डी के गर्ग

मुस्लिम नेता मेहमूद मदनी ने कहा है की ईश्वर और अल्ला एक ही है ,ऐसा गाँधी ने भी कहा की ईश्वर अल्ला तेरो नाम ,और बहुत से सेक्युलर नेता ऐसा कहते आये है की ईश्वर कहो या अल्ला दोनों एक ही बात है। अब समय आ गया है इस तथ्य को पूरी तरह समझा दिया जाये की ईश्वर और अल्ला दोनों ना तो एक है , और एक कहना किसी भी तरह स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योकि ये विचार पूरी तरह बेतुका है।
क़ुरान का अल्लाह मुहम्मद की सोच है जिसे केवल मुसलमान मानते हैं. अल्लाह से किसी की तुलना या किसी को शरीक करना इस्लाम में कुफ़्र है ,यदि दोनों एक है तो मस्जिद आदि में ईश्वर शब्द के प्रयोग पर रोक क्यों है ? केवल अल्ल्ला के शब्द को ही प्रयोग किया जाता है। अल्ला और ईश्वर एक की बात केवल हिन्दू वर्ग को समझने के लिए है।
मुख्या अंतर् इस प्रकार से समझते है :
अल्ला को समझने के लिए इसकी आसमानी किताब पढ़ें जरुरी है ,जिसमे लिखा है की अल्ला ७वे आसमान पर तख़्त बैठा है। यानो अल्ला के हाथ ,पैर ,शरीर है और वो बैंठा है आम आदमी की तरह। इसलिए मालूम नहीं होगा की साइज में कौन ज्यादा है अल्ला या तख़्त?
रात को सूरज अल्ला के पलंग के नीचे आराम फरमाता है। अब इनसे सूरज का तापमान और आकार भी मालूम करो। सूरज का व्यास लगभग १३ लाख ९० हज़ार किलोमीटर है जो पृथ्वी से लगभग १०९ गुना अधिक है। सूर्य के केंद्र का तापमान अनुमानित 150 लाख डिग्री सेंटीग्रेड है।अब आप समझ गए की अल्ला नाम की कोई चीज है ही नहीं।

अल्ला सिर्फ मुस्लिम को मरने के बाद स्वर्ग देता है ,यदि कोई व्यक्ति मरने के समय भी मुस्लिम हो जाये तो वो भी जन्नत जायेगा और भेदवभाव इतना की गैर मुस्लिम नरक जायेगा।
अल्ला स्वर्ग में पुरुष को सम्भोग की पूरी आजादी और सुविधा के लिए ७२ महिलाये ,शहद और शराब की नदिया मिलेंगी। पुरुष की पूर्व पत्नी इनकी सरदार होगी।
अल्ला मुस्लिम को कबर में रखेगा जब तक दुनिआ के सभी लोग मुस्लिम ना हो जाये। उसके लिए अल्ला को जिहाद पसंद है और गैर मुस्लिम का खून खराबा करने की क़ुरान में आजादी दी है।
(१) ईश्वर सर्वव्यापक (omnipresent) है, जबकि अल्लाह सातवें आसमान पर रहता है.
(२) ईश्वर सर्वशक्तिमान (omnipotent) है, वह कार्य करने में किसी की सहायता नहीं लेता, जबकि अल्लाह को फरिश्तों और जिन्नों की सहायता लेनी पडती है.

(३) ईश्वर न्यायकारी है, वह जीवों के कर्मानुसार नित्य न्याय करता है, जबकि अल्लाह केवल क़यामत के दिन ही न्याय करता है, और वह भी उनका जो की कब्रों में दफनाये गए हैं.
(४) ईश्वर क्षमाशील नहीं, वह दुष्टों को दण्ड अवश्य देता है, जबकि अल्लाह दुष्टों, बलात्कारियों के पाप क्षमा कर देता है. मुसलमान बनने वाले के पाप माफ़ कर देता है।
(५) ईश्वर कहता है, “मनुष्य बनों” मनु॑र्भव ज॒नया॒ दैव्यं॒ जन॑म् – ऋग्वेद 10.53.6,
जबकि अल्लाह कहता है, मुसलमान बनों. सूरा-2, अलबकरा पारा-1, आयत-134,135,136
(६) ईश्वर सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मों की अपेक्षा से तीनों कालों की बातों को जानता है, जबकि अल्लाह अल्पज्ञ है*, *उसे पता ही नहीं था की शैतान उसकी आज्ञा पालन नहीं करेगा, अन्यथा शैतान को पैदा क्यों करता?
(७) ईश्वर निराकार होने से शरीर-रहित है, जबकि अल्लाह शरीर वाला है, एक आँख से देखता है.
मैंने (ईश्वर) ने इस कल्याणकारी वेदवाणी को सब लोगों के कल्याण केसलिए दिया हैं-
यजुर्वेद 26/”अल्लाह ‘काफिर’ लोगों (गैर-मुस्लिमो ) को मार्ग नहीं दिखाता” (१०.९.३७ पृ. ३७४) (कुरान 9:37) .
(८)ईशवर कहता है सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।

देवां भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते ।।-(ऋ० १०/१९१/२)
अर्थ:-हे मनुष्यो ! मिलकर चलो,परस्पर मिलकर बात करो। तुम्हारे चित्त एक-समान होकर ज्ञान प्राप्त करें। जिस प्रकार पूर्व विद्वान,ज्ञानीजन सेवनीय प्रभु को जानते हुए उपासना करते आये हैं,वैसे ही तुम भी किया करो।
क़ुरान का अल्ला कहता है ”हे ‘ईमान’ लाने वालों! (मुसलमानों) उन ‘काफिरों’ (गैर-मुस्लिमो) से लड़ो जो तुम्हारे आस पास हैं, और चाहिए कि वे तुममें सखती पायें।” (११.९.१२३ पृ. ३९१) (कुरान 9:123) .
(९)अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते सं भ्रातरो वावृधुः सौभाय ।-(ऋग्वेद ५/६०/५)
अर्थ:-ईश्वर कहता है कि हे संसार के लोगों ! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा।तुम सब भाई-भाई हो। सौभाग्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ो।

”हे ‘ईमान’ लाने वालो (केवल एक आल्ला को मानने वालो ) ‘मुश्रिक’ (मूर्तिपूजक) नापाक (अपवित्र) हैं।” (१०.९.२८ पृ. ३७१) (कुरान 9:28)
(१० )क़ुरान का अल्ला अज्ञानी है वे मुसलमानों का इम्तिहान लेता है तभी तो इब्रहीम से पुत्र की क़ुर्बानी माँगीं।
वेद का ईशवर सर्वज्ञ अर्थात मन की बात को भी जानता है उसे इम्तिहान लेने की अवशयकता नही।
(११) अल्ला जीवों के और काफ़िरों के प्राण लेकर खुश होता है
लेकिन वेद का ईशवर मानव व जीवों पर सेवा भलाई दया करने पर खुश होता है।
ऐसे तो अनेक प्रमाण हैं, किन्तु इतने से ही बुद्धिमान लोग समझ जायेंगे की ईश्वर और अल्लाह एक नहीं हैं.

क्या हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्म सभी समान हैं अथवा भिन्न है? धर्म और मत अथवा पंथ में क्या अंतर हैं?
उत्तर: -हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्म नहीं अपितु मत अथवा पंथ हैं। धर्म और मत में अनेक भेद हैं।
1. धर्म ईश्वर प्रदत हैं और जिसे ऊपर बताया गया हैं, बाकि मत मतान्तर हैं जो मनुष्य कृत है।
2. धर्म लोगो को जोड़ता हैं जबकि मत विशेष लोगो में अन्तर को बढ़ाकर दूरियों को बढ़ावा देते है।
3. धर्म का पालन करने से समाज में प्रेम और सोहार्द बढ़ता है, मत विशेष का पालन करने से व्यक्ति अपने मत वाले को मित्र और दूसरे मत वाले को शत्रु मानने लगता है।
4. धर्म क्रियात्मक वस्तु हैं मत विश्वासात्मक वस्तु हैं।
5. धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक है और उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम है परन्तु मत मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक है।
6. धर्म एक ही हो सकता हैं, मत अनेक होते हैं।
7. धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य है। परन्तु मत अथवा पंथ में सदाचारी होना अनिवार्य नहीं है।
8. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है जबकि मत मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी अथवा अन्धविश्वासी बनाता है। दूसरे शब्दों में मत अथवा पंथ पर ईमान लाने से मनुष्य उस मत का अनुयायी बनाता है। नाकि सदाचारी या धर्मात्मा बनता है।
9. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता है और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता है परन्तु मत मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई अथवा मती का मानने वाला बनना अनिवार्य बतलाता है। और मुक्ति के लिए सदाचार से ज्यादा आवश्यक उस मत की मान्यताओं का पालन बतलाता है।
10. धर्म सुखदायक है मत दुखदायक है।
11. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं है क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं है -न लिंगम धर्मकारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं है। परन्तु मत के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य है जैसे एक मुस्लमान के लिए जालीदार टोपी और दाड़ी रखना अनिवार्य है।
12. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता है जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता है।

शंका 1:- धर्म का अर्थ क्या हैं?
उत्तर:- 1. धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। “धार्यते इति धर्म:” अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म है।

2 . जैमिनी मुनि के मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण है- लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता हैं।

सनातन’ शब्द का अर्थ है – ‘सदा एक सा रहने वाला’। इसीलिये ईश्वर को भी ‘सनातन’ कहते हैं।
सनातन धर्म का अर्थ है – वह धर्म या नियम जो कभी बदलें नहीं, सदा एक से रहे।
अथर्ववेद में ‘सनातन’ शब्द का यह अर्थ किया गया है –

सनातनमेनमाहुराद्य स्यात् पुनर्णवः।
अहो रात्रे प्रजायेते अन्यो अन्यस्य रूपयोः ॥(अथर्ववेद 10.8.23)
सनातन उसको कहते हैं जो कभी पुराना न हों, सदा नया रहे। जैसे रात-दिन का चक्र सदा नया रहता है।
इसके कुछ उदाहरण लीजिये –
जो नियम सदा एक से रहें वे सनातन हैं, जैसे दो और दो चार होते हैं, यह सनातन धर्म है; क्योकि किसी युग में या किसी देश में यह बदल नहीं सकता।
एक त्रिभुज की दो भुजायें मिलकर तीसरी भुजा से बड़ी होती है या एक त्रिभुज के तीनों कोण मिलकर दो समकोणों के बराबर होते हैं, यह सब सनातन धर्म है।
धर्म या नियम दो प्रकार के होते हैं – एक सनातन और दूसरे सामयिक। सनातन बदलता नहीं। सामयिक बदलता है। जैसे जाड़े मे गर्म कपड़ा पहनना चाहिये। या ज्वर आने पर दवा खानी चाहिये। भोजन करना सनातन धर्म है, क्योंकि किसी युग में भी बिना भोजन के शरीर की रक्षा नहीं हो सकती। लेकिन दवा खाना सनातन धर्म नहीं। यह तो कभी बीमार होने ही काम में आता है।
धर्म के दो रूप होते हैं – एक तो मूल तत्त्व जो सदा एक से रहते है और दूसरे रस्मो रिवाज (Ceremonials) जो देश और काल के विचार से बदलते रहते हैं। जैसे किस समय कैसे कपड़े पहनन। यह रिवाज के अनुकूल होता है। यह धर्म का मुख्य अंग नहीं है।

बहुत से लोग मौलिक या असली धर्म और रिवाज या सामयिक धर्म को मिलाकर गड़बड़ कर देते हैं। इसीलिये बहुत सा भ्रम उत्पन्न हो जाता है।

आजकल भारतवर्ष में जिसको सनातन धर्म कहते हैं उसमें से रस्मो रिवाज पीछे से मिल गये हैं। जैसे शुद्ध पानी दूर तक बहते बहते गदला हो जाता है इसी प्रकार सनातन धर्म का हाल है। इसमें कुछ तो भाग सनातन है और कुछ पीछे की मिलावट है। सब को सनातन धर्म कहना भूल है।

स्वामी दयानन्द ने जिस धर्म का प्रचार किया है वह शुद्ध सनातन वैदिक धर्म है। इस प्रकार आर्य समाज भी सनातन धर्म को मानता है। और उसमें और सनातन कहलाने वालों में कुछ भेद नहीं है। सब सनातन धर्मी वेदों को मानते हैं। आर्य समाजी भी वेदों को मानते हैं। महाभारत, रामायण, मनुस्मृति, गीता आदि शास्त्रों में वेदों की महिमा पाई जाती है। यह पुस्तकें आर्य समाज के भी आदर का पात्र हैं। इसलिये आर्य समाज और सनातन धर्म के मूल तत्त्वों में कोई भेद भाव नहीं होना चाहिये। और बुद्धिमान लोग ऐसा ही मानते हैं। कुछ निर्बुद्धि लोग रस्मों रिवाज के भेद को बढ़ाकर परस्पर द्वेष फैलाना चाहते हैं। यह ठीक नहीं। धर्म में बहुत सी बातें पीछे से मिला दी गई हैं, उनको छोड़ देना चाहिये। जैसे गंगाजल गंगोत्तरी पर शुद्ध और पवित्र होता है, परन्तु हुगली नदी तक पहुँचते पहुँचते गदला हो जाता है। उसको छान कर मिट्टी निकाल देनी चाहिये, इसी प्रकार पुराने वैदिक धर्म में जो गड़बड़ मिला दी गई उसको भी शुद्ध करने की जरूरत है।
पंथ अर्थात पथ/रास्ता। जीवन के सफ़र में रही जिस रस्ते पर चलते हैं उसे पंथ कहा जाता है। जैसे वाम-पंथ, दक्षिण-पंथ भी पंथ हैं तो सारे वाद जैसे अस्तित्ववाद, पूँजीवाद, साम्यवाद, जैसे तमाम तरीके/ जरिये जो इंसान अपने जीवन, परिवार, और अपने समाज के लिए चुनता है उसे पंथ कहा जा सकता है। क्यूंकिपन्थ का शाब्दिक अर्थ विचारधारा , पथ या रास्ता है जिस पर हम किसी लक्ष्य को पाने के लिए अपने जीवन में चलते हैं ।
उदाहरण के लिए समाज की तरक्की के लिए राजनीति में वामपंथी या दक्षिणपंथी हो सकता है ।
ईश्वर को पाने के लिए कोई कबीरपंथी, नानकपंथी, ईसापंथी ( ईसाई) , मोहम्मदपंथी ( मोहम्मडन) हो सकता है जिसका अर्थ यह हुआ कि इन लोगों का सोचना है कि कबीर, नानक, ईसा, मोहम्मद के बताए रास्ते पर चलने से ईश्वर मिलेगा ।
लेकिन जबसे अंग्रेजी के रिलिजन शब्द का अनुवाद धर्म हुआ है , पंथ शब्द का प्रयोग बंद हो गया है और पंथों ने धर्म शब्द ओढ़ लिया है । वास्तविक धर्म शब्द कहीं गायब हो गया है।

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