“ईश्वर ही सृष्टिकर्ता है, क्यों व कैसे?”

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मनमोहन कुमार आर्य

हम पृथिवी पर रहते हैं जिसका एक चन्द्रमा है और सुदूर एक सूर्य है जिससे हमें प्रकाश व गर्मी मिलती है। विज्ञान से सिद्ध हो चुका है कि सूर्य अपनी धूरी पर गति करता है और अन्य सभी ग्रह व उपग्रहों को भी गति देता है। पृथिवी अपनी धूरी पर घूमती है और सूर्य की भी परिकर्मा करती है। पृथिवी अपनी धूरी पर एक चक्र लगभग 24 घंटों में पूरा करती है जिस एक दिन कहा जाता है। पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती हुई लगभग 365 दिनों में एक परिक्रमा पूरी करती है जो एक वर्ष कहलाता है। पृथिवी अपने अक्ष पर 23.5 डिग्री झुकी हुई है। इससे ही पृथिवी पर अनेक ऋतुऐं होती हैं। हम यह भी जानते हैं कि पृथिवी व अन्य सभी ग्रह व उपग्रह जड़ पदार्थ हैं। जड़ का अर्थ होता है कि यह ज्ञान शून्य है। जिस प्रकार मनुष्य व प्राणियों का आत्मा सुख व दुःख की अनुभूति करता है, अपने ज्ञान से अपने सहयोगी व विरोधियों की पहचान करता है वह गुण, अनुभूतियां एवं ज्ञान जड़ पदार्थ सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि किसी ग्रह व पदार्थ में नहीं है। किसी भी पदार्थ का निर्माण ज्ञान व सामर्थ्य अथवा शक्ति के द्वारा ही सम्भव होता है। अब यदि हम विचार करें कि सूर्य एवं ग्रह-उपग्रहों सहित इस पूरे असीम ब्रह्माण्ड का निर्माण किसने, कब, कैसे व क्यों किया तो सबसे पहले जो बात सामने आती है वह यह कि जड़ पदार्थों में ज्ञान व रचना करने की सामर्थ्य नहीं है। यह पृथिवी व अन्य ग्रह आदि स्वयं बनें हो यह असम्भव व कल्पना ही कही जा सकती है। इसके लिए आवश्यक है कि संसार में एक सर्वगुण सम्पन्न अर्थात् सर्वज्ञ सत्ता विद्यमान हो तभी सृष्टि की रचना हो सकती है।

 

दूसरी बात यह भी है कि केवल ज्ञान से रचना नहीं हो सकती। एक पुस्तक लेखक के पास अनेक पुस्तकों की रचना करने का ज्ञान हो सकता है परन्तु रचना अस्तित्व में केवल ज्ञान होने से नहीं आती। ज्ञानी मनुष्य को अपने ज्ञान से पुस्तक की रचना करनी होती है। यह रचना किसी नोट बुक में उस पुस्तक विषयक सामग्री को किसी भाषा में लेखबद्ध करके ही सम्भव होती है। इससे यह ज्ञात होता है कि लेखक के ज्ञान से रचना नहीं होती अपितु उसके पास लेखन की योग्यता, स्वस्थ शरीर व मस्तिष्क, हाथ सहित लेखन में सहायक कागज व लेखनी आदि का होना भी आवश्यक है। इसी प्रकार इस सृष्टि की रचना ज्ञान के साथ कर्म वा क्रियाओं को करने से हुई है। क्रियाओं को करने के लिए शक्ति व सामर्थ्य चाहिये। कार्य यदि छोटा है तो कम सामर्थ्य की आवश्यकता होती है और यदि बड़ा है तो उसके लिए उस कार्य की वृहत्ता के अनुपात में ही शक्ति व सामर्थ्य का होना उस ज्ञानवान सत्ता के लिए आवश्यक है। सृष्टि की आदि व अन्त से रहित वृहद रचना को देखकर अनुमान होता है कि इस सृष्टि को बनाने वाली सत्ता शक्ति की दृष्टि से सर्वशक्तिमान है। यदि सृष्टिकर्ता सर्वशक्तिमान न हो तो यह कार्य कदापि नहीं हो सकता। ज्ञान व शक्ति से इतर अन्य अनेक गुणों की आवश्यकता भी सृष्टिकर्ता में अपेक्षित है। यह कि सृष्टिकर्ता को सृष्टि बनाने का पूर्व अनुभव हो। यदि पहली बार कोई कार्य किया जाता है तो उसमें अनेक प्रकार की कमियां व त्रुटियां होने की सम्भावना होती है। हमारी यह रचना का सृष्टि आदर्श रूप है। इससे यह सिद्ध होता है कि सृष्टिकर्ता ने यह सृष्टि पहली बार नहीं रची है अपितु इससे पूर्व अनेक बार व अनन्त बार उसके द्वारा ऐसी ही सृष्टि की रचना की गई है।

 

ऋषि दयानन्द ने इस सृष्टि की रचना से सम्बन्धित सभी प्रश्नों पर विचार किया था। उन्होंने वेद, दर्शन, उपनिषद सहित लगभग तीन हजार से अधिक ग्रन्थों का अध्ययन किया था। उन सबके निष्कर्ष से उन्होंने सृष्टिकर्ता ईश्वर की परिभाषा आर्यसमाज के दूसरे नियम में देते हुए कहा है ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। इस नियम में ऋषि दयानन्द ने ईश्वर के कुछ प्रमुख गुण व विशेषतायें बताई हैं। ईश्वर में असंख्य वा अनन्त गुण हैं। वेदाध्ययन कर ईश्वर के अनेक गुणों को जाना जा सकता है। इनसे यह स्पष्ट होता है कि बिना ईश्वर की सत्ता के यह सृष्टि कदापि अस्तित्व में नहीं आ सकती थी। सृष्टि रचना किससे हुई, इसका यही उत्तर सत्य व यथार्थ है। अब सृष्टि से जुड़े कुछ अन्य प्रश्नों पर भी विचार करते हैं।

 

वैदिक मान्यताओं के अनुसार हमारी यह सृष्टि 1.96 अरब वर्ष पूर्व बनी थी। संसार की कोई भी रचना, भवन वा यांत्रिक मशीन आदि, कुछ वर्ष बाद ही खराब होकर नष्ट हो जाते हैं। इतनी लम्बी अवधि से इस सृष्टि का ईश्वरीय नियमों के अनुसार चलना तथा ग्रहों-उपग्रहों का आपस में न टकराना भी यह सिद्ध कर रहा है कि यह सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान अनादि सत्ता ईश्वर के द्वारा बनाई गई है और ईश्वर ने ही इसे धारण किया हुआ है। सृष्टि को बनाना व इसे धारण करना दोनों अलग अलग बातें हैं। पौरुषेय रचनायें बनने के कुछ वर्षों बाद ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाती हैं। एक उदाहरण पर विचार करते हैं। एक व्यक्ति के पास बड़ी संख्या में पुस्तकें हैं। घर में रखने का स्थान कम है। अनेक स्थानों पर पुस्तकें रखी हुई हैं। वह नियमित रूप से उनकी देखभाल नहीं कर पाते। अतः कुछ पुस्तकों में दीमक लग जाती है, कुछ को चुहे कुतर देते हैं और कुछ नमी आदि के कारण भी खराब हो जाती हैं। यदि उनकी नियमित देखभाल हो तो इन्हें खराब होने से बचाया जा सकता है। परमात्मा इस सृष्टि की हर पल व हर क्षण देखभाल कर रहा है। वह इन्हें धारण किये हुए है, इसी कारण से यह सुरक्षित व अपने प्रयोजन को दीर्घ अवधि से पूरा करती आ रही हैं और अभी 2.00 अरब वर्ष से भी अधिक वर्षों तक यह सृष्टि इसी प्रकार अस्तित्व में रहेगी। आने वाले समय में अनेक बार सूर्य, चन्द्र ग्रहण होंगे, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र व शनि आदि पर भी सूर्य व चन्द्र ग्रहण के समान ग्रहण आदि की घटनायें होती रहती हैं, परन्तु इससे कभी कोई हानि नहीं हुई। यह हमारे लिए आश्चर्यजनक है। ग्रह व उपग्रहों में किसी प्रकार की दुर्घटना न होने का कारण परमात्मा द्वारा इन्हें वैज्ञानिक नियमों में स्थित कर रखा है जिससे कि यह अपने अपने पथ पर चल रहे हैं। इन सबसे भी हमें ईश्वर द्वारा सृष्टि के बनाये जाने व इसका धारण व पोषण किये जाने की अनुभूति होती है।

 

ईश्वर ही इस सृष्टि का रचयिता क्यों हैं? इसका उत्तर है कि ईश्वर के बिना यह सृष्टि बन ही नहीं सकती और ईश्वर के समान अन्य कोई सत्ता हमारे पूरे ब्रह्माण्ड में नहीं है जो सृष्टि की रचना कर सके। दूसरा प्रमाण यह है कि वेद और ऋषियों के बनाये सभी दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थ भी ईश्वर को ही सृष्टिकर्ता बताते हैं और यह बात युक्ति व प्रमाणों से भी सही सिद्ध होती है। ईश्वर सृष्टि क्यों बनाता है इसका उत्तर है कि वह अपनी शाश्वत प्रजा व सन्तान के समान ‘जीवात्माओं’ के लिए सृष्टि की रचना व इसका पालन करता है। धार्मिक स्वभाव के परमात्मा को जीवात्माओं को सुख देने के लिए सृष्टि की रचना करनी पड़ती है। यदि वह सृष्टि की रचना व जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म न दें, तो इन्हें सुख की प्राप्ति कैसे हो? अतः जीवात्माओं को पूर्व कल्प वा पूर्व जन्मों के अनुसार सुख-दुःख रूपी फल देने के लिए ईश्वर को सृष्टि की रचना करनी होती है। यदि ईश्वर सृष्टि की रचना न करे तो उस पर अकर्मण्य और सृष्टि रचना करने में अक्षम होने का आरोप लगेगा। सृष्टि की रचना व पालन उसका स्वाभाविक कर्म है। जैसे एक सच्चा धार्मिक धनवान मनुष्य दान आदि के द्वारा परोपकार के कार्य करता है वैसे ही ईश्वर भी जीवात्माओं के सुख के लिए सृष्टि की रचना करता है।

 

ईश्वर सृष्टि की रचना कैसे करता है, इसका उत्तर है कि वह सृष्टि के उपादान कारण सत्, रज व तम गुणों वाली प्रकृति में विक्षोभ व विकार उत्पन्न कर उससे इस सृष्टि की रचना करता है। ऋषि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि रचना-सृष्टि की स्थिरता-प्रलय विषय पर व्याख्यान किया है। अतः इसके लिए सत्यार्थप्रकाश को पढ़ना चाहिये। इसी सम्मुल्लास से हम ऋषि दयानन्द जी के कुछ शब्दों को प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं ‘(प्रलय के बाद) जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा उन परमसूक्ष्म पदार्थों (प्रकृति के सत्व, रज, तम गुणों वाले कणों को) को इकट्ठा करता है। उसकी प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है उस का नाम महत्तत्व और जो उससे कुछ स्थूल होता है उस का नाम अहंकार और अहंकार से भिन्नभिन्न पांच सूक्ष्मभूत श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण पांच ज्ञानेन्द्रियां, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा ये पांच कर्मइन्द्रियां हैं और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पंचतन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत जिन को हम लोग प्रत्यक्ष देखते हैं, उत्पन्न होते हैं। उनसे नाना प्रकार की ओषधियां, वृक्ष, आदि, उनसे अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती। क्योंकि जब स्त्री पुरुषों के शरीर परमात्मा बना कर उन में जीवों का संयोग कर देता है तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है। यह समस्त सूर्य, चन्द्र, पृथिवी एवं लोक लोकान्तर आदि भौतिक जगत भी मूल प्रकृति के विकार से बना है।

 

 

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