“ईश्वर उन मनुष्यों का ही मित्र है जो जो उसकी वेदाज्ञाओं का पालन करते हैं”

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-मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

परमात्मा ने यह चराचर जगत बनाया है। यह जगत परमात्मा ने अपनी शाश्वत प्रजा जीवों को उनके पूर्वजन्मों व
पूर्वकल्पों में जीवों द्वारा किये गये उन कर्मों का सुख व दुःख रूपी फलां का
भोग कराने के लिये बनाया है जिनका फल वह वृद्धावस्था व मृत्यु आने के
कारण नहीं करा सका होता है। परमात्मा ने सृष्टि को बनाने के बाद जीवों को
सद्कर्म कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष प्राप्त करने के लिये सृष्टि के आरम्भ में
ही वेदों का ज्ञान भी दिया था। वेदों से हमें कर्तव्य व अकर्तव्यों का बोध होता
है। वेदों का ज्ञान ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है, यह अनेक तर्क व युक्ति प्रमाणों से
ज्ञात होता है। वेदों की भाषा पर ही विचार करें तो यह एक ऐसी भाषा है
जिसको मनुष्य नहीं बना सकते। मनुष्य ने जितनी भी भाषायें बनाईं हैं
उनमें अनेक दोष हैं। बहुत सी ऐसी ध्वनियां ऐसी हैं जिनका शुद्ध उच्चारण
देवनागरी लिपि के अक्षरों से बने शब्दों में यथावत् किया जा सकता है परन्तु अंग्रेजी आदि भाषाओं में उनका शुद्ध उच्चारण
नहीं किया जा सकता। वेदों में जो ज्ञान है वह मनुष्यों द्वारा रचित बाद के मत-पंथ-सम्प्रदायों के ग्रन्थों के ज्ञान की तुलना में
अतुलनीय एवं महान है। अतः वेदों का ईश्वरीय ज्ञान होना सिद्ध है। वेदों में मनुष्यों को ज्ञान प्राप्ति करने, अविद्या दूर करने,
ईश्वर व जीवात्मा सहित संसार को इसके यथार्थ रूप में जानने सहित ईश्वर की उपासना करने, अग्निहोत्र-यज्ञ करने, माता-
पिता-आचार्य-विद्वानों का सम्मान व सेवा करने, सभी प्राणियों के प्रति मित्र की दृष्टि व दया का भाव रखने, आलसी न
बनकर पुरुषार्थी बनने तथा वेदों का प्रचार करने की प्रेरणा है। अतः हम सब मनुष्यों का कर्तव्य है कि वेदों का अध्ययन कर
वेदविहित अपने कर्तव्यों एवं अकर्तव्यों को जानें और कर्तव्यों का पूर्णरूपेण पालन करें तथा अकर्तव्यों से सर्वथा दूर रहें।
परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है। उसने हमें मनुष्य का सुरदुर्लभ शरीर दिया है। हमें इस मानव शरीर का सदुपयोग
करना है तथा दुरुपयोग नहीं करना है। सदुपयोग हम तभी कर सकते हैं कि जब हमें वेदों का ज्ञान होगा। इस लिये मनुष्यों का
वेदपाठ वा वेदाध्ययन करना आवश्यक एवं अनिवार्य कर्तव्य है। हमें यह भी जानना है कि हम आत्मा हैं, शरीर हमारा साधन है
जिसे किसी विशेष प्रयोजन के लिये परमात्मा ने हमें दिया है। इसका प्रयोजन वेद विहित कर्तव्यों का पालन ही निश्चित होता
है। हमारे ऋषि मुनि व योगी उच्च श्रेणी की मनीषी व चिन्तक थे। वह विद्या पढ़कर योग विधि से ईश्वर का साक्षात्कार करते
थे और लोगों को सत्यासत्य का उपदेश देते थे जिससे साधारण जन सत्य को जानकर सत्य का ग्रहण कर सकें। इसके साथ ही
मनुष्य असत्य को भी समझकर उससे होने वाली हानियों को जानकर उन सबका त्याग कर सकें। सृष्टि के आरम्भ से सभी
सत्पुरुष यही कार्य करते आ रहे हैं। वह विद्वानों से विद्या ग्रहण करते हैं और उसके बाद स्वयं दूसरों को विद्यादान देकर
उनको जीवन के उद्देश्य व लक्ष्य से परिचित कराकर उन्हें लक्ष्य प्राप्ति के साधन बताने सहित उन साधनों का उपयोग व
अभ्यास करना बताते हैं। आज स्थिति यह है कि लोगों ने पाश्चात्य संस्कारों के कारण आत्मा को ऊंचा उठाने वाली सत्य
आध्यात्मिक विद्याओं को सीखना व उनका अभ्यास करना छोड़ दिया है। वह धनोपार्जान में सहायक केवल भौतिक
विद्याओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं और अपना सारा जीवन धनोपार्जन एवं भौतिक सुखों को भोगने जिनका परिणाम दुःख होता
है, उसी में व्यतीत करते हैं।
वैदिक जीवन पद्धति भोग प्रधान जीवन पद्धति न होकर आत्मा को परमात्मा से मिलाने वाली ऐसी पद्धति है
जिसमें मनुष्य को परमात्मा के सान्निध्य से असीम सुख वा आनन्द की उपलब्धि होती है। विद्वान बतातें हैं कि आर्थिक
दृष्टि से समृद्ध होकर मनुष्य जिन भौतिक सुखों को प्राप्त करता है उन सुखों की तुलना में योग साधना और समाधि में प्राप्त

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होने वाला सुख उससे कहीं अधिक उत्तम व स्थाई होता है। इससे मनुष्य को परजन्म में भी श्रेष्ठ योनि वा मोक्ष की प्राप्ति होती
है जबकि भौतिक जीवन जीने वाले अधिकांश लोगों का परजन्म कर्म प्रधान योनि में न होकर दुःखों से परिपूर्ण भोग प्रधान
योनियों पशु, पक्षी आदि अनेकानेक प्राणी योनियों में होता है। अतः मनुष्य को जीवन में आध्यात्मिक जीवन से दूरी को कम
करके उससे निकटता बनानी चाहिये। इसी में मनुष्य जीवन का कल्याण व लाभ है।
परमात्मा एक चेतन सत्ता है। मनुष्य की आत्मा भी चेतन है। दोनों परस्पर सखा व मित्र हैं। वेदों में इसका मनोरम
वर्णन है। वेदों में कहा गया है कि ‘द्वा सुपर्णा सयुजा सखया’ अर्थात् परमात्मा और जीवात्मा शाश्वत मित्र हैं। परमात्मा
सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार,
सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। जीवात्मा ईश्वर से पृथक एक
स्वतन्त्र सत्ता है। यह चेतन सत्ता होने सहित एकदेशी, अल्प परिमाण, ससीम, अल्पज्ञ, अल्पशक्ति वाला, अनादि, नित्य,
अमर, अजर, जन्म-मरण धर्मा, कर्मों का कर्ता व उसके फलों का भोक्ता है। जीवात्मा और परमात्मा दोनों आपस में मित्र हैं।
प्रश्न है कि यह दोनों आपस में किन परिस्थितियों में मित्र हैं और किन परिस्थितियों में मित्र नहीं हैं? विचार करने पर इसका
उत्तर यह मिलता है कि जब जीवात्मा वा मनुष्य ईश्वर की वेदों में की गई आज्ञाओं का पालन करता हुआ जीवन व्यतीत करता
है तो वह उसका मित्र होता है और जब ईश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं करता तो ईश्वर उस मनुष्य का मित्र नहीं होता, दोनों
की मित्रता शिथिल हो जाती है जिसका दोषी जीवात्मा होता है। इस बात को हम इस उदाहरण से भी समझ सकते हैं कि संसार
में माता-पिता की अनेक सन्तानें होती हैं। उन सन्तानों में कोई माता-पिता का आज्ञाकारी होता है और कोई नहीं भी होता।
आजकल तो टीवी आदि पर पुत्रों के माता-पिता का आज्ञाकारी न होने के अनेक उदाहरण सुनने को मिलते रहते हैं। माता-पिता
अपने उस पुत्र को जो उनका आज्ञाकारी होता है, उससे अधिक स्नेह रखते और उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं। दूसरे पुत्र व पुत्रों
को जो माता-पिता की आज्ञा व भावनाओं के विरुद्ध आचरण करते हैं, माता-पिता उनसे अपना सम्बद्ध विच्छेद तक कर लेते
हैं। परमात्मा भी हमारा आदर्श माता-पिता है। वह हमें तभी तक अपना आशीर्वाद देते हुए सुख प्रदान कर सकते हैं जब तक की
हम अच्छे व श्रेष्ठ कामों को करते हैं। यदि हम श्रेष्ठ कामों को नहीं करेंगे, अन्याय व स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों को कष्ट
देंगे व परोपकार व दान आदि न कर अपने व अपने परिवार तक सीमित हो जायेंगे अथवा यों कहें कि ईश्वर के इस वृहद परिवार
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की उपेक्षा करेंगे, तो परमात्मा भी हमें अपना धन, वैभव व सुख आदि उस मात्रा में कदापि नहीं देगा जो
वह अपने उन पुत्रों को देता है जो उसकी आज्ञाओं का मन, वचन व कर्म से पालन करते हैं। हम समझते हैं कि यह सिद्धान्त
तर्कसंगत है जिसका कोई विरोध नहीं कर सकता। इसलिये वेदाध्ययन सबके लिये अनिवार्य कर्तव्य है और उसके बाद
निश्चित हुए वैदिक कर्तव्यों का पालन भी हम सबका धर्म सिद्ध होता है। हमें अपने वेदविहित कर्तव्यों की उपेक्षा कदापि नहीं
करनी चाहिये।
परमात्मा सभी मनुष्यों व प्राणियों का मित्र है परन्तु इसके लिये हमें भी उसके नियमों व आज्ञाओं का पालन करना है।
उसका मित्र बनने के बाद हमारे सभी हित सुरक्षित रहते हैं। परमात्मा एक मित्र की तरह हमारी आत्मा में प्रेरणा कर हमारा
मार्गदर्शन एवं रक्षा करता है। हम जो पुरुषार्थ करते हैं उसमें हमें सफलता मिलती है। हमारा यश व कीर्ति बढ़ती है। हमारे ज्ञान
एवं आचरण अथवा समाज एवं देशोपयोगी कार्यों के कारण सज्जन मनुष्य हमें पसन्द करते हैं व हमसे मित्रता करना चाहते
हैं। मनुष्य के जीवन में काया के दुःख रोग आदि एवं अन्य कई प्रकार के संकट आते रहते हैं। ऐसे अवसरों पर सज्जन पुरुषों की
मित्रता से मनुष्य को सान्तवना व मानिसक सन्तोष का अनुभव होता है। परमात्मा से मित्रता होने, सन्ध्योपासना एवं
अग्निहोत्र यज्ञ के करने से मनुष्य कभी अभावग्रस्त नहीं होता, ऐसा अनेक वैदिक विद्वानों का मत है। अभावग्रस्त न होने का
अर्थ है कि निर्धनता समाप्त हो जाती है। इससे मनुष्य आर्यसमाज जैसे संसार के श्रेष्ठ विचारों व सिद्धान्तों वाले संगठन का
एक हिस्सा व अंग बनता है। वेद मार्ग पर चलने से मनुष्य की सामाजिक उन्नति भी होती है। परमात्मा भी वेदानुयायी मनुष्य
की पात्रता के अनुसार उसे सभी प्रकार से सुरक्षित, रोगों से दूर, स्वस्थ एवं सुखी रखते हैं। अनेक दुर्घटनाओं में भी परमात्मा

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अपने भक्तों की रक्षा करते हैं। ऐसे अनेक लाभ हैं कि जो ईश्वर की वेदाज्ञा का पालन कर उसे अपना मित्र व हितैषी बनाने से
होते हैं। इसी के साथ हम इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य
पताः 196 चुक्खूवाला-2
देहरादून-248001
फोनः09412985121

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