सौभाग्य तृतीया पर विशेष

संजय बिन्नाणी

सफल दाम्पत्य की साधना का पर्व गणगौर

इन दिनों दाम्पत्य जीवन सबसे अधिक असुरक्षाओं से घिरा दिखता है, इसलिए वासन्ती नवरात्र की प्रासंगिकता पहले से अधिक हो गई है। सफल दाम्पत्य, अपने आप में किसी साधना से कम नहीं है। इसका प्रमाण, इस नवरात्र में पूजित गौरी-ईश्वर, अन्नपूर्णा-विश्वेश्वर का अस्तित्व और उनकी पृष्ठभूमि है। आदर्श भारतीय परिवार के सनातन प्रतीक शिव-पार्वती हैं। उनका वर-कन्या वेश ही ‘गौरी-ईसर’ व वर-वधू रूप ही ‘अन्नपूर्णा-विश्वेश्वर’ के रूप में पूजा जाता है। तमिलनाडु में यही उत्सव-मूर्ति, ‘मीनाक्षी-सुन्दरेश्वर’ नाम से पूजित है। दोनों की पृष्ठभूमि, गहरी तपस्या से जुड़ी है। दोनों ने ही पहले एक-दूसरे के योग्य बनने के लिए तप किया और बाद में परस्पर अनुकूल बने रहने की साधना करते रहे। यह एक-दूसरे के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा का अभूतपूर्व उदाहरण है।

कई पुराणों में यह विवरण भी मिलता है कि गौरी, जन्म से ‘काली’ थी। एक बार शिव द्वारा मजाक में ही उन्हें काली कहे जाने पर, उन्होंने ‘गोरी’ होने के लिए इतना कठिन तप किया कि स्वयं ब्रह्मा को उनके सामने प्रकट होकर, उन्हें स्वर्ण-चम्पा के समान गौर-वर्ण प्रदान करना पड़ा और शिव को अपने शरीर का आधा स्थान। तभी से शिव, अर्द्धनारीश्वर कहाए।

वासन्ती नवरात्र की विशेषता यह है कि ये नौ दिन-रात : शृंगार, सौन्दर्य, सुहाग, सौभाग्य, अन्न-धन-सम्पद, परिवार सुख और वंश वृद्धि से जुड़े हैं। इसकी तृतीया तिथि को सौभाग्य तृतीया, गौरी दोलोत्सव एवं गणगौर के नाम से देशभर में व्रत-उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पुराणों में यह तिथि शिव-गौरी के दाम्पत्य जीवन में प्रवेश की तिथि के रूप में वर्णित है। कुमारियाँ- मनवांछित जीवन-साथी पाने के लिए, सुहागिनें- दाम्पत्य जीवन की लम्बी यात्रा (अखण्ड सुहाग), वंश-वृद्धि और धन-धान्य पाने की कामना से गौरी पूजा करती हैं। गणेश जननी के रूप में गौरी वात्सल्यमूर्ति हैं तो अर्द्धनारीश्वर की वामांगी होने के नाते आदर्श सहधर्मिणी हैं। विषपायी शिव को लोक-कल्याण की साकार मूर्ति कहा जाता है। आपस में वैर भाव रखने वाले प्राणियों को परस्पर स्नेह-सद्भाव और आत्मीयता के बंधन से बांधकर रखने वाले परिवार के मुखिया हैं वे। इसीलिए वे जगत्पिता हैं, इसीलिए वे ईश्वर हैं।

उमाशंकर के इन्हीं गुणों ने उन्हें राजस्थानी लोक में गणगौर के रूप में स्थापित किया। गण- शिव हैं और गौर- गौरी अर्थात् उमा, पार्वती हैं। राजस्थान के घर-घर में उनकी पूजा होती है। केवल सनातन धर्मी ही नहीं, बल्कि जैन समाज का एक बड़ा हिस्सा भी इससे जुड़ा है। छोटी संख्या में ही सही, कुछ मुस्लिम परिवारों के भी इस परम्परा से जुड़े होने के प्रमाण मिलते हैं।

कोलकाता निवासी राजस्थानी मूल के लोगों ने सन् 188० में, बड़ाबाजार स्थित बलदेवजी के मन्दिर प्रांगण से गौरी (गणगौर) पूजन की सार्वजनिक परम्परा की शुरुआत की। बड़ाबाजार के सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट में बलदेव जी के मन्दिर प्रांगण में तथा उसके पास स्थित छाजै की बाड़ी में, हंसपुकुर लेन में गोवर्धननाथ जी के मन्दिर प्रांगण व 8 हंसपुकुर फस्र्ट लेन में, महात्मा गांधी रोड स्थित पारख कोठी में, नीम्बूतल्ला स्थित गवर बाड़ी में, ढाकापट्टी स्थित मनसापूरण चौक में, 1/1 गांगुली लेन व 15 बी कलाकार स्ट्रीट सहित विभिन्न अंचलों में, गणगौर पर्व के सार्वजनिक उत्सव-आयोजन हो रहे हैं।

इस पर्व के पाँच-छ: दिनों में बड़ाबाजार, राजस्थानमय हो जाता है। सौभाग्य तृतीया व चतुर्थी को सायंकाल निकलने वाली शोभायात्राओं के दौरान तो लगता है जैसे राजस्थान ही बड़ाबाजार में आ गया है। जगह-जगह लोग सामूहिक रूप से नवरचित गौरी वन्दना का गायन करते हुए चलते हैं। उनके साथ होती हैं रंग-बिरंगी रूप-सज्जा वाली झाँकियाँ, जो विविध भावों को प्रकट कर रही होती हैं। उत्सवप्रिय बंगभूमि पर राजस्थान की समृद्ध लोकसंस्कृति का अद्भुत दृश्य उपस्थित करता है यह पर्व।

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