शुभ-लाभ नहीं होगा, चीन के अशुभ सामान से

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शुभ-लाभ नहीं होगा, चीन के अशुभ सामान से

भारतीय परम्पराओं और शास्त्रों में केवल लाभ अर्जन करनें को ही लक्ष्य नहीं माना गया बल्कि वह लाभ शुभता के chinese itemsमार्ग से चल कर आया हो तो ही स्वीकार्य माना गया है. दीवाली के इस अवसर पर जब हम अपनें निवास और व्यवसाय स्थल पर शुभ-लाभ लिखतें हैं तो इसके पीछे यही आशय होता है. विचार शुभ हो, जीवन शुभ हो और लाभ अर्थात जीवन में मिलनें वाला प्रत्येक आनंद या प्रतिफल भी शुभ और शुचिता पूर्ण हो और उससे केवल व्यक्ति विशेष नहीं अपितु सम्पूर्ण समाज आनंद प्राप्त कर परिमार्जित हो. शुभ के देवता गणेश हैं जो कि बुद्धि के देवता है एवं लाभ की देवी लक्ष्मी है. अर्थात बुद्धि से प्राप्त लक्ष्मी या प्रतिफल. दीवाली और अन्य वर्ष भर के अवसरों पर जिस प्रकार हम हमारें पारंपरिक राष्ट्रीय प्रतिद्वंदी चीन में बनें सामानों का उपयोग कर रहें हैं उससे तो कतई और कदापि शुभ-लाभ नहीं होनें वाला है.

एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में हम, हमारी समझ, हमारी अर्थ व्यवस्था और हमारी तंत्र-यंत्र अभी शिशु अवस्था में ही है. इस शिशु मानस पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी और उसके बाद के अंग्रेजों व्यापार के नाम पर हमारें देश पर हुए कब्जे और इसकी लूट खसोट की अनगिनत कहानियाँ हमारें मानस पर अंकित ही रहती है और हम यदा कदा और सर्वदा ही इस अंग्रेजी लूट खसोट की चर्चा करतें रहतें हैं. व्यापार के नाम पर बाहरी व्यापारियों द्वारा विश्व के दुसरे बड़े राष्ट्र को गुलाम बना लेनें की और उसके बाद उस सोनें की चिड़िया को केवल लूटनें नहीं बल्कि उसके रक्त को अंतिम बूंदों तक पाशविकता से चूस लेनें की घटना विश्व में कदाचित ही कहीं और देखनें को मिलेंगी. यद्दपि हम और हमारा राष्ट्र आज उतनें भोले नहीं है जितनें पिछली सदियों में थे तथापि विदेशी सामान को क्रय करनें के विषय में हमारें देशी आग्रह जरा कमजोर क्यों पड़तें हैं इस बात का अध्ययन और मनन हमें आज के इस “बाजार सर्वोपरि” के युग में करना ही चाहिए!! आज हमारें बाजारों में चीनी सामानों की बहुलता और इन सामानों से ध्वस्त होती भारतीय अर्थव्यवस्था और चिन्न भिन्न होतें ओद्योगिक तंत्र को देख-समझ ही नहीं पा रहें हैं और हमारा शासन तंत्र और जनतंत्र दोनों ही इस स्थिति को सहजता से स्वीकार कर रहें हैं- इससे तो यही लगता है.

पिछले दिनों हम भारतीय एक उल्लेखनीय राजनयिक घटना के साक्षी बनें जिसके अंतर्तत्व को प्रत्येक भारतीय समझे यह आवश्यक है. पिछले माह चीनी राष्ट्रपति के भारत प्रवास में भारत प्रशासन उनसें सौ अरब डालर के निवेश हेतु आश्वस्त था किन्तु इसके सामनें उन्होंने मात्र 20 अरब डालर के ही निवेश की घोषणा की. ऐसा क्यों हुआ था इस बात को हमें स्मरण रखना चाहिए!! इसके पीछे यह वजह है कि शी जिनफिंग के दौरे के दौरानचीनी सेना के भारतीय सीमा में अतिक्रमण को मोदी ने मुखरता से उठाया था. चीन द्वारा यह कहा जाना कि “सीमा विवाद को एक तरफ रखकर दोनों देश आर्थिक कार्यक्रमों पर ध्यान लगायेंगे” यह चीन का एक छलावा मात्र है. शी के भारत आगमन के ठीक पूर्व सीमा पर चीन के अन्दर आनें और पीछे हटनें का कूटनीतिक प्रयोग शी नें किया था. शी ने संभवतः इस प्रयोग से नए भारतीय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के रूख को समझनें की कोशिश की और फिर बड़ा ही निवेश की राशि कम करके स्पष्ट सन्देश देकर एक प्रकार से “देख लो- समझ लो- अन्यथा झेल लो” का वातावरण सफलता पूर्वक निर्मित कर दिया था. अब यह भारतीयों पर निर्भर है कि हम ड्रेगन के इस व्यवहार को किस प्रकार अपनें आचरण में उतारते हैं.

वो तो भारत का तेजी से विस्तारित होता भारतीय बाजार है जिसके कारण अपनी दीवार को पार करके शी भारत आये अन्यथा भारत तो उनकें लिए एक एशियाई क्षेत्र में एक परम्परागत प्रतिद्वंदी के सिवा कुछ है ही नहीं. चीन ने भारत के टेलीकाम व्यवसाय में लगभग चार अरब डालर का भारी निवेश किया हुआ है. इन सब प्रकार के बाजारों के दोहन के माध्यम से चीनी उद्योग हमसें प्रतिवर्ष लगभग 35 अरब डालर का लाभ कमा ले जातें हैं. 35 अरब डालर के लाभ के सामनें 20 अरब डालर के निवेश की घोषणा एक छलावे के सिवा कुछ नहीं है.

हम भारतीय उपभोक्ता जब इस दीपावली की खरीदी के लिए बाजार जायेंगे तो इस चिंतन के साथ स्थिति पर गंभीरता पर गौर करें कि आपकी दिवाली की ठेठ पुरानें समय से चली आ रही और आज के दौर में नई जन्मी दीपावली की आवश्यकताओं को चीनी ओद्योगिक तंत्र ने किस प्रकार से समझ बूझ कर आपकी हर जरुरत पर कब्जा जमा लिया है. दियें, झालर, पटाखें, खिलौनें, मोमबत्तियां, लाइटिंग, लक्ष्मी जी की मूर्तियाँ आदि से लेकर त्योंहारी कपड़ों तक सभी कुछ चीन हमारें बाजारों में उतार चुका है और हम इन्हें खरीद-खरीद कर शनैः शनैः एक नई आर्थिक गुलामी की और बढ़ रहें हैं.इन सब के मध्य हमें हमारें नए प्रम मोदी जी से यह भी पूछना है कि मनमोहन सिंग के समय पर चीनी उद्योगों को जो भारत में स्पेशल सेज यानि लगभग उपनिवेश जैसा ओद्योगिक क्षेत्र बनाकर देनें के ईस्ट इंडियाना प्रस्ताव को रद्द कर दिया गया है नहीं!? यदि हम गौर करेंगे तो पायेंगे कि दीपावली के इन चीनी सामानों में निरंतर हो रहे षड्यंत्र पूर्ण नवाचारों से हमारी दीपावली और लक्ष्मी पूजा का स्वरुप ही बदल रहा है. हमारा ठेठ पारम्परिक स्वरुप और पौराणिक मान्यताएं कहीं पीछें छूटती जा रहीं हैं और हम केवल आर्थिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक गुलामी को भी गले लगा रहें हैं. हमारें पटाखों का स्वरुप और आकार बदलनें से हमारी मानसिकता भी बदल रही है और अब बच्चों के हाथ में टिकली फोड़ने का तमंचा नहीं बल्कि माउजर जैसी और ए के 47 जैसी बंदूकें और पिस्तोलें दिखनें लगी है. हमारा लघु उद्योग तंत्र बेहद बुरी तरह प्रभावित हो रहा है. पारिवारिक आधार पर चलनें वालें कुटीर उद्योग जो दीवाली के महीनों पूर्व से पटाखें, झालरें, दिए, मूर्तियाँ आदि-आदि बनानें लगतें थे वे तबाही और नष्ट हो जानें के कगार पर है. कृषि, कुम्हारी, और कुटीर उत्पादनों पर प्रमुखता से आधारित हमारी अर्थ व्यवस्था पर मंडराते इन घटाटोप चीनी बादलों को न तो हम पहचान रहे हैं ना ही हमारा शासन तंत्र. हमारी सरकार तो लगता है वैश्विक व्यापार के नाम पर अंधत्व की शिकार हो गई है और बेहद तेज गति से भेड़ चाल चल कर एक बड़े विशालकाय नुक्सान की और देश को खींचें ले जा रही है.

केवल कुटीर उत्पादक तंत्र ही नहीं बल्कि छोटे, मझोले और बड़े तीनों स्तर पर पीढ़ियों से दीवाली की वस्तुओं का व्यवसाय करनें वाला एक बड़ा तंत्र निठल्ला बैठनें को मजबूर हो गया है. लगभग पांच लाख परिवारों की रोजी रोटी को आधार देनें वाला यह त्यौहार अब कुछ आयातकों और बड़े व्यापारियों के मुनाफ़ा तंत्र का एक केंद्र मात्र बन गया है. बाजार के नियम और सूत्र इन आयातकों और निवेशकों के हाथों में केन्द्रित हो जानें से सड़क किनारें पटरी पर दुकानें लगानें वाला वर्ग निस्सहाय होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जानें को मजबूर है. यद्दपि उद्योगों से जुड़ी संस्थाएं जैसे-भारतीय उद्योग परिसंघ और भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) ने चीनी सामान के आयात पर गहन शोध एवं अध्ययन किया और सरकार को चेताया है तथापि इससे सरकार चैतन्य हुई है इसके प्रमाण नहीं दिखतें हैं.

आश्चर्य जनक रूप से चीन में महंगा बिकने वाला सामान जब भारत आकर सस्ता बिकता है तो इसके पीछे सामान्य बुद्धि को भी किसी षड्यंत्र का आभास होनें लगता है किन्तु सवा सौ करोड़ की प्रतिनिधि भारतीय सरकार को नहीं हो रहा है. सस्ते चीनी माल के भारतीय बाजार पर आक्रमण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए एक अध्ययन में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) ने कहा है, “चीनी माल न केवल घटिया है, अपितु चीन सरकार ने कई प्रकार की सब्सिडी देकर इसे सस्ता बना दिया है, जिसे नेपाल के रास्ते भारत में भेजा जा रहा है, यह अध्ययन प्रस्तुत करते हुए फिक्की के अध्यक्ष श्री जी.पी. गोयनका ने कहा था, “चीन द्वारा अपना सस्ता और घटिया माल भारतीय बाजार में झोंक देने से भारतीय उद्योग को भारी नुकसान हो रहा है. भारत और नेपाल व्यापार समझौते का चीन अनुचित लाभ उठा रहा है.’ पटाखों के नाम पर विस्फोटक सामग्रियों के आयात का खतरा भारत पर अब बड़ा और गंभीर हो गया है.

चीन द्वारा नेपाल के रास्ते और भारत के विभिन्न बंदरगाहों से भारत में घड़ियां, कैलकुलेटर, वाकमैन, सीडी, कैसेट, सीडी प्लेयर, ट्रांजिस्टर, टेपरिकार्डर, टेलीफोन, इमरजेंसी लाइट, स्टीरियो, बैटरी सेल, खिलौने, साइकिलें, ताले, छाते, स्टेशनरी, गुब्बारे, टायर, कृत्रिम रेशे, रसायन, खाद्य तेल आदि धड़ल्ले से बेचें जा रहें हैं.  दीपावली पर चीनी आतिशबाजी और बल्बों की चीनी लड़ियों से बाजार पटा दिखता है. पटाखे और आतिशबाजी जैसी प्रतिबंधित चीजें भी विदेशों से आयात होकर आ रही हैं, यह आश्चर्य किन्तु पीड़ा जनक और चिंता जनक है. आठ रुपए में साठ चीनी पटाखों का पैकेट चालीस रुपए तक में बिक रहा है, सौ सवा सौ रूपये घातक प्लास्टिक नुमा कपड़ें से बनें लेडिज सूट, बीस रूपये में झालरें-स्टीकर और पड़ चिन्ह पंद्रह रुपए में घड़ी, पच्चीस रुपए में कैलकुलेटर,  डेढ़-दो रुपए में बैटरी सेल बिक रहें हैं. घातक सामग्री और जहरीले प्लास्टिक से बनी सामग्री एक बड़ा षड्यंत्र नहीं तो और क्या है?

गत वर्ष तिरुपति से लेकर रामेश्वरम तक की सड़क मार्ग की यात्रा में साशय मैनें भारतीय पटाखा उद्योग की राजधानी शिवाकाशी में पड़ाव डाला था. यहाँ के  निर्धनता और अशिक्षा भरे वातावरण में इस उद्योग ने जो जीवन शलाका प्रज्ज्वलित कर रखी है वह एक प्रेरणास्पद कथा है. लगभग बीस लाख लोगों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार और सामाजिक सम्मान देनें वाला शिवाकाशी का पटाखा उद्योग केवल धन अर्जित नहीं करता-कराता है बल्कि इसनें दक्षिण भारतीयों के करोड़ों लोगों को एक सांस्कृतिक सूत्र में भी बाँध रखा है. परस्पर सामंजस्य और सहयोग से चलनें वाला यह उद्योग सहकारिता की नई परिभाषा गढ़नें की ओर अग्रसर होकर वैसी ही कहानी को जन्म देनें वाला था जैसी कहानी मुंबई के भोजन डिब्बे वालों ने लिख डाली है; किन्तु इसके पूर्व ही चीनी ड्रेगन इस समूचे उद्योग को लीलता और समाप्त करता नजर आ रहा है. यदि घटिया और नुकसानदेह सामग्री से बनें इन चीनी पटाखों का भारतीय बाजारों में प्रवेश नहीं रुका तो शिवाकाशी पटाखा उद्योग इतिहास का अध्याय मात्र बन कर रह जाएगा.

भारत में 2000 करोड़ रूपये से अधिक का चीनी सामान तस्करी से नेपाल के रास्तें आता है इसमें से दीपावली पर बिकनें वाला सामान की हिस्सेदारी लगभग 350 करोड़ रु. की है. इतनें बड़े व्यवसाय पर प्रत्यक्ष कर निदेशालय की नजर न पड़ना और वित्त, विदेश, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालयों का आँखें बंद किये रहना सिद्ध हमारी शुतुरमुर्गी प्रवृत्तियों और इतिहास से सबक न लेनें की और गंभीर इशारा करता है. विभिन्न भारतीय लघु एवं कुटीर उद्योगों के संघ और प्रतिनिधि मंडल भारतीय नीति निर्धारकों का ध्यान इस ओर समय समय पर आकृष्ट करतें रहें है. दुखद है कि  विभिन्न सामरिक विषयों पर पिछले दशक में देश की तत्कालीन सप्रंग सरकार और इसके मुखिया मनमोहन सिंह चीन के समक्ष निष्प्रभावी और निस्तेज रहें हैं. भारतीय जनमानस को विश्वास है कि नमो अपनें राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की मुखरता को बाजारवाद और थोथे विकासवाद के चलते दबायेंगे नहीं और चीन के समक्ष अपनें भारतीय उत्पादकों और उपभोक्ताओं के सरंक्षण की बलि चढानें के क्रम को पलट देंगे. सामान्य भारतीय उपभोक्ता से भी यह राष्ट्र यही आशा रखता है कि वह यथासंभव अपनें आपको चीन में बनें उत्पादों से दूर रखे और शुभ-लाभ को प्राप्त करनें की ओर अग्रसर हो.

 

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