गोरे असुरों का भारत-अभियान अर्थात आधुनिक देवासुर संग्राम

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मनोज ज्वाला

इस आधुनिक युग अर्थात, ‘कल-युग’ (यांत्रिक युग) में ‘देवासुर संग्राम’ का स्वरुप सामरिक नहीं, बौद्धिक है । इसका आयाम भारत बनाम अन्य है और इसकी दिशा पश्चिम बनाम पूरब है । यह संग्राम घोषित तौर पर यद्यपि इन्द्र के स्वर्गासन अथवा विष्णु के त्रिभुवन पर अधिकार को ले कर नहीं है , तथापि इसका अघोषित लक्ष्य समस्त ज्ञान-विज्ञान का आसुरीकरण-ईसाईकरण-पश्चिमीकरण कर भारत व भारत के सनातन धर्म को नष्ट कर देना ही है । यह मानव और दानव के बीच कोई शारीरिक-सामरिक संग्राम नहीं है , बल्कि मानव-मानव के बीच एशिया-अफ्रीका के विरूद्ध रंगभेद व नस्लभेद-आधारित वेटिकन सिटी के एक-तरफा बौद्धिक षडयंत्र का क्रियान्वयन है । जी हां , श्वेत चमडी वालों के द्वारा अश्वेतों की अस्मिता व धार्मिक पहचान मिटा देने और पृथ्वी के समस्त सम्पदाओं-संसाधनों को अपने कब्जे में ले लेने के षड्यंत्र का क्रियान्वयन । श्वेत-असुरों के इस वैश्विक अभियान में भारत और भारतीय राष्ट्रीयता , अर्थात सनातन धर्म सबसे बडा बाधक है ; इस कारण मुख्य निशानें पर यही है । किन्तु इन आसुरी बौद्धिक षडयंत्रों से हमारे देश का आम जन-मानस तो दूर , पढा-लिखा सामान्य बौद्धिक समाज भी प्रायः अनभिज्ञ ही ; जबकि बुद्धिबाजों का एक खास महकमा ऐसा भी है जो इन्हीं पश्चिमी षड्यंत्रकारियों का हस्तक बना हुआ है । उच्च शिक्षण संस्थानों व मीडिया घरानों और विदेशी धन पर पल-बढ रहे स्वयंसेवी संस्थाओं (एन०जी०ओ०) से सम्बद्ध ये बुद्धिबाज भारतीय समाज में मुर्द्धन्य व अग्रगण्य माने जाते रहे हैं । यह तो और भी चिन्ताजनक है ।
जिस जमाने में जम्बु-द्वीप, अर्थात भारत-प्रायद्वीप की समृद्धि का शोर पूरी दुनिया भर में सुना जा रहा था एवं भारतीय वणिकों की व्यापारिक नौकाओं का परचम सात-समन्दर पार के बन्दरगाहों पर भी लहरा रहा होता था और हिमालय पार इधर इस्लाम का बवण्डर गंगा में डूब कर हिन्दूत्व के रंग में रंगता जा रहा था ; उन दिनों यूरोपीय-अमेरिकी देशों में दरिद्रता छायी हुई थी । भीषण शीत के प्रकोप से ऊसर हुई उस महाद्वीप की भूमि इतना खाद्यान्न उगलने में भी सक्षम नहीं थी कि वहां के सभी निवासियों के पेट भर सकें । इस कारण खाद्यान्न के लिए भी उन मुल्कों में दंगे-फसाद होते रहते थे । भुखमरी, कुपोषण, बीमारी-महामारी और अकाल-मृत्यु के बावजूद जनसंख्या-बृद्धि वहां की स्थायी समस्यायें थीं । एक ओर अभावग्रस्त बहुसंख्य आबादी दारुण दुःख भोगने को अभिशप्त थी, तो दूसरी ओर अत्यल्प सम्पन्न जागीरदार अमीर लोग भोजन की प्रचुरता व मैथुन की स्वच्छंदता के साथ पशुओं की तरह उन्मद रहते थे । जीवन जीने की जद्दोजहद के साथ गरीबों और अमीरों के बीच प्रायः दंगा-फसाद होते रहते थे । इंग्लैण्ड तो ‘काली मौत’ कही जाने वाली ‘प्लेग’ नामक महामारी और अधिक से अधिक जमीन घेरने की मारामारी से ‘बेकार’ और ‘आवारा’ लोगों का घर बना हुआ था । चौदहवीं शताब्दी के दरम्यान उस ‘काली मौत’ के प्रकोप से असुरों के उस देश में भूमिहीनों की लगभग आधी आबादी जब साफ हो गई , तब मजदूरों की कमी के कारण जागीरदारों के लिए खेती से ज्यादा उपयुक्त हो गया भेड-पालन, जो ऐसा उद्यम था कि उससे भोजन-वसन की दोनों ही जरुरतें पूरी होती थीं । खाने के लिए गोश्त और पहनने के लिए ऊनी वस्त्र, जिसकी जरूरत उन्हें भी थी और आस-पास के शेष यूरोपियन ठण्डे मुल्कों को भी । किन्तु, भेडों के चरने हेतु चारागाहों और उन्हें अन्य जानवरों से बचाने के लिए बडी संख्या में बडे-बडे बाडों की व्यवस्था जरूरी हो गई । फलतः भेडें बची रहें और बढती रहें , इसके लिए जमीनदारों-जागीरदारों ने अधिक से अधिक भूमि हथियाने-घेरने का एक व्यापक अभियान ही छेड दिया । उस परती जमीन को भी घेर लेने का अभियान, जो भूमिहीनों-गरीबों-मजदूरों को जलावन बटोरने और पशुएं चराने के लिए परम्परा से ही हासिल थी । उस मुल्क में तब अर्थव्यवस्था की दृष्टि से भेडें बहुत कीमती थीं, आदमी के बनिस्बत । फलतः गांव के गांव उजडने लगे और भूमिहीन गरीबों की तादात बढने लगी । देखते-देखते ही समाज में भीखमंगों- कंगालों का एक ऐसा वर्ग कायम हो गया, जिसके लिए अपने ही मुल्क में जीवन जीने की आजीविका पाने की सम्भावनायें समाप्त हो गईं । उस मुल्क की राज-सत्ता उनके लिए जीविका का बन्दोबस्त कहां करती कि उसने ‘पूअर ला’ नामक एक ऐसा कानून बना दिया कि उससे उन अभागों का जीवन और भी दुष्कर हो गया । क्योंकि, एक तरफ उस कानून के तहत शहर में उन कंगालों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया तथा जैसे-तैसे घुस आये उन लोगों को घोडों के पीछे बांध कर कोडे मारते हुए उन्हें सडकों पर घुमाया जाने लगा और शासन की ओर से उनकी सामूहिक हत्यायें की जाने लगी ; तो दूसरे तरफ ‘बायबिल’ नामक एक तथाकथित आसमानी किताब के सहारे ‘पाप-पुण्य’ का सौदा कर रही रोमन-चर्च की षडयंत्रकारी धर्म-सत्ता उस अन्याय-आतंक पर औचित्य की मुहर लगाते हुए उनके विरूद्ध घृणा का विष-वमन कर रही थी । ऐसी भीषण दारुण दुःसह्य सामाजिक-शासनिक परिस्थितियों से विवश होकर वे पीडित-प्रताडित लोग अपने देश की उस सडी-गली ‘पुरानी दुनिया’ के आतंक से मुक्त होने और किसी ‘नयी दुनिया’ में जाने को व्यग्र हो उठे । ऐसे हजारों लोगों ने ‘मरता क्या नहीं करता’ की तरह समुद्र की शरण ले ली और नाविक बन लूट-मार को अपना पेशा बना लिया । इतिहासकार- जार्डन के अनुसार “ समुद्री डाका और लूट-पाट बहुत लाभदायक धंधे थे । नाविक बने वे लोग, जिन्हें हताशा ने उद्धत और दुर्दांत भी बना दिया था, जिनके मन में इंग्लैण्ड की राज्य-शक्ति या सभ्य समाज के प्रति गहरी वितृष्णा घर कर चुकी थी, उन्होंने समुद्री लूट-पाट को ही अपनी जीविका बना लेना बेहतर समझा । ” समुद्री मार्ग से आते-जाते व्यापारियों को ये नये-नये नाविक लूटने लगे और स्वयं मालामाल होने लगे । दक्षिण अमेरिका एवं अफ्रीका के खदानों से चांदी निकाल जहाजों में लाद कर स्पेन ले जा रहे होते स्पेनिश लोगों को अथवा भारत से मिर्च-मशाला, हीरे-जवाहरात ला रहे होते पुर्तगालियों को वे अंग्रेज नाविक बडे आसानी से लूट लिया करते थे ।
लूट-पाट को अपना पेशा बना चुके वे लोग उस तथाकथित ‘सभ्य समाज’ की राज-सत्ता और ‘रोमन-चर्च’ की धर्म-सत्ता के आतंक से भागे तो थे सभ्य-सम्पन्न बनने की मजबूरी में, किन्तु भागने से रिश्ता खत्म थोडे ही होता है । जिनके द्वारा भगाये गये थे, अथवा जिनसे दूर भागे थे, उन्हीं से सम्मान पाने की लालसा भी थी उनमें । इसलिए लूट और डकैती के माल का एक अंश वे उस ‘सभ्य-समाज’ के उन ‘सभ्य लोगों’ को भी देने लगे, जिनमें ‘वेटिकन’ के पोप एवं उसके चर्च के पादरी और ब्रिटिश राजमहल के राजा-रानी से लेकर दरबारी- लार्ड-जागीरदार तक शामिल थे । राजमहल और वेटिकन-चर्च को उनसे मुफ्त में ही बेशकीमती माल जब मिलने लगे, तब मजबूरी में डाकू-लुटेरा बने उन लोगों को उस यूरोप महादेश की वही धर्म-सत्ता और ब्रिटेन की वही राज-सत्ता उन्हें ‘सर’ और ‘नाईटहूड’ नामक सम्मानजनक पदवियों से सम्मानित करने लगी । उन्हें शासनिक-धार्मिक ही नहीं, बौद्धिक संरक्षण भी दिया जाने लगा । उनके लूट के नये-नये ठीकानों की तलाश को ‘नयी दुनिया की खोज’ घोषित किया जाने लगा और लूट-पाट के उनके उस कारोबार को वैध करार दे दिया गया । फिर तो फ्रांसिस ड्रेक, जान हाकिन्स, वाल्टर रेसे और टामस रो जैसे तमाम समुद्री लूटेरे ‘सर’ कहलाने लगे तथा इंग्लैंण्ड इस अर्थ में एक राष्ट्र बनने लगा कि स्पेन से जब उसके रिश्ते बिगड गए, तब दक्षिण अमेरिका की खानों से चांदी लाद कर ला रहे स्पेनिस जहाजों को लूटने का अपराध-कर्म युद्ध-नीति का अंग माना जाने लगा और उन जहाजों को लूटने वाले लूटेरे ब्रिटिश महारानी के हाथों ‘राष्ट्रीय योद्धा’ का सम्मान पाने लगे । इस तरह की लूट से इंग्लैंण्ड में इतना-इतना धन आने लगा कि उस मुल्क के जिन सम्पन्न लोगों को भी पहले महीनों का सूखा बासी उबाऊ नीरस गोश्त खाना पडता था, वे सब खुद को ‘इण्डिया’ के सुगन्धित जायकेदार मसालों से अपने भोजन को स्वादिष्ट बना कर खाने योग्य समझने लगे और उस मुल्क में इतने-इतने सोने-चांदी बरसने लगे कि दुनिया भर से धन बटोर लाने के लिए उसी आकस्मिक समृद्धि के सहारे ब्रिटिश साम्राज्य की नींव तैयार हो गयी ।
बीतते समय के साथ उन समुद्री दस्युओं ने एक और खास किस्म के व्यापार का ईजाद कर लिया । समुद्र में मार-काट करने के साथ-साथ इन्हें मानव-तस्करी अर्थात भोले-भाले अफ्रिकी हब्सियों को गुलाम बना कर उनकी तिजारत करना भी लाभकारी प्रतीत हुआ । फिर तो अफ्रीका और वेस्ट इंडिज से निग्रो आदिवासियों को लाकर ‘मानव-शरीर’ बेचने का उनका व्यापार भी आकार ले लिया । इस तरह से लूट-पाट के लिए नयी-नयी दुनिया की खोज करने के साथ-साथ भोले-भाले मनुष्यों की खरीद-फरोख्त का उनका धंधा उस जमाने में खूब फला-फुला, जब इंग्लैंण्ड की राज-सत्ता पर महारानी एलिजाबेथ आसीन थी । चूंकि राजकोष खाली था, इस कारण महारानी ने अपने देश के विभिन्न दस्यु-दलों को दूर-सुदूर जा-जाकर लूट-पाट करने की लिखित अनुमति (आदेश) देनी शुरु कर दी । इस शर्त पर कि लूट के माल में रानी का खासा हिस्सा होगा । लूट-पाट के उस कारोबार को राजकीय मान्यता मिल जाने के बाद उन लूटेरों का मनोबल काफी बढ गया । देखते-देखते दस्यु-दलों की बाढ सी आ गयी । तब तक उनकी नौकायें आस-पास के समुद्री मार्गों में ही विचरन करती थीं, किन्तु वैसे दलों की संख्या अधिक हो जाने से माल बंट जाने के कारण उनमें से कुछ दस्यु-दल व्यापारी की शक्ल में यूरोप से बाहर सचमुच ही ‘इण्डिया’ जाने का स्वप्न देखने लगे । क्योंकि, तब तक इण्डिया नामक भारत की समृद्धि के बारे में उन्हें तरह-तरह की ललचाऊ जानकारियां मिल चुकी थी और वे खुद को सचमुच ही भारत के खुसबुदार मसालाओं से अपना भोजन स्वादिष्ट बना कर खाने योग्य समझने लगे थे । लेकिन, इण्डिया पहुंचने के मार्ग की जानकारी नहीं थी उन्हें तब तक ।
उधर वास्कोडिगामा नामक पुर्तगाली नाविक अफ्रीका में मिले भारतीय व्यापारियों की मदद से हिन्द महासागर स्थित भारतीय सीमा के कालीकट बन्दरगाह तक अवश्य पहुंच गया था, जबकि कोलम्बस नामक स्पेनिस नाविक इण्डिया की खोज में भटकते-भटकते अमेरिका पहुंच कर उसे लूटने में व्यस्त हो गया । पुर्तगाली व्यापारी लोग भारत से कालीमिर्च और सुगंधित मसालाओं की खेपें खरीद ला-लाकर उसके व्यवसाय से अपने देशवासियों के खाने के गोश्त का जायका तो कब का बदल चुके थे, किन्तु ब्रिटिश नाविक इण्डिया पहुंचने के मार्ग की खोज में ही भटकते रहे, क्योंकि जिन्हें वे लूटते थे, वे व्यापारी-नाविक उन्हें इण्डिया पहुंचने का मार्ग भला क्यों बताते ? अंततः १०० साल तक ‘इण्डिया’ का मार्ग खोजते रहने के बाद फ्रांसिस ड्रेक नामक दस्यु ने जब भारतीय मसालाओं और अन्य दुर्लभ सामानों से लदे एक पुर्तगाली जहाज को लूटा, तब जाकर इंग्लैण्ड के भाग्य की खिडकियां खुलीं । क्योंकि , उस जहाज से उसे न केवल भारी मात्रा में सुगन्धित मसाले और अन्य दुर्लभ माल मिले, बल्कि एक ऐसा नक्शा भी मिला, जिसके सहारे वह बाद में इंण्डिया पहुंचने में सफल हो गया ।
फिर लूट-पाट से प्रचूर समृद्धि पाकर इंग्लैण्ड नामक वह देश जब राष्ट्र बनने ही लगा, तो वहां की राज-सत्ता के लिए जरूरी हो गया कि गरीब अंग्रेज देशवासियों की गरीबी दूर की जाए , अर्थात सबको सुगंधित मसाला उपलब्ध कराया जाए और सबको मसाला-युक्त स्वादिष्ट गोश्त खाने योग्य आर्थिक हैसियत वाला बनाया जाए । इसलिए महारानी एलिजाबेथ ने अपने वहां के उन दस्यु-दलों में से कुछ को लूट-पाट के लिए व्यापारी की शक्ल में यूरोप से बाहर , यानि इण्डिया जाने को भी प्रेरित-प्रोत्साहित किया । उसने अनेक दस्यु-दलों को इस बावत सशर्त अनुमति-पत्र प्रदान किया कि अपने खर्च और जोखिम की अपनी जिम्मेवारी पर कहीं भी जाओ, लूटो; लूट कर लाओ और उसमें से मुझे मेरा हिस्सा एवं राजकोष को राजकीय हिस्सा देकर शेष आपस में बांट लो । फिर क्या था ! लूट-तश्करी का व्यापार करने वाले उन व्यापारियों (?) ने अपनी-अपनी सुविधानुसार अपनी–अपनी कम्पनियां बना डाली और निकल पडे व्यापार करने । कुछ कम्पनियां रूस पहुंच गयीं, तो कुछ चीन और कुछ निकल पडी ‘इण्डिया’ जाने का अपना भाग्य अजमाने ।
लूट के लिए व्यापार का स्वांग रचने वाले वैसे ही २४ व्यापारियों (?) ने ‘इण्डिया पूरब दिशा में है’ यह जान लेने के बाद आपस में मिल कर विलियम हाकिन्स के नेतृत्व में २४ दिसम्बर १५९९ को एक कम्पनी बना डाली, जिसका नाम रखा- ‘ईस्ट इण्डिया ट्रेडिंग कम्पनी’। जी हां, वही ‘ईस्ट इण्डिया ट्रेडिंग कम्पनी’, जिसके तथाकथित व्यापारिक कारनामों को अंजाम देने उसका कर्ता-धर्ता विलियम हाकिन्स ‘लूट से प्राप्त नक्शा’ के सहारे अनजान समुद्री मार्ग में भूलते-भटकते जैसे-तैसे सन १६०८ ई० में भारत पहुंचा था । उस समय तक वे लोग भारत को पूरी तरह से जानते भी नहीं थे । जानते भी कैसे, जानने योग्य वे थे ही नहीं । क्योंकि, उनके उस मुल्क में तो ज्ञानियों के ज्ञान और बुद्धिजीवियों की बौद्धिकता पर ‘रोमन-कैथोलिक पोप’ के उस मजहबी दकियानुसी कट्टरवादी सोच का हिंसक पहरा था, जो उस युग में वहां किसी को वैसा कुछ भी पढने-लिखने-बोलने-बताने नहीं देती थी, जिससे ईसाई मजहब की आसमानी किताब- ‘बायबिल’ और ‘चर्च’ नामक मजहबी संस्था की मान्यताओं का खण्डण हो । रोमन-चर्च के भय से उस पूरे मुल्क में ‘बायबिल’ को अंतिम ज्ञान मानते थे लोग, जिनकी सहज-स्वाभाविक जिज्ञासा की परिधि में सिर्फ इस्लामी देश आते थे, क्योंकि उनके मजहब का आधार अर्थात ‘कुरान’ को भी वे लोग ‘आसमानी किताब’ ही मानते थे । शेष विश्व को जैसे मुसलमान काफीर मानते रहे हैं, वैसी ही मान्यता रोमन-चर्च के अनुसार उनकी भी थी उन दिनों । इकलौती मजहबी किताब को ही सम्पूर्ण दुनिया का समस्त ज्ञान मान लेने के साथ-साथ जहां पैसों से पुण्य-प्रतिष्ठा-पद-पुरस्कार-सम्मान बिक रहा हो और जहां की राज-सत्ता ही दस्युओं को सम्मानित करती रही हो , वहां ज्ञान-विज्ञान की दशा-दिशा का क्या कहना ! लूट-पाट के नये-नये ठीकानों और धन बटोर लेने के नित नये-नये अड्डों को ही ‘नयी खोज’ अर्थात ‘डिस्कवरी’ कहा जाता रहा था । तब इंग्लैण्ड की कद-काठी का आकार-विस्तार भी वैसा नहीं था कि ‘भारत’ नामक प्रायद्वीप से उसका वास्ता पडे और उसे जान समझ सकें वहां के लोग । उन दिनों आबादी व क्षेत्रफल में इंग्लैण्ड जैसे–जैसे सैकडों देशों का प्रायद्वीप था भारत ; जहां, जाहिर है लन्दन जैसी राजधानी वाले शहरों की संख्या कितनी अधिक रही होगी । वे अंग्रेज-असुर अपने सहज-स्वाभाविक मजहबी सरोकार वाले मुस्लिम आतताइयों और अंग्रेज-असुरों से भारत को ‘सोने की चिडियां- इण्डिया’ , के रुप में थोडा-बहुत जान-समझ पाये थे मात्र । उन्हीं असुरों से वे भारत के कुछ भागों पर शासन कर रहे ‘जहांगिर’ का नाम भी सुन रखे थे और उसे ही वे सम्पूर्ण भारत का बादशाह जानते थे । इससे अधिक जानकारी उन्हें कुछ भी नहीं थी भारत के बारे में ।
किन्तु विडम्बना देखिए कि व्यापारी के शक्ल में भारत आये उन दस्यु-असुरों ने मुगल शासकों को एन-केन-प्रकारेण प्रभावित-सम्मोहित करते हुए उनसे व्यापारिक रियायतें प्राप्त कर पहले तो अपने पांव जमाए , फिर स्थान-स्थान पर अपनी छद्म-व्यापारिक कोठियां कायम कर उनमें हथियारों के भण्डारण से लूट-पाट की संगठित गतिविधियों को अंजाम देने के साथ-साथ एक के विरूद्ध दूसरे भारतीय शासकों-नवाबों को भाडे की सैनिक-सेवा देते हुए उनसे ‘कर-उगाही’ का ठेका-दिवानी हासिल कर विविध छल-छद्म के सहारे धीरे-धीरे पूरी शासन-सत्ता को अपने कब्जे में ले कर इस देश को अपना उपनिवेश बना लिया । फिर उस औपनिवेशिक शासन का औचित्य सिद्ध करने तथा उसे दीर्घकाल तक बनाए रखने एवं अपने आसुरी मजहब को भारत पर थोपने और भारत की राष्ट्रीयता, अर्थात सनातन धर्म को नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए विविध-विषयक बहुविध षड्यंत्र रचने शुरू कर दिए, जो आज तक जारी हैं । उनमें से अनेक षड्यंत्रों को क्रियान्वित करने में वे सफल भी हो गए , जिनके परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं । भारत-विभाजन और खण्डित भारत के शासन-संविधान व इतिहास-भूगोल से ले कर सांस्कृतिक अतिक्रमण, सामाजिक विघटन, धार्मिक मतान्तरण , राजनीतिक पतन , नक्सली-आतंकी संगठन , पृथकतावादी आन्दोलन, तथा साम्प्रदायिक विष-वमन व दलित-मुद्दों के राजनीतिकरण आदि तमाम समस्यायें उन्हीं षड्यंत्रों के परिणाम हैं । इतना ही नहीं ; भारतीय भाषा, साहित्य , संस्कृति , रीति-रिवाज , परम्परा , विरासत , परिवार , समाज , पूजा-उपासना, मठ-मंदिर , देवी-देवता , ग्रन्थ-शास्त्र , ज्ञान-विज्ञान अदि सब के सब उनके निशाने पर हैं , जिन्हें हडप लेने , नष्ट-भ्रष्ट कर देने तथा भारत की राष्ट्रीयता, अर्थात- सनातन धर्म को मिटा देने और भारत को विभिन्न टुकडों में विखण्डित कर देने के निमित्त भिन्न-भिन्न आकार-प्रकार के षडयंत्र निर्मित-क्रियान्वित किए जा रहे हैं ।

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