सरकार बनाम अन्नाः जनता के सब्र का पैमाना छलकने ही वाला है !

इक़बाल हिंदुस्तानी

अन्ना हज़ारे के आंदोलन से हमारी सरकार जिस तरह से निबट रही है उससे यह तो सापफ हो गया है कि वह नौकर होकर भी मालिक की तरह पेश आ रही है। पहले उसने अन्ना को बाबा रामदेव समझकर तिहाड़ जेल में बंद करके आंदोलन को शुरू होने से पहले ही ख़त्म करने की चाल चली। यह योजना जब कामयाब नहीं हुयी तो सरकार ने आंदोलन को लंबा खींचकर अपनी मौत अपने आप मारने की साज़िश रची लेकिन जब यह भी कामयाब होती नज़र नहीं आई तो उसने इसे संसद की सर्वोच्चता और सांसदों के सम्मान से जोड़ने की नाकाम कोशिश की। इसके बाद भी जब अन्ना के पक्ष में पूरा देश हर शहर, कस्बे और गांव मुहल्ले में खड़ा होता दिखाई दिया तो उसने सर्वदलीय बैठक बुलाकर एक और चाल यह चली कि देखलो आज हमारी सरकार है कल तुम्हारी होगी। इसलिये सब एक हो जाओ। भाजपा जैसे विपक्षी दल उसके झांसे में पफंसते भी दिखाई दिये क्योंकि वह सोच रही है कि अगर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा तो उसके नेतृत्व में ही सरकार बनेगी। केवल वामपंथी दलों और उनके साथ के नौ सहयोगी घटकों ने ही दो टूक कहा कि वे अन्ना की मज़बूत लोकपाल की मांग का बिना शर्त समर्थन करते हैं। इसके लिये अन्ना की टीम के मुख्य सदस्य अरविंद केजरीवाल ने सरकार की खिंचाई के साथ साथ भाजपा को भी आड़े हाथों लेकर कम्युनिस्टों के स्टैंड की खुलकर सराहना भी की। बाद में भाजपा ने भी श्रेय की खातिर अपना खुला समर्थन देने का मजबूरी में ऐलान किया।

सवाल यह नहीं है कि अन्ना के जनलोकपाल बिल का संसद में क्या हश्र होता है बल्कि कांटे का प्रश्न यह है कि इस आंदोलन का क्या नतीजा होता है। शायद हमारे नेताओं की खाल इतनी मोटी और दिमाग़ इतना ठस्स हो चुका है कि उनको आम आदमी के दुख दर्द की ज़रा भी चिंता नहीं है। जिस संसद की वे हलक पफाड़ पफाड़ कर बार बार दुहाई दे रहे हैं यह भी भूल गये हैं कि पीएम, विपक्ष के नेता सहित क्षेत्राीय दलों के पास आज एक भी ऐसा नेता मौजूद नहीं है जो या तो अन्ना के आंदोलन से जुड़ रहे लोगों को समझा बुझाकर उनके घर वापस भेजदे या पिफर किसी एक कॉल पर दिल्ली में इससे एक चौथाई लोग भी जोड़कर दिखा सके। इसकी वजह यह है कि नेताओं का विश्वास जनता में बिल्कुल ख़त्म होता जा रहा है। उनमें से अधिकांश बेईमान और मक्कार माने जाते हैं। आम आदमी रोज़गार से लेकर रोटी, पढ़ाई और दवाई के लिये तरस जाता है। सरकारी योजनायें कागजों में चलती रहती हैं। जनता के नाम पर पैसा खाया जाता रहता है। हर काम के सरकारी कार्यालयों में रेट तय हैं। अगर कोई बड़े अधिकारी से शिकायत करता है तो वह चूंकि खुद निचले स्टाफ से बंधे बंधये पैसे खा रहा होता है इसलिये या तो कोई कार्यवाही नहीं करता या पिफर उल्टे भ्रष्टाचारी का ही पक्ष लेता नज़र आता है। जब ज़्यादा दबाव या सिपफारिश भी आती है तो वह अकसर आरोपी अधीनस्थ अधिकारी या कर्मचारी को लीपापोती कर बचाता ही नज़र आता है। इससे आम आदमी यह मानकर चलने लगा है कि वह कुछ नहीं कर सकता और रिश्वत देकर जो काम समय पर हो सकता है वह भ्रष्टाचार स्वीकार करके कराने में ही समझदारी है लेकिन अब अन्ना के आंदोलन से उसे यह उम्मीद जागी है कि आज नहीं तो कल भ्रष्टाचार की समस्या का कोई न कोई हल निकलेगा।

यह अलग बात है कि जो लोग अन्ना के पक्ष में बोल रहे हैं लिख रहे हैं या रैली निकाल रहे हैं उनमें एक साल से अध्कि से लोकायुक्त न नियुक्त करने वाले गुजरात के सीएम मोदी और आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी माया सरकार के साथ ही तरह तरह से भ्रष्ट नागरिक भी शामिल हैं। जो लोग यह शिकायत कर रहे हैं कि अन्ना के आंदोलन से जुडे़ अधिकांश लोग उच्च वर्ग और मध्यवर्गीय हैं उनसे यह पूछा जा सकता है कि वे उनके गम में दुबले क्यों हुए जा रहे हैं। यह बात तो उनको भी पता होगी कि अन्ना का जनलोकपाल अगर कानून बनता है तो केवल सरकारी भ्रष्टाचार ही नहीं बल्कि धीरे-धीरे इसका शिकंजा निजी भ्रष्टाचार के गले तक भी पहुंचेगा। यही सवाल पहले अन्ना टीम के कानूनी सलाहकार शांतिभूषण और प्रशांत भूषण के बारे में पूछा जा रहा था कि वे खुद भ्रष्टाचार के आरोपी हैं तो वे सख़्त जनलोकपाल की मांग क्यों कर रहे हैं? यह अजीब बात है कि जो आदमी कानून मंत्री रह चुका है और सुप्रीम कोर्ट के चीपफ़ जस्टिसों की ईमानदारी को भी कोर्ट में हलफनामा दाखिल करके ललकारने की हिम्मत रखता है वह यह नहीं जानता होगा कि अगर जनलोकपाल बिल पास हो जाता है तो सबसे पहले उसी के खिलाफ सरकार बदले की भावना से मुकद्मा दर्ज कराके इस कानून का श्रीगणेश करेगी। अगर वह सब कुछ जानकर भी इसके लिये तैयार हैं तो किसी और को इस बात की चिंता करने की क्या ज़रूरत है कि अगर यह बिल पास हुआ तो भूषण साहब का क्या होगा?

दरअसल हमारे यहां कुछ लोग अपने दुख से दुखी नहीं होते बल्कि वे दूसरों के सुख से अधिक दुखी होते हैं। इस मामले में भी ऐसा ही है। जिन लोगों के पास अन्ना के जनलोकपाल के खिलापफ कोई ठोस तर्क नहीं है वे कुतर्को को सहारा लेकर इसका विरोध् कर रहे हैं। टीम अन्ना ने खुद ही यह बात स्वीकार की है कि जनलोकपाल पास होने के बावजूद अभी केवल 60 से 65 प्रतिशत भ्रष्टाचार ख़त्म हो सकेगा। नकारात्मक सोच और भ्रष्टाचार व सरकार के समर्थक जनलोकपाल से भ्रष्टाचार ख़त्म होने की गारंटी मांग रहे हैं। ऐसे लोगों से पूछा जा सकता है कि संविधन में मौलिक अधिकारों की गारंटी दी गयी थी वे सबको आज तक नहीं मिले तो क्या संविधन से इस गारंटी को ही ख़त्म कर दिया जाये। ऐसे ही सरकार से जो अपेक्षाएं होती हैं वे पूरी नहीं हो रही हैं तो क्या संसदीय सिस्टम ही ख़त्म कर दिया जाये? कोर्ट से न्याया की उम्मीद की जाती है क्या वह पूरी तरह इस काम को कर पा रहा है? पुलिस से अपराधियों को पकड़ने और शरीपफ आदमी का सम्मान करने की ड्यूटी करने को कहा जाता है क्या वह ऐसा नहीं कर रही तो पुलिस का विभाग ही समाप्त कर दिया जाये? सूचना के अधिकार से कितने लोग परिचित हैं और कितने लोग इसका लाभ उठा पा रहे हैं? साथ ही इसके दुरूपयोग की भी शिकायतें आती रहती हैं और इससे भ्रष्टाचार भी पूरी नहीं रूक पाया है तो क्या आरटीआई का वापस ले लिया जाये? नहीं कभी नहीं। वास्तविकता यह है कि विरोध् करने वाले और तरह तरह के सवाल उठाकर भ्रमित करने वाले भी जानते हैं कि जब वे यह कहते हैं कि सौ में से 99 बेईमान हैं पिफर भी मेरा भारत महान है तब उनका मकसद यह होता है कि वे ही नहीं बल्कि अधिकांश लोग बेईमान हैं जबकि यह बात आंकड़ों के हिसाब से देखें तो गलत साबित की जा सकती है।

जो लोग ऐसी बातें कर रहे हैं वे आंदोलन को बांटना चाहते हैं। वे इस दीवार पर लिखे इस सच को नहीं पढ़ पा रहे हैं कि ये बदलाव धीरे धीरे ही आते हैं। अभी तो केवल एक बात निर्णायक तरीके से तय होनी है कि सरकार जन आंदोलनों से प्रभावित होकर जनभावनाओं का सम्मान करने को तैयार होती है या नहीं? सरकार संविधन और जनता से उफपर नहीं होती यह कड़वी हकीकत तानाशाह और धूर्तों की तरह चाले चल रहे कपिल सिब्बल और पी चिदंबरम जैसे मंत्राी जितनी जल्दी समझ लें यह देश, लोकतंत्रा और जनता के हित बेहतर है। कहीं ऐसा न हो कि अहिंसक, शांतिपूर्वक और सहनशीलता के साथ शालीनता से अपनी जायज़ बात मनवाने की कोशिश कर रही जनता के सब्र का पैमाना छलक जाये और भीड़ अराजकता की गोद में समा जाये? इसकी जिम्मेदार सरकार ही होगी। यह विडंबना ही है कि एक तरपफ सरकार माओवादियों और आतंकवादियों से बात करती है और दूसरी तरपफ लोकतांत्रिक तरीके से जनलोकपाल की मांग मनवाने का प्रयास कर रही करोड़ों जनता की बात सुनने को तैयार नहीं है और चाल पर चाल, धेखे पर धेखा करके यह समझ रही है कि जनता यह सब कारनामे देख और समझ नहीं रही है। सरकार पता नहीं कब यह बात समझेगी कि यह अन्ना या उनकी टीम का नहीं बल्कि देश की करोड़ों जनता की आवाज़ है कि हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि नकारा, भ्रष्ट और कारपोरेट सैक्टर के एजेंट की तरह काम कर रहे हैं जिनको भ्रष्टाचार, महंगाई और गरीबी से कोई सरोकार नहीं लगता जिससे आज जनता विश्वसनीय नेता मिलने से एक मामूली और पफक्कड़ समझे जाने वाले बाबा अन्ना हज़ारे के पीछे लामबंद हो गयी है। वह यह नहीं समझे कि यह आंदोलन वह लंबा खींचकर मकसद से भटका देगी। अब यह आंदोलन सपफल या असपफल दोनों हालत में सरकार बनाम जनता लगातार जारी रहेगा। दुष्यंत कुमार का शेर यहां सटीक लगता है-

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,

और कुछ हो या ना हो आकाश सी छाती तो है।।

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

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