-तनवीर जाफ़री-
पाकिस्तान की नवाज़ शरीफ सरकार ने पचास हज़ार से अधिक बेगुनाह पाकिस्तानी नागरिकों की हत्या करने वाले तहरीक-ए-तालिबान से शांति वार्ता करने का फैसला किया है। किसी भी आतंकवादी संगठन से वार्ता की पहल करने का सामान्तय: यही अर्थ लगाया जाता है कि या तो सरकार आतंकवाद से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है या वह ऐसे संगठनों के समक्ष अपने घुटने टेक रही है। इस बातचीत के शुरुआती रुझान से ही साफ ज़ाहिर होने लगा है कि तहरीक-ए-तालिबान अब भी अपने एक सूत्रीय एजेंडे पर अड़े हुए हैं। यानी उनकी इच्छा है कि पाकिस्तान में तालिबानों का ‘शरीया कानून’ लागू हो। साफ है कि 21वीं सदी के प्रगतिशील दौर में यह कुएं के मेंढक पाकिस्तान को छठी सदी के दौर में ले जाना चाहते हैं। पाकिस्तान व तालिबान के मध्य शुरू हुई बातचीत का नतीजा अगले कुछ दिनों में जो भी निकले परंतु सरकार के तालिबानों से बातचीत के दरवाज़े खोलने से एक बात और भी साफ हो गई है कि कल तक जो तालिबानी केवल हिंसक व शस्त्रधारी संगठन के रूप में अपनी पहचान रखते थे। अब गत् पखवाड़े से पाकिस्तान के टीवी चैनल्स व अखबार के माध्यम से उन्हें अपनी राजनैतिक स्थिति स्पष्ट करने तथा इस वार्ता के बहाने मीडिया से रू-ब-रू होकर पाकिस्तान में घर-घर तक अपनी बात पहुंचाने का पूरा मौका मिल गया है। यहां यह भी बताता चलूं कि ऑपरेशन लाल मस्जिद के समय हाफिज़ अब्दुल अज़ीज़ नाम का लाल मस्जिद का जो मुखिया परवेज़ मुशर्रफ के सैनिकों से अपनी जान बचाने के लिए काला बुर्का (नकाब) ओढ़क़र औरतों के बीच में घुसकर भागने की कोशिश करते हुए पकड़ा गया था, वही भगोड़ा बुज़दिल मौलवी इन दिनों पाकिस्तान के टीवी चैनल्स पर तालिबानों का मुख्य पक्षकार दिखाई दे रहा है।
तालिबान अपने कथित इस्लामी शरिया कानून को पाकिस्तान में लागू करने के लिए अपने सशस्त्र संघर्ष के द्वारा तथा पचास हज़ार से ज़्यादा पाक नागरिकों की हत्या करने के बाद यहां तक कि पाक सेना पर भी अपना पूरा दबदबा बना लेने के बाद अब आम लोगों को धर्म के नाम पर अपने साथ जोड़ऩे का एक बड़ा मिशन चला रहे हैं। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य को नज़रअंदाज़ करते हुए तालिबानी लड़ाके अपने धर्मगुरुओं के साथ पाकिस्तान में जगह-जगह धार्मिक समागम आयोजित कर रहे हैं। बेरोज़गारी तथा तालिबानी दहशत की मारी अवाम इन्हें सुनने व देखने के लिए इनके सभास्थल पर एकजुट हो रही है। ऐसी जगहों पर तालिबानी विचारधारा के मौलवी व अन्य धर्मगुरू धार्मिक प्रवचन देकर आम लोगों को तालिबानों व उनकी विचारधारा के साथ जुड़ऩे का आह्वान करते जा रहे हैं। तालिबानों की शान में शायर क़सीदे लिख रहे हैं और मुस्लिम युवा इन कसीदों को पढ़क़र आम लोगों में तालिबानों के प्रति आकर्षण, जोश व उत्साह पैदा कर रहे हैं। तालिबानों की ऐसी कोशिशों से साफ ज़ाहिर हो रहा है कि अब यह शक्तियां सशस्त्र संघर्ष में पर्याप्त सफलता प्राप्त करने के बाद अब राजनैतिक रूप से भी अपने-आप को मज़बूत करने में लगी हुई हैं।
यहां एक बात और भी काबिल-ए-गौर है। तालिबानों को वहाबी अथवा जमात-ए-इस्लामी विचारधारा का संगठन माना जाता है। जहां तक वहाबी विचारधारा का सवाल है तो इसमें किसी भी पीर-फकीर, इमाम, खलीफा यहां तक कि रसूल (हज़रत मोहम्मद) की शान में भी कसीदा नहीं पढ़ा जाता। यह वहाबी वर्ग अल्लाह के सिवाए किसी और की शान में क़सीदागोई को गुनाह अथवा बिदअत बताता है। यही वजह है कि इस विचारधारा के हिंसक तालिबानी व सिपाहे-सहाबा जैसे अन्य आतंकी संगठन यहां तक कि हाफिज़ सईद के संगठन जमात-उद-दावा व लश्कर-ए-तोएबा से जुड़े लोग पाकिस्तान में आए दिन लक्षित हिंसा पर उतारू रहते हैं। और इसी वजह से इनके निशाने पर दरगाहें, इमामबाड़े, मोहर्रम के जुलूस, अहमदिया समुदाय की इबादतगाहें यहां तक कि गैर वहाबी सी समुदायों की मस्जिदें व दूसरे प्रार्थनागृह रहते हैं। क्योंकि यह तालिबानी एक अल्लाह के सिवाए किसी अन्य की उपासना करना या उसकी तारीफ करना भी नहीं देख सकते। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि फिर वही वहाबी ताकतें तालिबानों की शान में शायरों से कसीदे क्यों कहलवाती हैं ? कितना आश्चर्यजनक व दोगलापन नज़र आता है इन तालिबानी व घिनौने कृत्यों में कि हज़रत मोहम्मद, हसन और हुसैन, दूसरे तमाम पहुंचे हुए त्यागी पीरों-फकीरों की शान में कसीदा कहना या उनकी तारी$फ करना तो बिदअत या गुनाह और इंसानियत का $कत्ल करने, औरतों,बुज़ुर्गों व बच्चों की बेसबब हत्या करने वाले आतंकवादियों की शान में $कसीदा पढऩा पुण्य अथवा सवाब? इस प्रकार के दोहरे चरित्र की मिसाल शायद ही कहीं देखने को मिले। परंतु पाकिस्तान में इन दिनों आए दिन यह सब होता देखा जा रहा है।
पिछले दिनों पाकिस्तान में तालिबानों के प्रचार-प्रसार से जुड़ी ऐसी ही एक वीडियो मुझे भी देखने का अवसर मिला। यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि जिस मंच पर तथाकथित बहुरूपिए धर्मगुरू विराजमान थे उसी मंच के आगे-पीछे,दाएं-बाएं हर ओर खतरनाक स्वचालित हथियार हाथों में लिए चौकस स्थिति में तालिबानी लड़ाके खड़े हुए थे। एक कथित धार्मिक समागम और उसमें आतंकवादियों द्वारा शस्त्रों की ऐसी नुमाईश से परस्पर विरोधी चीज़ें नज़र आ रही थीं। इस समागम में एक युवक द्वारा जो $कसीदा पढ़ा जा रहा था उसकी मु य पंक्ति थी, तालिबान आ गए, तालिबान आ गए। तालिबानों की प्रशंसा में शायर कहता है कि-जिन के सर पर शरियत की दस्तार(पगड़ी) है, जिनके हाथों में हैदर की तलवार है। अब भी है वक्त उठ और तलवार उठा। बद्र वाला ज़माने को जलवा दिखा। इस प्रकार की उकसाने वाली पंक्तियां पाकिस्तान में घूम-घूम कर सरेआम सार्वजनिक रूप से पढ़ी जा रही हैं। इनमें लुटेरे मुस्लिम, आक्रमणकारी शासकों का भी कई जगह गर्वपूर्वक जि़क्र किया जाता है। गैर मुस्लिम समुदायों के प्रति नफरत भरी बातें की जाती हैं। परंतु पाकिस्तान सरकार की अनदेखी और तालिबानों की अपनी दहशत के परिणामस्वरूप यह सिलसिला पाकिस्तान में इस समय बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे आयोजनों में खासतौर पर इन दिनों में और तेज़ी आ गई है।
विश्लेषकों का मानना है कि कल तक जो तालिबान एक आतंकवादी संगठन मात्र की हैसियत रखते थे चूंकि पाकिस्तान सरकार द्वारा उनसे की गई वार्ता की पेशकश ने इन्हें और अधिक मज़बूती प्रदान कर दी है। और सरकार के वार्ता के प्रस्ताव को तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान में अमन व शांति कायम करने के लक्ष्य तक ले जाती है अथवा नहीं यह तो बाद का विषय है परंतु इतना ज़रूर है कि इस वार्तालाप ने तालिबानों को अपनी कट्टरपंथी सोच को जन-जन तक पहुंचाने का अवसर दे दिया है। सऊदी अरब के वहाबी नेतृतव से प्रभावित होकर पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जि़या-उल-हक ने पाकिस्तान में नफ़रत व कट्टरपंथी विचारधारा फैलाने का जो बीज बोया था, वह अब इतना अधिक फल-फूल चुका है कि उसने पाकिस्तान की पहचान अब एक निरंतर हिंसा झेलने वाले व आतंकवादी देश के रूप में बना दी है। रही-सही कसर पाकिस्तान के अन्य शासकों ने उस समय पूरी कर दी थी जबकि शीतयुद्ध के दौरान इन्हीं तालिबानों को पाकिस्तान में अपना सिर छुपाने की जगह मिली। इतना ही नहीं बल्कि अफगानिस्तान पर 9/11 के बाद हुए अमेरिकी सैन्य आक्रमण के समय भी बावजूद इसके कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ खड़ा नज़र आ रहा था फिर भी तालिबानी गतिविधियों का संचालन पाकिस्तान से ही उस समय भी होता रहा। और इंतेहा तो तब हो गई जबकि पाकिस्तान द्वारा लाख छिपाने के बावजूद अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन को भी पाकिस्तान से ही ढूंढ़ निकाला। ऐसे में पाकिस्तान के पास अब अपनी सफाई देने के लिए कुछ खास बचा ही नहीं है। ऐसे वातावरण में यदि पाकिस्तान में तालिबानी वर्चस्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है तो इसमें आश्चर्यचकित करने वाली कोई नई बात नहीं है।