सबको पता है कि राजस्थान में यादव जाति के कारण शुरू से ही राजस्थान की अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियॉं असहज थी, लेकिन जाट जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने बाद अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में भयंकर असमानता उत्पन्न हो गयी, असल में इसी का दुष्परिणाम है-राजस्थान गुर्जर आरक्षण आन्दोलन। जिसका समाधान है-जाट जाति को ओबीसी से हटाना या ओबीसी के टुकड़े करना। दोनों ही न्यायसंगत उपाय करने की राजस्थान के किसी भी राजनैतिक दल में हिम्मत नहीं हैं। स्वयं गुर्जर भी इस बात को जानते हुए खुलकर नहीं बोल रहे हैं। ऐसे में गुर्जरों की समस्या का समाधान कहीं दूर तक भी नजर नहीं आता!
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’
राजस्थान लम्बे समय से आरक्षण का अखाड़ा बना हुआ है और इस बात की दूर-दूर तक सम्भावना नजर नहीं आती कि इस मुद्दे का कोई स्थायी समाधान निकालने के लिये कोई भी दल संजीदा नजर आ रहा हो! इस बात पर जरूर चर्चा होती रहती है कि आरक्षण के मसले का इस प्रकार से हल निकाला जाये कि हिंसा नहीं होने पाये और मीडिया द्वारा वर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की अनेक बार इस बात की लिये पीठ भी थपथपाई है कि उन्होंने पिछली सरकार की तरह घटिया राजनीति नहीं की और किसी भी समुदाय को हिंसक नहीं होने दिया।
मगर लोकतन्त्र में समस्याओं को जैसे-तैसे टालने या दबाये रखने से काम नहीं चलता है। बेशक हिंसा बुरी ही नहीं, अपितु बहुत बुरी बात है, मगर समस्याओं को वर्षों तक बिना कुछ किये लटकाये रखना भी तो प्रशंसनीय नहीं है।
पूर्व न्यायाधीश इन्द्रसेन इसरानी की रिपोर्ट के चलते गुर्जर आरक्षण को लेकर राजस्थान में एक बार फिर से माहौल गर्मा गया है, लेकिन मुख्यमंत्री गहलोत अपने प्रखर राजनैतिक कौशल से हर बार की भांति इस बार भी मामले पर ठंडे छींटे देने के प्रयास कर रहे हैं। प्रारम्भिक स्तर पर वे इसमें सफल भी दिख रहे हैं। यह अलग बात है कि इस मामले को कब तक दबाकर रख सकेंगे।
गुर्जर आरक्षण राजस्थान में इस स्थिति में पहुँच चूका है कि अब अधिक दिनों तक गुर्जरों को बेवकूफ बनाकर नहीं रखा जा सकता। क्योंकि गुर्जरों को भड़काने, उकसाने और हिंसा के लिये मजबूर करने के कुत्सित प्रयास करने वालों का चेहरा गुर्जरों के समाने है, लेकिन फिर भी अब इतने लोगों का बलिदान करने के बाद गुर्जर आरक्षण, गुर्जरों के लिये आन-बान और शान का सवाल बन चूका है, जिसके लिये हर आम गुर्जर कभी भी सड़क पर उतरने को तत्पर रहता है। गुर्जर नेता कर्नर किरोड़ी सिंह बैंसला गुर्जरों की इसी मनोस्थिति का लाभ उठाकर अपनी राजनीति चमकाने में हर मोर्चे पर सफल रहे हैं। इसी तकत के बल पर भारतीय जनता पार्टी के टिकिट पर लोकसभा का चुनाव लड़कर केन्द्रीय राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा को कड़ी टक्कर भी दे चुके हैं। वे आज भी इसी बिना पर गुर्जरों के भरोसे सरकार से लोहा ले रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि गुर्जरों की समस्या के वास्तविक समाधान को जानकर भी कोई भी उसे सामने नहीं लाना चाहता! जब स्वयं गुर्जर नेता ही जानबूझकर गोलमाल बात करते हैं तो राजनेताओं से यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वे अपने वोट बैंक को नाराज करने का आत्मघाती कुप्रयास करेंगे?
गुर्जरों के आरक्षण के बहाने आरक्षण अवधारणा को संक्षेप में समझना भी जरूरी है। भारत का संविधान मूल अधिकार के रूप में प्रत्येक नागरिक को समानता की गारण्टी देता है, जिसे लागू करने की जिम्मेदारी केन्द्र और राज्यों की सरकारों पर है। समानता के अधिकार की व्याख्या करते हुए भारत के सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को अनेकों बार स्वीकारा है कि समानता के मूल अधिकार को आँख बन्द करके लागू नहीं किया जा सकता। क्योंकि भारत में वर्षों से जन्म और कर्म आधारित विभेद रहा है। विभेद का अन्तर बहुत गहरा रहा है। जिसके कारण लोगों के जीवनस्तर में सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से भारी अन्तर और विरोधाभास देखने को मिलता है। ऐसे में सभी को एक दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।
भारत की संसद ने इस बात को स्वीकार किया है कि विभेद का मूल कारण जातिवादी व्यवस्था है, जिसके चलते जातियों में आपसी सामंजस्य का अभाव होने के साथ-साथ वर्षों से आपसी घृणा भी पनतती रही है। ऐसे समाज को समानता का मूल अधिकार प्रदान करने के लिये आरक्षण को एक उपाय के तौर पर स्वीकार किया गया और आरक्षण जातिगत आधार पर प्रदान करने के लिये सीधे तौर पर जाति को मूल आधार बनाने के बजाय वर्ग को मूलाधार बनाया गया। जिसके लिये एक समान पृष्ठभूमि की जातियों को अलग-अलग वर्गों में शामिल करके आरक्षण प्रदान किये जाने पर सहमति बनी। जिसके तहत मूलत: अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग तीन वर्गों में समाज की सदियों से शोषित, वंचित, दमित, दलित और पिछड़ी जातियों को शामिल किया गया। जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी सही एवं न्याय संगत ठहराया गया।
इसी वर्गीकरण को व्यावहारिक अमलीजामा पहनाने में राजनेताओं और, या बयूरोक्रेसी से जाने-अनजाने भारी भूलें हुई हैं, जिसे अनेक बार सामने लाने पर भी राजनैतिक कारणों से इस पर पुनर्विचार नहीं किया गया। इसी मानसिकता में गुर्जर आरक्षण समस्या का समाधान समाहित है। हुआ यह कि अनेक जातियों को एक समूह में शामिल करते समय मिलती-जुलती जातियों को ही शामिल करना असल इरादा था, लेकिन इसके विपरीत अनेक राज्यों में और केन्द्रीय स्तर पर वर्गीकरण के इस पैमाने में जातियों की साम्यता की अनदेखी की गयी। जिसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में अनुसूचित जाति में शामिल चमार जाति के लोग अजा की अन्य अधिक पिछड़ी जातियों (जैसे-भंगी, धोबी, कोड़ी आदि) के हकों पर, राजस्थान में अनुसूचित जन जाति में शामिल मीणा जाति के लोग अजजा की अन्य अधिक पिछड़ी जन जातियों (जैसे-सेहरिया, भील, गरासिया, डामोर आदि), केन्द्रीय स्तर पर अजजा में शामिल धर्म परिवर्तित ईसाई लोग अजजा की सभी हिन्दू जन जातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल यादव एवं जाट जाति के लोग ही अन्य पिछड़ा वर्ग की अन्य अधिक पिछड़ी जातियों (जैसे-जोगी, गुर्जर, कुम्हार, बंजारा, रेबारी, आदि) के आरक्षण का लाभ प्राप्त करते रहे हैं। जिसके चलते अधिक पिछड़ी जातियों में लम्बे समय से पनप रहा असन्तोष और गुस्सा राजस्थान में गुर्जर आरक्षण के रूप में देश के सामने है। इसी प्रकार से अन्य वर्गों में भी अन्दर ही अन्दर अनेक कमजोर, अधिक पिछड़ी और संख्याबल में अक्षम व विपन्न जातियों का गुस्सा सामने आने को बेताब है। जिसे सब जानकर भी चुप हैं।
सबको पता है कि राजस्थान में यादव जाति के कारण शुरू से ही राजस्थान की अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियॉं असहज थी, लेकिन जाट जाति को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल करने बाद अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों में भयंकर असमानता उत्पन्न हो गयी, असल में इसी का दुष्परिणाम है-राजस्थान गुर्जर आरक्षण आन्दोलन। जिसका समाधान है-जाट जाति को ओबीसी से हटाना या ओबीसी के टुकड़े करना। दोनों ही न्यायसंगत उपाय करने की राजस्थान के किसी भी राजनैतिक दल में हिम्मत नहीं हैं। स्वयं गुर्जर भी इस बात को जानते हुए खुलकर नहीं बोल रहे हैं। ऐसे में गुर्जरों की समस्या का समाधान कहीं दूर तक भी नजर नहीं आता!