हमारा गुंडा ‘कॉमरेड’, तुम्हारे लोग ‘लुंपेन’

downloadसारे तर्क और समीकरण, नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी की जीत के बाद ही क्यों याद आ रहे हैं? लोकतंत्र की दुहाई देनेवाले कौमी क्या इसमें यकीन भी करते हैं…

लोकसभा चुनाव 2014 के परिणाम आए तीन दिन हो चुके हैं। नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी की ऐतिहासिक और असाधारण विजय के 72 घंटों से अधिक बीत चुके हैं और अब शायद समय था कि भावनाओं का उभार थोड़ा तार्किक होने की उम्मीद की जाए और नतीजों के अधिक व्यापक विश्लेषण किए जा सकें।
बहरहाल, ऐसा हो नहीं रहा है और बेहद ही अतार्किक, भावनात्मक, गैर-ज़िम्मेदार, भड़काऊ बयानबाजी भी की जा रही है, एक से एक नमूने अपने अजीबोगरीब खयाल बांट रहे हैं और हास्यास्पद क़दम उठाए जा रहे हैं। ज़ाहिर तौर पर ‘सोशल मीडिया’ इस प्रलाप का सबसे बड़ा गवाह बना हुआ है। आज दिन ही में दो ख़बरें आयीं। पहली ख़बर, तो यह थी कि कुछ लोगों ने प्रसिद्ध लेखक यू आर अनंतमूर्ति को करांची का हवाई टिकट भेजा है। दूसरी ख़बर, यह थी कि बिहार के निवर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जगह अब जीतन राम मांझी सूबे के मुखिया होंगे।

पहली बात से शुरू करते हैं। अनंतमूर्ति हमारे समय के बड़े, कद्दावर और श्रेष्ठ लेखक हैं, यह कहने की बात नहीं। उनको टिकट भेजना किसी भी हालत में जायज नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि, इसके पहले अनंतमूर्ति और काशीनाथ सिंह प्रभृति लेखकों ने जो कुछ किया था, क्या उस पर एक नज़र डाल लेना बेहतर नहीं होगा? ये दोनों साहब उन तथाकथित लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, एनजीओ के मालिकों, कवियों और क्रांतिकारियों (?) के गिरोह का हिस्सा थे, जिन्होंने लिखित और मौखिक तौर पर नरेंद्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री बनने की स्थिति की गुनाहे-अज़ीम से तुलना की थी। लोकतंत्र में किसी के भी विरोध या समर्थन की जगह है, लेकिन विरोध को घृणा के स्तर पर पहुंचाने का काम तो इन माननीयों ने ही किया था। काशीनाथ सिंह ने जहां नरेंद्र मोदी के बनारस से चुने जाने को बनारस के लिए शर्मनाक धब्बा बताया था, वहीं यू आर अनंतमूर्ति ने मोदी के पीएम बनने की दशा में देश छोड़ देने तक की बात कही थी।

सलमान रश्दी से लेकर अनंतमूर्ति और काशीनाथ तक, कई ऐसे विचारकों-बुद्धिजीवियों (?) ने लिखित पर्चे बांटे, कैंपेन किया और मोदी को किसी भी तरह से रोकने की कोशिश की। अब, कोई भी इस बात पर विचार करने को तैयार ही नहीं कि अगर लेखकों ने राजनीति के फटे में टांग अड़ाया था, तो उनको नतीजे (Repercussions) झेलने को बिल्कुल राजी रहना था। यह भला कैसी राजनीति है, जो घृणा की हद तक असहमति दर्शाती है, यह कैसी पॉलिटिक्स है, जो किसी एक व्यक्ति/विरोधी को दैत्य, ड्राकुला, नरपिशाच, नरक्षभी, हत्यारा, कसाई इत्यादि विशेषणों से नवाजने को विवश करती है? राजनीति में विरोध कोई ग़लत नहीं, लेकिन उसे वैमनस्य की हद तक खींच ले जाना,- द्वेष, कुंठा और घृणा के त्रिदोष से ग्रस्त कर देना कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। अनंतमूर्ति के साथ ही जिन भी लोगों ने मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश छोड़ने या मोदी-समर्थकों को समंदर में डुबो देने आदि की सलाह दी थी, क्या उस समय हमारे किसी भी विद्वान मित्र ने अपनी असहमति दर्ज करायी थी? राजनेताओं की कुंठा समझी जा सकती है, लेकिन ये नामचीन साहित्यकार? शब्दों की साधना करनेवाले इन वीरों ने अपनी ज़ुबान में इतना ज़हर कैसे घोला, जबकि इनके मुताबिक ज़हर की खेती तो गुजरात में होती थी। पॉलिटिक्स की बात समझ आती है, लेकिन लेखन की यह राजनीति समझ के परे है। औऱ, आप साहब हैं कौन? पुलिस हैं, जज हैं या कौन हैं? किसी भी अदालत में मोदी के खिलाफ कुछ भी नहीं, लेकिन आप उसे हत्यारा और कसाई बता रहे हैं। आरोप भी नहीं लगा रहे, सीधा फ़ैसला सुना दे रहे हैं। वह भी किसके कहने पर….उसी तीस्ता सीतलवाड़ीय बिरादरी के कहने पर, जिसके ऊपर आरोप है कि उसने दंगा-पीड़ितों के लिए इकट्ठा किया गया पैसा महंगी शराब और विलासिता के बाक़ी सामानों पर उड़ा दिया।
कौमी हमेशा से ही अनुदार रहे हैं। वह ठीक उसी मानसिकता से ग्रस्त हैं, जिस मानसिकता से आज भारत का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक वर्ग ग्रस्त है। यानी, जहां आप बहुमत/बहुसंख्या में हैं, वहां तो लाठी चलाओ, अधिनायक बन जाओ और जहां कहीं तुम अल्पमत में आओ, वहीं अपने तथाकथित शोषण और उपेक्षा का आरोप लगाने लगो। कौमियों के गुंडे उनके कॉमरेड हैं, दूसरों के उग्रपंथी भी गुंडे हैं। यह तथाकथित वाम धड़े का सबसे बड़ा विरोधाभास है और खासकर जेएनयू में पढ़नेवाले दोस्त इसकी ताईद करेंगे। 1997 से 2001 तक, यह लेखक जेएनयू में रहा है, जो कभी लाल दुर्ग माना जाता था। हमारे सीनियर्स को वाम के खिलाफ जाने की वजह से पिटाई खानी पड़ी, छुआछूत झेलना पड़ा औऱ यहां तक कि सरेराह बेइज्जती भी सहनी पड़ी। शिक्षकों में इतना अधिक पूर्वाग्रह था कि किसी टर्म-पेपर को बिना देखे ही उस पर न्यूनतम ग्रेड चस्पां कर दिया जाता था। यह लेखक खुद इसका भुक्तभोगी रहा है।

हां, 1996 के बाद जब विद्यार्थी परिषद से जुड़े छात्र परिसर में बढ़ने लगे, तो लड़ाई कांटे की होने लगी। फिर, तो तुरंत ही ‘लुंपेन’ और ‘हुलिगैन’ के तमगों से परिषद से जुड़े सबको नवाजा जाने लगा। यही कौमियों की रणनीति है औऱ पुराना खेल भी। पुराने सोवियत रूस में इन्होंने लाखों को मारा, चीन में हज़ारों को शहीद किया, क्यूबा में सैकड़ों को मौत के घाट उतारा, तो वह वर्ग-क्रांति थी, वह सर्वहारा की लड़ाई थी। केरल में ये क्या करते हैं, कोलकाता में हाल-फिलहाल तक क्या करते थे, जाननेवाले जानते हैं…तब, वह वर्ग-संघर्ष होता है, लेकिन अगर प्रतिरोध में किसी ने हाथ उठा दिया, तो वह लुंपेन हो जाता है।
दरअसल, विरोधाभासों से भरे कचरे का ढेर ही मार्क्सवाद है। यही वह कूड़ेदानी विचार है, जो जेएनयू में सरेराह नमाज को जायज ठहराता था, पूरे रमजान के महीने मेस में इफ्तार के आयोजन को सही ठहराता था, लेकिन वहीं जब कुछ लड़कों ने दुर्गापूजा में व्रत और हवन करना चाहा, तो नामचीन प्रोफेसर कांति वाजपेयी ‘सेकुलर ट्रेडिशन’ की दुहाई देने लगे। यह हालांकि, अवांतर कथा है और विस्तार से फिर कभी बतायी जाएगी। मसला, केवल यह है कि समन्वय (इनक्लूसिवनेस), समानता (इक्विटी) और प्रगतिशीलता (प्रोग्रेसिवनेस) की बात करनेवाले कौमी दरअसल इतने संकीर्ण, सामंती और कट्टर होते हैं, जिसकी कोई हद ही नहीं। क्या आप नामवर सिंह से बड़ा जातिवादी बता सकते हैं?
यह छुआछूत और अंत्यज बनाने की राजनीति बहुत पुरानी है। दूसरों की तो छोड़िए, ये अपने खास को भी लपेट लेते हैं। याद कीजिए, उदय प्रकाश का वह बहिष्कार जो महंथ आदित्यनाथ के साथ उनके मंच साझा करने के बाद हुआ था। याद कीजिए अरुंधती राय और गदर का वह अंतिम मौके पर हंस की गोष्ठी से कट लेना, जहां राजेंद्र यादव ने उनको दक्षिणपंथी विचारक के साथ मंच साझा करवाने की योजना बनायी थी। जेएनयू या किसी भी वैसी जगह, जहां यह सत्ता में हैं…इनका यह चरित्र चरम पर देखने को मिलता है। हमारे सीनियर्स बताते हैं कि जेएनयू में कौमी परिषद का ‘होने के जुर्म’ में कई को थूक तक चटवा देते थे।

हां, जहां ये अल्पमत में होते हैं, वहीं लोकतंत्र, समानता और तर्क-वितर्क, बातचीत की दुहाई देने लगते हैं। ठीक ‘मायनॉरिटी मेंटेलिटी’ से ग्रस्त। ये सारे शब्द इनको तभी याद आते हैं, जब यह अल्प मत में होते हैं। लेकिन, खेल के ये नियम तो ठीक नहीं कॉमरेड! अब, जैसे अभी देखिए….कुछ बेवकूफ भाजपाइयों या मोदी के फैन्स की कही बातों का कौमी किस तरह दुष्प्रचार कर रहे हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी को इन्होंने पिछले 13 वर्षों से ड्राकुला, राक्षस, नरपिशाच, हत्यारा, खूनी, कसाई, कसाई से भी गया-बीता, शैतान और न जाने क्या-क्या पुकारा है? तब कहां गया था लोकतंत्र, तब कहां थी वाद-विवाद की परंपरा, तब कहां थे तुम्हारे तर्क, तब किस जगह घुस गया था- विवाद का स्पेस औऱ तब कहां चली गयी थी, तुम्हारी लोकतांत्रिक विरोध की परंपरा?

तुम फर्जी हो कॉमरेड, तुम घटिया हो, तुम निकृष्ट हो औऱ मज़े की बात है कि इस बार यह फैसला स्वयं जनता-जनार्दन ने सुनाया है। तुमको उसने इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दिया है, समूल नष्ट कर दिया है और मट्ठा डाल दिया है। तुम अभिभूत हो, विस्मित-विमूढ़ हो, आश्चर्यचकित-अविकल हो। भारतीय जन ने 66 वर्षों के बाद ही सही, कांग्रेसी गंध और कौमी सड़न को नाली का रास्ता तो दिखाया। कोई कुतर्क नहीं कीजिए महाशय, कोई लीपापोती नहीं। आपका तर्क होगा कि राजीव को इससे अधिक सीटें मिली थीं, लेकिन वह सहानुभूति की भीख थी, सकारात्मक वोट नहीं था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की सहानुभूति लहर में मात्र राजीव लला को इससे अधिक सीटें मिली थीं।
इन तीन दिनों में तमाम गुणा-गणित किए जा रहे हैं। तर्क गढ़े जा रहे हैं कि मोदी को महज 33 फीसदी वोट मिले, यानी 70 फीसदी जनता उनके खिलाफ है, कि भाजपा को सबसे कम वोट प्रतिशत मिलकर भी सबसे बड़ी पार्टी का तमगा मिल गया, कि यह तो मोदी का प्रचार-अभियान था, जो जीत गया, कि यह दरअसल क्रोनी कैपिटलिज्म और अडाणी-अंबानी की जीत है, कि यह सपनों को बेचने की जीत है, कि यह तो दरअसल मीडिया-मैनेजमेंट है।

वाह रे मेरे तर्कवागीशों, बुद्धि-वरेण्यों और दोगलेपन की नित नयी सीमा तोड़नेवाले अभिजात महानुभावों!! ये सारे तर्क आप लोगों को आज से पहले क्यों नहीं याद आए, आज से पहले क्या कांग्रेस या किसी भी दल को पूरे 70-80 फीसदी वोट मिलते आ रहे थे, क्या आप इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं करते कि इसी मीडिया ने अरविंद केजरीवाल को भी सिर पर चढ़ाया था, जब सोनिया माइनो पीएम नहीं बन पायी थीं, तो यही खबरिया चैनल उनका पल-पल दिखाते थे और इसी मीडिया ने 2009 से 2014 तक कांग्रेस का गुणगान किया है। खेल के नियम एक समान रखो बंधु! अपनी हार को गरिमापूर्वक सह लेने की आशा तो खैर तुमसे क्या की जाए, लेकिन अपनी बदहजमी का सार्वजनिक प्रदर्शन तो न करो, बंधुओं। आज, जो नीतीश नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं, वह दरअसल उसी तरह का त्याग है, जैसा सोनिया माइनो ने 2004 में किया था, जब वह पीएम की कुर्सी से दूर रह गयी थीं।

यह दरअसल उस व्यक्ति की जीत है, जो हरेक विरोध, प्रहार, गाली, मिथ्या आरोप, झूठे-सनसनीखेज़ allegations के बीच चट्टानी दृढ़ता से खड़ा रहा, जिसको न केवल बाहर, बल्कि अपनी पार्टी के पैट्रियार्क (bullshit!) और उसके चेलों का भी विरोध झेलना पड़ा। जिसे, पिछले 13 वर्षों में न जाने कितनी बार कठघरे में खड़ा किया गया, न जाने कितने प्रहार (सामने या पीछे से) किए गए। पर, वह उठता रहा, हरेक बार….अपनी ही राख से, फीनिक्स की तरह। जिसने अपनी बोली से नहीं…अपने कर्मों से जनता को जीता….और ऐसा जीता कि तुम्हारे और तुम्हारे कांग्रेसी आकाओं के मुंह पर कोलतार की गहरी परत पोत दी, कॉमरेड। दलितों की बहुलता वाली सीटों पर भी मोदी को 50 फीसदी से अधिक सीटें आयीं, मुसलमानों की बहुलता वाली सीटों पर भी मोदी को बहुमत, नक्सली इलाकों में भी बीजेपी के पक्ष में ज़बर्दस्त रुझान…फिर भी मोदी हत्यारे, क़ातिल, ज़हर की खेती करनेवाले…???? तुम क्या कभी नहीं सुधरोगे, कॉमरेड? अब, तुम्हारे पास खोने के लिए ख़ैर, बचा ही क्या है? जमीर और रूह का तो तुम, बहुत पहले ही सौदा कर चुके हो।

हालांकि, जनता ने तुम्हारी हनक तोड़ दी है। उसने दिखा दिया है कि आइने में तुम कितने भौंडे दिखते हो। उसने भांड़ो और मीरासियों वाले तुम्हारे प्रहसन पर हंसने से इनकार कर दिया है। दरअसल, नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी प्रतीक हैं- छद्म पर यथार्थ की विजय के। इस देश में अब तक चले आ रहे, झूठ और प्रोपैगैंडा के ऊपर वज्र-प्रहार का। वह उद्घोष हैं, कौमियों-कांग्रेसियों के दमघोंटू झूठ से छुटकारे का। यह शानदार चोट है, उन युवाओं की..जो बूढ़ी-थकी कांग्रेस और उससे भी थके मां-बेटे की जोड़ी को इतिहास के कूड़ेदान में पेंकने पर आमादा हैं। यह गूंज है उस झन्नाटेदार थप्पड़ की, जो हरेक छद्म बुद्धिजीवी, सेकुलर (sic.), कौमी, कांग्रेसी टुकड़खोर के गाल पर जनता के वोट ने चस्पां किया है। यह केवल और केवल नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी की जीत है। उस आदमी की जीत है, जो खुद इस चुनाव में मुद्दा भी था, मसला भी था, सवाल भी था और जवाब भी…..
 सलाम, सलाम और सलाम!!!

8 COMMENTS

  1. जेएनयू के संदर्भ में आपने जो लिखा बीएचयू में वही काम संघ एबीवीपी करती है और बीएचयू के कुछ शिक्षक इसे बढावा देते है

  2. जिनको भी यह लेख पसंद आया और जिन्होंने भी टिप्पणी के द्वारा उत्साहवर्द्धन किया है…उनको धन्यवाद….आप सबका स्नेह और प्यार ही संबल है…..

  3. बहुत सटीक, आक्रामक और शालीन विश्लेषण के लिए बधाई।

  4. ​वाह वाह वाह, क्या शब्द व्यंजना है, क्या गहराई और सूक्ष्मता से आकलन किया है इन वैचारिक दिवालियापन के मनोरोग से ग्रसित छद्मवेशी धूर्त पाखंडियों का। पराश्रयी अमरबेलों की तरह इन लोगों ने देश के वैचारिक तंत्र पर ही कब्ज़ा करके उसे अपने मन मुताबिक बना दिया था। रेत पे तम्बू गाड़ के ये लोग उसे किले की संज्ञा दे रहे थे। एक ही आंधी ने इनके किलों को मटियामेट कर दिया। इन आभाषी दुनिया रहने वालों ने परख तो लिया था की इनका रेत का महल टूटना है इसी क्रम में इन्होने मोदी पर निरंतर लांछन और आक्षेप लगाते रहते थे। इनके निरंतर मातम और विलापों से ऐसा बवंडर उठा की वो इनके गढ़ों को मटियामेट कर दिया। नतीजा भीख पर पलने वाले पुनः फिर वहीँ सड़क पर आ गए। सन्तुष्टता, समन्वयता, स्वीकार्यता किसी भी लोक तंत्र के लिए जरूरी तत्व होना चाहिए। ये ठीक उसके विपरीत अधिनायक वादी प्रवृति से ग्रसित हैं। नाम सर्वहारा का लेते हैं और कार्य किसी तानाशाह का सा करते हैं। इन्हें अपने आगे किसी और विचारधारा का अस्तित्व स्वीकार ही नहीं है , इसी का नतीजा था सोवियत यूनियन, चीन क्यूबा में लोगों की प्रताड़ना और संहार। और आज फिर उसी अधिनायकवादी मानसिकता से युक्त वैचारिक बबासीर से ग्रसित चंद बीमार मानसिकता के सो काल्ड लेखक विष वमन कर रहे हैं।

    बहुत सुन्दर लेख साधुवाद।


    सादर,

  5. Dear friend
    I entirely agree with you. The article is full of facts and has been written with clinical precision. Keep on writing and continue to expose such super pseudo intellectuals.

    Suresh Maheshwari

  6. भाई आनंद आ गया.इन छद्म बौद्धिकों को बड़ा उचित जवाब दिया है.रस्सी जल गयी लेकिन बल नहीं गए.

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