गुरू गोलवलकर की जुबानी संघ की असली विचारधारा

आज भारत के नौजवान आरएसएस के बारे में न्यूनतम जानते हैं। भारत में युवाओं के मन को विचारधारात्मक तौर पर विषाक्त करने में संघ परिवार की सबसे बड़ी भूमिका रही है। अधिकांश युवा नहीं जानते कि संघ का लक्ष्य भारत को लेकर क्या था?

आज हमारे देश में जो लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघात्मक राष्ट्र का वातावरण है और जिस संघात्मक व्यवस्था में हमारा शासन चल रहा है। इन सबका संघ ने विरोध किया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उन संगठनों में है जिसने वयस्क मताधिकार का विरोध किया था।

सन् 1919 में वयस्क मताधिकार का विरोध करते हुए गोलवल्कर ने लिखा ‘वयस्क मताधिकार सभी देशों में नहीं है। केवल नहीं है जहाँ शताब्दियों का अनुभव है और वहां अशिक्षित जन समुदाय को मताधिकार प्रदान करना अनुचित प्रतीत नहीं होता। सर्वप्रथम जन समुदाय को शिक्षित करना आवश्यक है।’ (पत्रकारों के बीच श्री गुरूजी, हिन्दुस्तान साहित्य 2,राष्ट्रधर्म प्रकाशन लखनऊ,पृ38)

भारत में भाषावार राज्यों का गठन हो, यह स्वाधीनता संग्राम में पैदा हुई साझा राष्ट्रीय मांग थी, कांग्रेस का यह वायदा भी था कि आजादी के बाद भाषावार राज्यों का गठन किया जाएगा। गोलवलकर ने भाषावार राज्यों को ‘राष्ट्र की व्याधि’ कहा था। उन्होंने राज्य पुनर्गठन आयोग की रिपोर्ट आने के बाद कहा- ‘ हम संघात्मक संविधान की चर्चा एकदम बंद कर दें; भारत में पूर्ण या अर्द्ध स्वायत्त सभी राज्यों को समाप्त कर दें तथा एक देश, एक राज्य, एक विधानसभा और कार्यपालिका की घोषणा करें, जो प्रादेशिक, सांप्रदायिक अभिनिवेश से मुक्त हो तथा जिसकी अखंडता को किसी भी भांति भंग न किया जा सके।’ (पालकर, श्री गुरूजी व्यक्ति और कार्य,पृ.277)

धर्मनिरपेक्ष राज्य का विरोध करते हुए लिखा ‘असांप्रदायिक (धर्मनिरपेक्ष) राज्य का कोई अर्थ नहीं।’ (पत्रकारों के बीच गुरूजी,पृ36)

आरएसएस के सरसंघचालक ने फासीवादियों की तरह ही एकात्मक निगमीय अथवा सहकार्य (कारपोरेट) राज्य की स्थापना को संघ का लक्ष्य बताया था। उसकी स्थापना के उद्देश्यों की घोषणा में कहा गया है कि वह एक सुसंगठित और सु-अनुशासित निगमीय (कारपोरेट) जीवन का निर्माण करने के लिए स्थापित किया गया था।’( एंथनी एलेनजी मित्तम पूर्वोक्त,पृ.79)

20 COMMENTS

  1. ताऊ सही से पढ़ भी लिया करो
    उसके बाद ही अपनी ये वामपंथी सोच को प्रकट किया करो

    आपके हिसाब से सन् 1919 में गोलवलकर गुरु जी ने वयस्क मताधिकार का विरोध किया था

    अब जरा ये बताओ 1906 में जन्म हुआ गोलवलकर गुरु जी का और १३ साल की उम्र में ही उन्होंने ये सब करना प्रारम्भ कर दिया

  2. प्रत्येक संस्था का एक लिखित संविधान व उद्देश्य होता है और उसके कार्यकलापों का समुचित व सुरक्षित रखरखाव किया जाता है,किन्तु संघ में ऐसी ब्यवस्था क्यों नहीं है;यह एक विचार णीय प्रश्न है?जब किसी संस्था के कार्यकलापों का कोई लेखा जोखा ही न हो तो उसे या उसके सदस्यों को किसी अच्छे या बुरे कार्य के लिए किस प्रकार दोषी या सराहनीय ठहराया जा सकता है।इस संस्था का देश काल परिस्थिति के अनुसार उद्देश्य एवं कार्य करने का एजेंडा भी आवश्यकतानुसार बदलता रहता है।इसप्रकार संघ एक कालातीत या कालजयी संस्था है, जो परिस्थितियों के अनुरूप अपना चाल चरित्र और चेहरा बदलती रहती है।इसमें कोई दोराय नहीं कि यह शुद्ध रूप में एक ब्राम्हणवादी संस्था है,जिसमें समानता की नहीं वरं समरसता की बात की जाती है।यह समाज में परिवर्तन नहीं बल्कि सामाजिक सामंजस्य बैठाने की बात करती है।इसे धर्म निरपेक्षता के प्रतीक तिरंगे झंडे की जगह भगवा ध्वज स्वीकार्य है।इसका प्रजतंत्र पर नहीं एकतंत्र पर विश्वास है।यह भारत के संविधान पर नहीं मनुस्मृति पर अधिक विश्वास करती है।यही इसकी खास विशेषता है।

  3. भाई चतुर्वेदी जी,
    अपने परिचय में आप अपने आप को “वाम-पंथी चिन्तक” बताते हैं .. मेरे विचार से चिन्तक को स्वतंत्र चिन्तक होना चाहिए तभी वह स्वस्थ चिंतन करा सकता है.. चश्मा पहन कर देखने से तो सारा संसार चश्मे के रंग का ही दिखाई देगा ..हर व्यक्ति / संस्था में कुछ गुणात्मक होता है कुछ दोषपूर्ण .. संघ में आपको दोष ही दोष दिख रहे हैं यह चश्मे का ही प्रभाव है .. आपके कई लेख इस स्तम्भ में पढ़ चुका हू.. हर लेख के अनुसार संघ को फासीवादी, प्रजातंत्र का शत्रु, आदि लिखा है किसी में भी ऐसा उल्लेख करना भी उचित नहीं समझा की संघ की शाखाओं प्रशिक्षित हजारों स्वयंसेवक आज देश की सेवा को उद्देश्य मान कर हजारों सेवा कार्य कर रहे हैं.. इकतरफा लिखने वाले को लेखक की बजाय किसी ख़ास विचार का प्रचारक ही कहा जा सकता है … .. आपका दावा है की आप नई पीढ़ी को संघ की असलियत बता रहे है ..संघ के लाखों स्वयंसेवक प्रतिदिन शाखा पर एक प्रार्थना बोलते हैं जो उन्हें उनके उद्देश्य का स्मरण कराती है … उसे भी पढने का कष्ट कर लीजिए और अपने अगले लेख में इस प्रार्थना का भी पोस्टमार्टम कर दें .. आप की असलियत भी पाठक समझ लेंगे

  4. भाई सुनील पटेल जी, हमारे लेखन की सार्थकता आप सरीखी विचारशील व संवेदनशील पाठकों के कारण है. सच बात तो एक यह भी है कि लेखक लेखन के बिना ठीक उसी प्रकार नहीं रह सकता जैसे ईश्वर सृष्टि रचना के बिना ( एको अहम् बहुस्याम ), माँ अपने बच्चे को जन्म दिए बिना नहीं रह सकती. एक मुक्तक इसपर है—————-
    “जच्चा के इक बच्चा हुआ है / पहला-पहला / अभी-अभी , जनने का सुख / पाने की पुलक / बच्चा तो बच्चा जच्चा भी चुप रहे कैसे /
    यही हाल होता कवि का रचने को / और नया कुछ रचने के बाद. ”
    मैं भी सचमुच हृदय से आभारी हूँ डा. चतुर्वेदी जी का जिनके संघ विरोधी लेखन ने मेरी लेखनी के लिए उत्प्रेरक का काम किया. आदरणीय भाई चतुर्वेदी जी से अभी और बहुत कुछ कहना शेष है जिसके लिए उन्हों ने एकांगी, एक पक्षीय, असंतुलित, अत्यधिक पूर्वाग्रही संघ विरोधी लेखन करके मुझ जैसों को कुछ कहने को बाध्य कर दिया है.
    बड़े कमाल की बात नहीं है कि जिस संगठन (राष्ट्रीय स्वयमसेवक संघ ) की प्रशंसा जनरल करिअप्पा, घोर संघ विरोधी नेहरु जी और जयप्रकाश जी तक ने की ; उस संघ में हमारे विद्वान् लेखक डा. चतुर्वेदी जीको केवल दोष ही दोष नज़र आते हैं, गुण एक बी नहीं. . यदि वे संघ के गुण – दोष दोनों पर प्रकाश डालने का प्रयास करते तो माना जा सकता था कि उनका लेखन पूर्वाग्रह का शिकार नहीं है. पर जब वे केवल और केवल संघ कि कमियों और बुराईयों को ही दिखाने का दुराग्रही प्रयास करते नज़र आते हैं तो कोई भी समझ सकता है कि वे पूर्वाग्रहों का शिकार बहुत बुरी तरह बन चुके हैं, उनकी वैचारिक कंडीशनिंग हो चुकी है. किसी भी विचारशील व्यक्ती या लेखक के लिए यह कोई अच्छी स्थिती नहीं है.
    मेरा विनम्र और सादर सुझाव उनके लिए है कि वे अपने पूर्वाग्रहों के घेरे को तोड़कर संघ पर संतुलित दृष्टि से पढ़ें, सोचें और समझें. क्षमा करें, आप संघ के बारे में इतनाकुछ कटु और आधार हीन लिख चुकें है कि न चाहते हुए भी कुछ कठोर शब्दों का प्रयोग सही बात कहनें के लिए हो जाता है. आशा है कि आप इस संवाद को सही परिप्रेक्ष्य में लेंगे.
    सादर आपका अपना, शुभाकांक्षी,
    -डा. राजेश कपूर.

  5. धन्यवाद चतुर्वेदी जी. आपके कारन डॉ. कपूर जी और डॉ. मधुसुदन जी से संघ के बारे में और भारतीय इतिहास के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला जो की स्कूल, कालेग के इतिहास में नहीं मिलता है.
    मैं संघ से तो नहीं जुड़ा हु किन्तु जहाँ तक जनता हूँ संघ बहुत ही आदर्शवादी, जिम्मेदार संगठन है. इससे जुड़े लोग बहुत अनुशाषित, स्वाभिमानी होते है.

  6. *****भारत, भारतीयता से घबराने वालों के लिए******

    सन 1750 के बाद तक भी यूरोपीय देश लुटेरे थे और भुखमरी का शिकार थे. सैंकड़ों नहीं हज़ारों पृष्ठों के प्रमाण है जिनसे पता चलता है कि भारत को अंधाधुँध लूटने के बाद ब्रिटेन आदि देश समृद बने. आज भी ये लोग साफ़-सुथरे शहरों और विशाल भवनों के स्वामी इमानदारी से नहीं लूट के कारण हैं. ऐसे अमानवीय व्यवहार और व्यापार की जड़ें इनकी बर्बर अपसंस्कृति की ही उपज है.
    सवाल यह उठता है कि ऐसे लोग संसार के परदे पर केवल भारत में ही क्यों हैं जो अपने देश कि प्रशंसा से गौरवान्वित अनुभव नहीं करते, अपनी संस्कृति की प्रशंसा से वे रोमांचित नहीं होते, आनंदित नहीं होते. पश्चिमी देशों की आलोचना से उन्हें कष्ट होता है, पश्चिम की प्रशंसा उन्हें भाति है,स्वाभाविक लगती है, पर भारत कि आलोचना इन्हें परेशान नहीं करती, ऐसा क्यों?
    इसका एक ही अर्थ है कि मैकाले कि जीत हुई है, उसकी योजना सफल हो गई है. भारत को लूटनें के रास्ते में गौरव से भरे भारतीय ही तो बाधा थे. झूठे इतिहास के हथियार से भारतीयों को इतना बौना बनादिया कि अब वे अपने देश और संस्कृति की आलोचना, अपमान से ज़रा भी विचलित नहीं होते.

    करतार जी , समझदार को इशारा ही काफी होता है, आप तो विचारशील और विद्वान् हैं, बहुतकुछ थोड़े में ही समझ जायेंगे. सन 1835 की दो फ़रवरी को ‘टी बी मैकाले’ ने ब्रिटेन की संसद में कहा कि—————–
    ” मैंने दूर-दूर तक भारत की यात्राएं की हैं पर मुझे एक भी चोर या भिखारी नहीं मिला. ये लोग इतने चरित्रवान हैं, इतने अमीर हैं, इतने बुद्धिमान हैं कि मुझे नहीं लगता की हम कभी इन्हें जीत पाएंगे, जबतक कि हम इनकी रीड की हड्डी नहीं तोड़ देते जोकि इनकी संस्कृति और सभ्यता है. इसलिए मेरा सुझाव है कि हम इनकी शिक्षा को बदल डालें. तब ये अपनी संस्कृति ,गौरव को भूलकर हमें श्रेष्ठ मानने लगेंगे और वह बन जायेंगे जो हम इन्हें बनाना चाहते हैं, एक सही अर्थो में पराजित राष्ट्र ” महामहिम राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम आज़ाद द्वारा यह कथन उधृत किया गया था.
    अब आप ही बताएं कि भारत का सच क्या है और हम जानते क्या हैं ? दुनियां के किसी भी देश का कोई भी नागरीक बतलाएं जो अपने देश की आलोचना का एक भी शब्द सहन करे, अपने देश कि प्रशंसा पर हमारी तरह कष्ट अनुभव करे. दूसरे देश की आलोचना पर दुखी होनेवाला व्यक्ति भी भारत के इलावा और कहाँ मिलना है. जापान में मिलता पर उन्होने अंग्रेजों से आज़ादी पाते ही कॉन्वेंट स्कूलों को यह कहकर बंद करदिया कि इनमें देशद्रोह की शिक्षा दिजाती है. वहाँ नेहरु जी जैसे समझदार होते तो जापानी भी अपने देश, संस्कृति की आलोचना करते -सुनते होते.

    एक सूत्र का प्रयोग करके हम जान सकते हैं कि हम मैकाले की योजना का शिकार बनकर अपने देश और संस्कृति के दुश्मन बने हैं या नहीं.

    ‘ अपने देश, संस्कृति, महापुरुषों, श्रधा केन्द्रों की प्रशंसा सुनकर हमारे रोंगटे खड़े होते हैं या नहीं, हम आनंदित होते हैं या नहीं ?
    अपने देश, धर्म, संस्कृति, बलिदानियों, पुराण-पुरुषों की आलोचना से हमारा रक्त खौलने लगताहै, हम आवेश– क्रोध से भर उठते हैं या नहीं? यदि नहीं तो इस कटु सच्चाई को जानलें, मानलें कि हम देश द्रोही बन चुके हैं, चाहे अनजाने में ही सही. हम मैकाले की कुटिलता का शिकार बनकर , भारत को समाप्त करनें का हथियार बन चुके हैं. अब ऐसा ही रहना है या सच को जानकर मैकाले के कुटिल चुंगल से निकलना है ? इसका फैसला स्वयं करलें.

    • राजेशजी ऐतिहासिक जानकारी के लिए सहर्ष, धन्यवाद।
      रॉयल एशियाटिक सोसायटी की मिटींग अप्रैल १०, सन १८६६ में लंदनमें हुयी थी। जिसमें “Aryan Invasion of India का षड्‌यंत्र भी रचा गया था। यह जानकारी Vivekanandaa- A Comprehensive Study -by Jyotirmayaanand जी की पृश्ठ ३६६ पर, पुस्तकमें छपा हुआ है।
      “A clever clergyman Edward Thomas spelled the theory with Lord Strangford in the chair.
      अब इन सारे “मस्तिष्क क्षालन” (Brain Washing) का परिणाम, हमें दिखाई देता है।
      हमारा भाग्य है, कि श्री. हेडगेवार, तिलक, सावरकर, गुरूजी, गांधीजी, इत्यादि, अनेक नेता इस “मस्तिष्क क्षालन” से बचे। अहरे गहरे इसमें बह गए।
      लगता है, वामवादी अन्य विचारधाराएं अपना प्रभाव खो रही है, इसलिए “आक्रामकता” अपना रही है। Offense is the best defense उक्ति चरितार्थ करती हुय़ी। यह ज्योत बुझनेके पहले की भभक तो नहीं?

    • भाई साहब किस भारत की बात कर रहे हो …..आज भी सिर्फ उत्तर भारत के शहरों को छोड़ कर शेष भारत की निम्न जातिओं की दशा मैंने अपनी आंखों से देखी है…..किसी किताब से नहीं पढ़ी…. बहुत से पिछड़े देहातों में वहां के दबंग लोग दलितों से जानवरों जैसा व्यवहार करते हैं …..अभी चार दिन पहले की खबर थी कि एक नई की दबंगों ने बुरी तरह पिटाई की क्योकि उस नाई ने किसी निम्न जाति के पुरुष के बाल काटे थे ….कुछदिन पहले एक खबर थी कि दलित दूल्हे को घोड़ी से धक्के मार कर स्वर्ण दबंगों ने उतार दिया
      ये वो खबरें हैं जो हर सप्ताह अखबार में छपती हैं और जाने कितनी हज़ारों खबर होंगी जो दबंगों के कारण छप नही सकती ….
      अगर आज सारे देश के दलितों के साथ इतना घटिया व्यवहार हो रहा है तो 2 हज़ार 3 हज़ार साल पहले क्या होता होगा

      अंग्रेजों में लाख बुराइयां थी पर कभी ये भी सोचो कि अंग्रेज़ के आने से पहले कोई भारत सरकार थी क्या…..देश छोटे छोटे राज्यों, रियासतों में बंटा हुआ था…..अंग्रेजों ने बुद्धि, छल बल से भारत को “एक” देश बनाया govt. of india बनाया

      आरएसएस की विचारधारा वोही अंग्रेजों के आने से पहले वाले भारत को फिर से पीछे ले जाने की है

      मैकाले की चिट्ठी की बात झूठी भी हो सकती है … भारत में झूठ फैलाने वाले की बहुतायत है अंग्रेजों में नहीं ……लेकिन अब अंग्रेजों को कुछ भृष्ट भारतीयों के साथ रह के भी झूठ की आदत हो गई है जो ट्रंप जैसे बेईमान व्यवसई नें देखी जा सकती है

      हर व्यक्ति कुछ पढ़ सुन कर अपने विचार बनाता है….जरूरी नहीं कि जो उसने पढ़ा है सुना है सच ही हो ……पक्ष और विपक्ष के विचार पढ़, सुन कर अपना भी यथासम्भव दिमाग़ लगाना चाहिए…..लॉजिक के पैमाने पर अपने विचार बनाने चाहियें

  7. आदरणीय भाई जगदीश्वर चतुर्वेदी जी,
    आपका “प्रवक्ता.काम” पर मिला जवाब आपकी प्रतिष्ठा के अनुरूप ही होना था. आपकी मित्रता गौरव का विषय है.
    महोदय, आप जानते हैं कि आंशिक सामग्री से कई बार विषयवस्तु का सही अर्थ समझाने में भूल होजाती है. संघ दर्शन संक्षेप में समझने के लिए दीनदयाल जी का ‘एकात्म-मानववाद’ मेरी दृष्टि में सर्वोत्तम है.
    वास्तव में भारतीय जीवन दर्शन, संस्कृति ही संघ दर्शन है.उसपर व्यवहारिक आचरण करने ,समझने में भूल असंभव तो नहीं.
    संघ के व्यवहारिक पक्ष क़ी कुछ झलकियाँ उसे समझने में सहायक होंगी. उसकी एक अटैचमेंट संलग्न है. आपने बड़े सहज भाव से मुझे एक कठिन जिम्मेवारी सौंप दी है कि संघ को कम से कम शब्दों में कैसे समझना और समझाना है. निभाने का प्रयास रहेगा, स्वाभविक है क़ी कुछ और समय तो लगेगा.धन्यवाद.

  8. राजेश कपूर जी, मैंने संघ के बारे में जितनी भी बातें लिखी हैं वे संघ के आधिकारिक स्रोत के आधार पर लिखी हैं। मेरा इरादा संघ की निंदा करना नहीं है ,यह संघ का मूल्यांकन है। संघ के बारे में मूल्यांकन पढ़कर आपको नाराज नहीं होना चाहिए। ब्लॉग लेखन का मकसद संवाद करना है और संवाद करते हुए नाराज नहीं होते। आप लेख में व्यक्त विचारों का सप्रमाण खंड़न करें। अच्छा लगेगा। खंडन-मंडन भारतीय परंपरा है। खंड़न-मंडन करने वाले दोस्त होते हैं।

  9. मधुसूदन जी, आपने जिस गलती की तरफ ध्यान खींचा है उसके लिए मैं जिम्मेदार हूँ, लिखने में भूल हुई है यहां वर्ष 1919 की बजाय 1949 पढ़ें। यह सूचना ‘पत्रकारों के बीच गुरूजी’ पृ- 38, नामक पुस्तक से ली गयी है।

  10. सन् 1919 में वयस्क मताधिकार का विरोध करते हुए गोलवल्कर ने लिखा ‘वयस्क मताधिकार सभी देशों में नहीं है।
    Dear Professor Chaturvedi ji, In 1919 ShrI GurujI Golwalkar was only 12 or 13 —How would you quote some one at that age? We want you to criticise RSS but please be thorough, as Dr Rajesh Kapooor has suggested in his note.

  11. भाई चतुर्वेदी जी,
    यह तो धांधली है, दादागिरी है, नासमझी की पराकाष्ठा है. ऐसी आशा मेकाले के मानस पुत्रों और भारत को कमजोर करनें वालों से तो की जासकती है, पर आपको तो मैं समझदार और एक इमानदार लेखक मानता हूँ, वैचारिक मतभेद तो चलते रह सकते हैं. आखिर यह भारत है, कोई साम्यवादी तानाशाही वाला देश तो है नहीं. पर आपसे इतनी आशा तो हम करते ही हैं की आप जिस विषय पर लिख रहे हैं उसके बारे में गहराई से अध्ययन तो कर लें. उथली जानकारी के आधार पर, पूर्वाग्रहों का शिकार बनकर लिखेंगे तो आपके लेखन की विश्वसनीयता घटेगी. आपकी समझ पर पाठकों का विश्वास समाप्त होगा. कृपया संघ के विचार, दर्शन और क्रित्रित्वा के बारे में अध्ययन करके उसकी आलोचना करना चाहें तो करे. पर कमसे कम एक बुद्धिमान लेखक की अपनी छवि की रक्षा के लिए लेखकीय विषय का समुचित अध्ययन आवश्य करें. आशा है अन्यथा नहीं लेंगे. मैं आपकी लेखन शैली और विषय प्रस्तुति का प्रशंसक हूँ. पर इस अधकचरी जानकारी के आधार पर, पूर्वाग्रही लेखन ने मेरी तरह आपके कई प्रशंसको को निराश किया होगा.
    क्षमा करें, आप सरीखे विद्वान् का इस सिमित लेखन से समाधान नहीं होगा, अतः किसी अध्ययनशील संघी मित्र की सलाह से कुछ संघ साहित्य का अध्ययन कर लें. फिर आप द्वारा किया आलोचन- लेकन तथ्यात्मक और गहरा होगा.
    शुभ कामनाओ सहित, सादर,आपका अपना,

  12. Yeh bahut chinta ki baat hai ki ek ladka apni shaadi ke liye ladki ka chayan karne ke liye 21 varsh ki umra hone per hi nirnaya le sakta hai magar vah ladka desh mein sarkaar kaisi ho is ka nirnaya 18 varsh ki umra mein hi le sakta hai.
    Dono mein se ek baat bilkul galat hai.

  13. tum khud kitana sangh ko janate ho????kitani bar shakha gaye???kon si sangh ki kitabe padhi???
    1.bhashavar prant rachan:kitana gatiya nirny tha esaka anubhav sabko he,desh ki ekta v akhandata ko hani pahuchane vale es nirnay ne kitane hi dange karvaye,kitane hi jane gayi par aj bhi har ek prant prithak hona chahata he,etana hi shok he desh ko tukado tukado me batane ka to jra “gorakha land” ka to samrthan karo??
    2.vaysk matadhikar:jo log apana bhala bura soch nahi sakate,jinko ye bhi pata nahi ki partiya kitani he,unaki vichar dhara kya he,loktantr kya hota he,un logo ko matadan ka adhikar diya gaya,natija,bhaynkar jatiy voting,jati ki jeet mahtpurn,bharstachar,sharab ,ladae jhagda chunavo me badha,kon jimmedar he esaka??

    matalab ab ye he ki tum “shiksha” ko nahi balki adami ki umar ko mahatv dete ho???bina shikshit huve logo ko vote dene ke adhikar ne loktantra ka kabada kar diya he,or aj shithati ye he ki 10 gadhe 90 insano par rajy kar rahe he.matalab 40 murkh 60 samjhadaro ko hak rahe he.

    • बिल्कुल सही कहा आपने ….इन लोगों को यह ही नही पता कि देश के लिये क्या सही है क्या गलत……बस अपने आरएसएस के तथाकथित विद्वानों द्वारा कही हुई बातों को ही ईश्वर का निरदेश समझते हैं …..इसी लिये इन लोगों को अन्धभगत की उपाधि से सम्मानित किया जाता है

  14. Bhai jagdhish ji ek salah du….manege to achchha rahega… aap apane ye prakhar aalekh(my foot)….kisi vampanthi patrika me hi likha karo….Idhar logo ki galiya sunne kyu aa jate ho….kabhi shakha me shamil ho kar dekho pata chalega desh bhakti kisko kahte hai…….bharat se prem karna seekho….

  15. Your brief bio data explains your stand.A leftist thinker have been indoctrinated to speak against RSS and its activities.RSS has about 150 off shoots doing exemplary work.
    1) No where has democracy been initiated as adult franchise.In UK the so called mother land of democracy (Magna Cart 1215AD),women got RIGHT TO VOTE after more then 700 years.USA the Blacks got right in and around 1980.Democracy should evolve. Adult franchise was a mistake.People unaware of the value of their vote has made a mockery of democracy.
    2) I fully agree with Dr Madhusudan that the linguistic states have caused enormous problems.The balkanisation took place because of linguist states.We may have to undergo similar fate soon.

  16. दो:
    मेरी आप से हृदयतल से बिनती है, कि पूर्वाग्रह छोडकर संघ को निकटता से जानने में समय दे। आपको ना जचे, तो आप स्वतंत्र है,विरोध अबाधित रखे, किंतु मैं भाषावार राज्यगठन को अभी भी व्याधि मानता हूं।
    आप गिनाए, कि, भाषावार राज्य़गठन से कौन से लाभ, (भारत को) हुए हैं, साथ में कौन सी हानियां हुयी है। और बताइए कि कैसे, हानि की अपेक्षा लाभ अधिक है।नए उपक्रमोके निर्णय ऐसे ही लेते हैं।
    यदि, प्रबंधनकी सुविधाके लिए भाषावार रचना है, तो उसे प्रबंधनकी सुविधा कहा जाय।आप क्या नाम देते हैं, यह भी महत्व रखता है।
    राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक क्रियाशील संगठन है। “कागजी घोडा” नहीं है। जिसके देढ लाखसे(कुछके बारेमें तो संघको भी पता नहीं)अधिक छोटे बडे प्रकल्प चल रहे हैं। आपात्काल को समाप्त करने में भी अमरिका के संघ स्वयंसेवकों का भारी योगदान यहां अमरिका से हुआ था।आंदोलनकारियों के पासपोर्ट छिन गए थे। किसीने कोइ पद्मश्री, भारतरत्न न मांगा, न मिला। — संघ को उसके कार्य से नापिए, शब्दोंसे नहीं—– वह कागज़ी घोडा नहीं है, सचमुच दौडनेवाला (कृतिशील) घोडा है।
    वैसे, कलसे से ९ दिन तक (व्यस्त) प्रवास पर हूं, प्रत्युत्तर लौटनेपर संभव हो सकेगा। फिर भी संक्षेपमें बिंदू विचारके लिए प्रस्तुत है।

  17. एक:
    आदरणीय चतुरवेदीजी, आप लिखते हैं:–> भारत में भाषावार राज्यों का गठन हो, यह स्वाधीनता संग्राम में पैदा हुई साझा राष्ट्रीय मांग थी, कांग्रेस का यह वायदा भी था कि आजादी के बाद भाषावार राज्यों का गठन किया जाएगा। गोलवलकर ने भाषावार राज्यों को ‘राष्ट्र की व्याधि’ कहा था।
    उत्तर: मैं भी इसे ’राष्ट्र की व्याधि’ ही मानता हूं। मानता हूं, कि गोलवलकर सही थे। उसी भाषावार राज्यों के गठनके परिणामस्वरूप (अ) आज मुंबई महाराष्ट्र में राज ठाकरे मराठीका आंदोलन कर रहा है। (आ) राष्ट्र भाषा की समस्या गंभीर हुयी है, सुलझ नहीं पायी है। (इ) “अंग्रेजी” माध्यमका का उपयोग (किस राज्यकी भाषा है यह?) चल रहा है, लघुता ग्रंथि से युवा पीडित है, उच्च शिक्षा इसीसे सीमित है और भारत अंतरराष्ट्रीय दौडमें पिछड रहा है।और जनताका मानस दास्यता का परिचय दे रहा है। इसका एक भयावह परिणाम मुझे मेरी युनिवर्सिटी कि “इंडिया स्टुडंट ऍसोसिएशन”(मै एड्वाइज़र हूं) के कार्यकर्ताओंकी नियुक्तिके समय दिखता है। युवा ऐसा ब्रैनवॉश हो चुका है, सोचता है, जबतक कुछ दक्षिण के छात्र, कुछ सिख, कुछ इसाइ इत्यादि पदादिकारी नहीं होंगे तब तक इंडिया पूरा रिप्रेज़ेंट नहीं होगा। पदाधिकारी काम करे या न करे, पर सारी भाषाओंका/राज्यॊका प्रतिनिधित्व होना चाहिए। छात्र प्रचार करते पाए गए हैं, कि “यार तुम गुजराती हो, तो मुझे, एक, गुजरातीको वोट दो। चतुरवेदीजी, मैं संघमें न गया होता, तो पूरा “गुजरातीही रहा होता, और जिस राष्ट्र भाषामें मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं, शायद नहीं लिख पाता।मेरे हिंदी सीखनेमें संघका प्रभावही है। संघ कागज़ी घोडे नही दौडाता। यही अनुभव मैने गयाना, त्रिनिदाद, टॉबेगो, सुरिनाममें भी किया है। वहां संघको कौनसी राजनीति करनी है?

Leave a Reply to Bhavneet Sharma Cancel reply

Please enter your comment!
Please enter your name here